” अरे सुनो, डी-44 में चहल-पहल सुनाई दे रही है,लगता है कोई आया है।” मियाँजी का चेहरा गुलाब-सा खिला हुआ था।ऐसा पहली बार तो हुआ है नहीं।पिछले पच्चीस बरस में पतिदेव के बाल सफ़ेद हो गये,तोंद निकल आई, चेहरे की चिकनाहट भी लुप्त हो गई लेकिन नहीं कुछ बदला है, तो वह है उनका स्वभाव।नई पड़ोसिन को देखकर उनका चेहरा आज भी वैसे ही खिल उठता है जैसा कि 1989 में पहली बार मिसेज सबरवाल को देखकर…। घूरते हुए मैंने कहा, ” तो, लड्डु बाँटूँ।”
” अरे नहीं, पड़ोसी धर्म तो निभाना चाहिये।” खींसे निपोरते हुए घर से ऐसे निकले जैसे कमान से तीर।और जब वापिस आये तो हाथ में प्लास्टिक की दो खाली बोतलें और एक बड़ा थैला।मैंने पूछा, ” ये क्या नाटक है?” कहने लगे, ” मिसेज चंदानी बहुत परेशान हैं।एक बूँद पानी तक नहीं है उनके घर में।मैंने सप्लाई वाले को फ़ोन कर दिया है लेकिन हम लोग तो पड़ोसी हैं ना।तुम ना तीन-चार कप चाय बना दो, थैले में भी कुछ बिस्कुट-मिक्चर के पैकेट डाल दो और..।”
” और क्या! पूरा घर इस थैले में भर दूँ।मैंने जब इस घर में शिफ़्ट किया था, तब मुझे तो किसी शर्मा-वर्मा भाईसाहब ने चाय नहीं पिलाई थी।घर के काम के लिए कहो, तो कहते हो ‘ संडे खराब न करो ‘ तो ये क्या है? मैंने अपने तेवर दिखाए तो मोम की तरह नरम होकर बोले, ” एक ही दिन की तो बात है डियर, फिर तो वे..। ” बस-बस, तुम्हारे एक दिन को मैं खूब समझती हूँ।” बेमन से मैंने बोतलों में पानी भर दिया और थैले में खाने-पीने की चीजें भी डाल दी और फिर उसी दिन से पतिदेव का ‘मिसेज चंदानी पुराण’ शुरु हो गया था।
खाते-पीते,उठते-बैठते पतिदेव एक ही राग आलापते- मिसेज चंदानी बहुत एक्टीव हैं,कितना अच्छा बोलती हैं,उनका सेंस ऑफ़ ह्युमर देखो,चाय बहुत अच्छा बनाती है, वगैरह-वगैरह।एक दिन तो कहते हैं, ” जानती हो,मिसेज चंदानी एमए पास हैं।”
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” तो मैं क्या एमए फ़ेल हूँ।” मैंने भी आँखें तरेरते हुए उनपर पलटवार किया।तो हें-हें करके हँसने लगें।
ऑफ़िस से आकर उनके पास तो दो ही काम थें- टीवी देखना और मिसेज चंदानी पुराण परन्तु मुझे तो किचन,बाहर और बच्चों को देखना,सो उनकी चंदानी कथा पर ध्यान देना छोड़ दिया।जानती थी कि नया पात्र आते ही अपने आप ही कहानी बदल जाएगी।
एक सुबह चाय पीते समय पतिदेव ने मुझे अपने पास बिठाया,मैंने आश्चर्य-से पूछा, ” आज सूरज कहाँ से निकला है?” कहने लगे, ” सुनो तो, कल रात मिसेज चंदानी के घर में एक घटना घट गई।” मैंने आश्चर्य-से उन्हें देखा तो कहने लगे, ” कल रात लेडिज क्लब में डिनर-पार्टी थी।मिस्टर चंदानी तो आउट ऑफ़ स्टेशन थें,तो मिसेज चंदानी अकेले ही क्लब चलीं गई। दोनों बच्चों को घर में ही खाना खिलाकर छोड़ दिया और उनसे कहा कि दरवाज़ा बंद कर लो,मैं आऊँगी तो खोल देना।बच्चों ने ‘हाँ मम्मी ‘ कहकर दरवाज़ा लगा लिया।टीवी देखते-देखते बच्चों को नींद आ गई।मिसेज चंदानी ने वापस आकर जब काॅलबेल बजाया तो बच्चों ने दरवाजा नहीं खोला।उन्होंने दरवाज़ा भी खटखटाया,पास के घर से इंटरकाॅम पर फ़ोन भी किया लेकिन दोनों गहरी नींद में थें।”
मैंने उत्सुकतावश पूछा, ” फिर क्या हुआ?”
