Moral Stories in Hindi : इस साल पति के जाने के बाद ,दूसरी दीवाली है शिखा की। त्योहार मनाने की जो ललक उनमें(पति)देखी थी शिखा ने,वैसा उतावलापन कल्पना के परे है।एक सप्ताह पहले से ही नाक में दम कर देते”तुम्हारी सुनीता को बुलाओ।गुझिया,कचौड़ी,सलोनी,नमकीन और इमरती बनवा लेना।ये सभी चीजें बेटी के होस्टल से आने से पहले ही बनवाया करो।घर में घुसते ही उसे त्योहार की खुशबू मिलनी चाहिए।”हारकर शिखा सुनीता को बुलवाकर सारी चीजें बनवातीं,और पतिदेव रसोई के दरवाजे पर खड़े निरीक्षण करते।
शुगर की वज़ह से बिना शक्कर की चाय पीने वाले,त्योहार आते ही स्वाद के शिकंजे में फंस जाते। अमूमन काला रंग सुहागिनों के लिए मान्य नहीं होता ,पर उन्हें काले और लाल रंग के कांबिनेशन वाली साड़ी ही हमेशा पसंद आती थी।इस साल जब दोनों बच्चे नौकरी करने लगे थे,दीवाली पर घर पर हैं।
शिखा के बेटे की नौकरी पिता की जगह ही लगी थी,पर बेटी पुणे में नौकरी कर रही थी।दशहरे के समय से ही एक के बाद एक साड़ियों के पार्सल भेज रही थी,हिदायत देकर कि तैयार करके रखें दशहरे और दीवाली में पहनने के लिए।अष्टमी के दिन दोपहर को प्योर सिल्क की काली साड़ी का पैकेट खोलते ही शिखा की सास बोलीं”आज संधि पूजा में यही कोरी साड़ी पहन लो बहू,उसकी आत्मा बहुत खुश होगी।शिखा ने पहनी थी वह साड़ी बिना पिको फॉल के।उसके बाद तीन और साड़ियां आईं -सभी काले रंग के अलग-अलग कांबिनेशन में।डांटने पर बोली वह”मम्मी,ये मैं नहीं पापा दे रहें हैं आपको।चुपचाप पहन लो।”
बेटा बाजार जाकर पापा की तरह कांजीवरम ही पसंद करने लगा तो, शिखा ने उसे टोका।बेटे ने कहा”जैसे हर साल पापा आपको अच्छी और मंहगी साड़ी खरीदकर देते थे,अब भी वैसी ही पहनेंगीं आप।आप पर वही साड़ियां जंचती है।ऊपर से पापा आपको देखकर खुश होने चाहिए।
धनतेरस की रात को बहन को स्टेशन से ही लेकर लौटा बेटा।हांथ में झाड़ू थी।बेटी ने सबसे पहले एक छोटी सी सुंदर डिबिया निकाली,जिसमें चांदी का एक ब्रेसलेट और अंगूठी थी।बड़े लाड़ से बोली”मम्मी मेरे बोनस के पैसों से खरीदा है यह।अभी चांदी का ही ले पाई,अगले साल सोने का खरीदूंगी।”
शिखा ने नाराज होते हुए कहा भी”क्यों बेकार में मेरे लिए खरीदी तू।मेरी उम्र अब नहीं है रे,यह सब पहनने की।तुझे अपने लिए खरीदना था।”उसने गुस्से से देखते हुए कहा”तुम जैसे पहले सजती थी ,अब भी वैसे ही सजोगी। सिंदूर नहीं पहन सकती ,तो क्या पापा की पसंद का मान भी नहीं रख सकती।”
भाई से पूछा उसने”दादा ,तू क्या लाया मम्मी के लिए धनतेरस पर।”वह मुस्कुराते हुए बोला”मैं उनकी बेटी को लेकर आया और लाया हूं एक झाड़ू।सारे दुख अब इस झाड़ू से बुहार दूंगा।”
शिखा ने खुशी से छलकते अपनी आंखों को काबू में किया और पति की फोटो के पास खड़ी हो गई।
बेटा बहन से कह रहा था”बोनू आज हम लोग खुद कमा रहें हैं, खर्च भी कर रहें हैं।बचपन में जब पापा ड्यूटी से लेट आते थे,तुरंत चाय बस पीकर ही हमें मोटरसाइकिल पर बिठाकर दुकान में खड़ा कर देते थे।जो मर्जी खरीद लो,याद है तुझे?”
“हां दादा,और मम्मी कपड़ों के रेट देखकर आंखें बड़ी कर लेती थीं,संकेत देने के लिए कि नहीं खरीदना इतना मंहगा।”बेटी भावुक हुए बिना ही बोली।दादा ,पापा कभी अपने लिए कुछ नहीं खरीदते थे,पर पूरे घर के लिए कपड़ों का अंबार ले आते थे।आज हम कितनी भी मंहगी चीज़ें खरीदें ,पर पापा की कमाई से खरीदने का जो सुख है,वह किसी और में नहीं।
शिखा सोचने लगी ठीक ही तो कह रहें हैं बच्चे,इनके पिता ने राजा की तरह शौक पूरे किए हैं इनके।टोकने पर कहते भी थे”मैं जब नहीं रहूंगा ना ,तो ये शिकायत नहीं कर पाएंगें और ना ही अफसोस करना चाहिए इन्हें। बच्चों की खुशियां ही तो दीवाली का त्योहार है।”शिखा जब पूछती कि उसकी खुशी क्या है?तो हंसकर बोलते “दीवाली का बोनस”
आज उनकी अनुपस्थिति में जब बच्चे उनकी यादों का त्योहार मना रहें हैं तो वह क्यों नहीं खुश होकर उनकी यादों की दीवाली मनाएं।
शुभ्रा बैनर्जी
(Story P M)