बेटा इस दुनियाँ में कोई कोई किसी का नहीं है ।अगर तुम्हारे पास पैसा है तो बहुत सारे लोग तुम्हारे हो जाएंगे ।अगर पैसा नहीं तो अपने भी अपने नहीं, चाहे रिश्ता कोई भी हो ।बने के बहनोई सब कोई है,बिगड़े के साला कोई नही ।जगतबाबू और उनकी पत्नी निर्मला देवी अपने बारह वर्षीय पुत्र को दुनियादारी का पाठ पढ़ा रहे थे ।बालक बड़े ध्यान से उनकी बातों को सुन रहा था ।
जगतबाबू उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे ।स्वभाव से भ्रष्ट और घूसखोर ।न जाने उन्होंने अपने कार्यकाल में कितने निरपराधियों को सजा सुनाई और कितने अपराधियों को मुक्त ।इन कुकृत्यों के सहारे उन्होंने ढेंर सारी संपत्ति अरज ली ।वे अर्जन में लगे रहे,बेटा उसे सहेजने में ।वो पढाई से कटता गया,
पैसों को दाँत से पकड़ना सीखता गया ।माता-पिता ने जो सीख दी थी वो उसका अक्षरसः पालन कर रहा था ।घसीट-फसीट कर उसने किसी तरह ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई पूरी की ।आगे की पढ़ाई समाप्त, बस पिता की अर्जित संपत्ति को देख-देख सपनों की दुनियाँ बुनता रहा ।वो भयंकर कंजूस था,
माता-पिता उसके इस स्वभाव से बहुत प्रसन्न थे कि चलो मेरा इकलौता पुत्र मेरी अर्जित संपत्ति को उड़ाने वाला नही वरन सहेजने वाला हुआ ।इधर उसकी शादी हुई,उधर जगतबाबू सेवा निवृत्त हुए ।बेटा दिनेश अब तरक्की कर कंजूस से मक्खीचूस हो गया था ।दया,उदारता,सहिष्णुता आदि गुणों से वह बिल्कुल अनजान था ।
पिता को पेंशन मिलता था,फिर भी वो माता-पिता के भोजन-पानी में कटौती करने लगा ।टोकने पर कहने लगा कि आपके पेंशन से परिवार की गाड़ी आगे नही बढ़ने वाली,आपको काम करना पड़ेगा ।जगतबाबू कहते तुम कोई काम क्यों नही करते ?वो अचंभित होकर पिता का मुँह निहारता और कहता,
मैं काम करूँ!अरे मैं काम करने लगूं तो इतनी विशाल संपत्ति को सम्भालेगा कौन ?थक हार कर जगतबाबू जिला न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस करने लगें ।आसपास के लोग हँसते पर वो क्या करते,
मन मसोस कर रह जाते ।शाम को जब वो लौटते और अपने वस्त्र को खूँटी से टाँगते, उसी समय उनका पुत्र टंगे हुए वस्त्र की जेब से सारे पैसे निकाल अपनी तिजोरी में डाल आता ।जगतबाबू कमा भी रहे थे,पेंशन भी मिल रहा था, पर उन पैसों पर उनका कोई अधिकार न रहा ।वो चाहते तो शान से अपनी जिंदगी जी सकते थे,
पर पुत्र मोह ।उनसे एक-एक पाई का हिसाब लिया जाता, थोड़ा भी कम पड़ने पर गाली-गलौज और मारपीट,उनकी पत्नी बीच-बचाव करने आती तो उनके साथ भी वही सब ।ये घटनाएँ अब उन दंपति के जीवन में आये दिन की बात हो गई थी ।दोनों एकांत में एक दूसरे का गर्दन पकड़ कर रोते,
पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत ।दोनों पति-पत्नी बहुत दुःखी रहने लगे ।आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति में भी बाधा उत्पन्न होने लगी,आनंद विलास तो दूर की कौड़ी थी ।निर्मला देवी भीतर बहु से पीड़ित बाहर जगतबाबू पुत्र से ।बहु ताने मारती की कैसा पुत्र जनि की एक भी शौक मौज पूरा नहीं करता ।
कई बार तो जगतबाबू को इस बुरी तरह पीटा गया कि उनका पूरा शरीर लहु लहुआन हो गया ।एकबार जब इसी तरह उनको पीटा जारहा था और वो बचाओं-बचाओं चिल्ला रहे थे तो अगल-बगल के कुछ प्रबुद्ध और दयालु किस्म के लोग दौड़े तथा उनके पुत्र को पकड़कर पीटने लगे ।
जगतबाबू अपनी पीड़ा भूलकर पुत्र को बचाने लगे तथा आंगतुकों को भला बुरा कहने लगे ।तबसे आस-पड़ोस के लोगों ने उनको बचाना छोड़ दिया ।अपने और अपने पति के अपमान को निर्मला देवी ज्यादा दिनों तक झेल नहीं पाई,एक दिन वो स्वर्गीया हो गई ।
अब बेचारे जगतबाबू अकेले ही पुत्र प्रहार को झेलने पर मजबूर थे ।कोर्ट में अक्सर उनके सूजे हुए चेहरे को देखकर उनके सहकर्मी उनसे पूछते तो जवाब यही होता कि गिर पड़े थे,हाँ गिरने के कारण अलग-अलग बताए जाते थे ।ये गिरने का सिलसिला इतना लंबा चला कि बाद में उनके सहकर्मियों ने उनसे पूछना भी छोड़ दिया,
शायद वो समझ गये थे ।रिटायरमेंट के बीस वर्षों बाद तक वो इस अकथनीय और अकल्पनीय पीड़ा को झेलते रहे,इस आशा में कि एकदिन उनका पुत्र जरूर पटरी पर आ जायेगा ।उनकी इस जीवटता को सब प्रणाम करते थे ।पर शरीर का क्या करते, वो इस पीड़ा को अब झेलने के लिए तैयार नही था,शायद भगवान को एकदिन उनपर दया आगई,उन्होंने उनको अपने पास बुला लिया ।
स्वरचित
दीपनारायण सिंह(दीपु)
मधुबन,सीतामढ़ी,बिहार