प्रसन्नता-से बोले, ” उन्होंने मुझे फ़ोन किया और सारी बात बताकर बोली, कुछ कीजिये भाईसाहब।पड़ोसी होने के नाते इतना तो फ़र्ज बनता ही है।सो मैं चला गया।जानती हो,वहाँ जाकर मैंने बाहर से ही पूरे घर का मुआयना किया तो देखा कि पीछे का दरवाजा बंद था लेकिन चिटकनी नहीं लगी थी,बस दीवार पर चढ़कर मैं अंदर कूद गया और ड्राइंग रूम से मेन डोर खोल दिया।मिसेज चंदानी तो चाय पिला रहीं थीं लेकिन..।”
” मैं चाय नहीं पीता, कहकर चले आये।” मैंने कहा तो बोले,” अरे हाँ, यही कहा।मैंने।तुम तो सब जान लेती हो।” मैंने भी सहमति में गरदन हिला दिया और अपने काम में लग गई।
कुछ दिनों के बाद शाॅपिंग सेंटर में मेरी उनसे मुलाकात हो गई।मैंने हाय- हैलो करने के बाद मैंने पिछली घटना का ज़िक्र छेड़ते हुए पूछा कि दरवाज़ा कैसे खुला? उन्होंने कहा कि चाभी तो मेरे पास ही थी,सो खोल लिया लेकिन आपने क्यों पूछा?” उनके प्रश्न पर मैं सकपका गई, बात बदलते हुए मैंने पूछा कि आपको शिफ़्ट करने में कोई प्राॅब्लम तो नहीं हुई।वे तपाक-से बोली, ” नहीं तो,ऑफ़िस का एक पियुन(चपरासी) आकर पीने का पानी और कुछ खाने का सामान दे गया था।” मैं सोचने लगी, इतने सालों में मुझे तो एक भी चपरासी नहीं मिला और इन्हें आते ही…।मैंने पूछ लिया कि क्या नाम था उसका? मैं भी कभी बुला लूँगी।बोली, ” नाम तो पता नहीं, उसके बाल काले- सफ़ेद थें और पेट भी थोड़ा निकला हुआ था।”
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मैं चौंक गई,ये हुलिया तो मेरे पतिदेव की है।अच्छा,तो महाशय जी,अपनी शेखी बघारने से बाज नहीं आयेंगे।उन्होंने पूछा, ” आप जानती हैं उसे?” मैंने कहा ‘नहीं ‘ और आगे बढ़ गई।जी में तो आया कि घर चलकर महाशय जी की खबर लेती हूँ लेकिन फिर सोचा, साहब को ‘चपरासी’ समझकर पहले ही सम्मानित किया जा चुका है, अब मैं भी…।मरे हुए को क्या मारना।
कुछ महीनों बाद हमारा तबादला हो गया।वहाँ का खाली पड़ोस देखकर मैंने संतोष की साँस ली।एक दिन ऑफ़िस से आते ही बोले , ” जानती हो, हमारा पड़ोस का घर जो सूना पड़ा था ना, अब उसमें नये पड़ोसी आ गये हैं।इसी खुशी में गरमागरम चाय पिला दो।” मैं किचन में थी। ‘लाती हूँ ‘ कहकर एक हाथ में झाड़ू और दूसरे हाथ में बेलन लेकर मैं उनके सामने प्रकट हुई और बोली, ” कहिये,कौन-सा धर्म पहले निभाएँ, पत्नी-धर्म या पड़ोसी-धर्म?”
पैंतरा बदलते हुए हाथ जोड़कर विनम्र भाव से बोले, ” देवी, रुष्ट न हो, मानवता का धर्म अपनाना उत्तम होगा क्योंकि अहिंसा परमोधर्म।” उनकी दशा देखकर मुझे हँसी आ आई, मन में कहा,अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे।
— विभा गुप्ता
स्वरचित