“क्या मैंने बहुत देर कर दी?” ये विचार बार-बार अंकित के मन में कौंध रहा है और उसे अधीर कर रहा है। इसी विचार के साथ ही कैंपेगौडा इंटरनेशनल एयरपोर्ट, बेंगलुरु की ओर दौड़ती टैक्सी में बैठा वह बेंगलुरु से नई दिल्ली की फ्लाइट के लिए इमरजेंसी टिकट बुक करता है।
राजस्थान के भिवाड़ी का रहने वाला अंकित अपने जीवन की सबसे बड़ी सफलता के शिखर पर खड़ा है। वह बेंगलुरु के एक बड़े कॉर्पोरेट ऑफिस में एक सफल सीनियर मार्केटिंग मैनेजर के रूप में काम कर रहा है।
उसका दिन सुबह से रात तक ऑफ़िस की मीटिंग्स, प्रेजेंटेशन्स और ईमेल्स के बीच बीतता है। फोन पर दोस्तों और परिवार से बात करने का वक्त उसे कभी नहीं मिलता और यही उसकी रोज़ की दिनचर्या है।
“बस एक और मीटिंग, फिर मैं कॉल करूंगा।” यह शब्द अंकित के लिए रोज़ का मंत्र बन चुके हैं। वह अपने माता-पिता को कम ही फोन करता है। हर बार यही कह देता है, “माँ, पापा, थोड़ा काम है, इस बार नहीं आ पाऊँगा। अगली बार समय मिलेगा तो हम सब मिलकर वक्त बिताएँगे।”
फ्लाइट के टेक ऑफ से पहले अंकित एक बार अपने पापा को फोन करता है, “पापा, मैं आ रहा हूं। अधिकतम 4 घंटे में, मैं जयपुर गोल्डन हॉस्पिटल पहुंच जाऊंगा।”
“बताना मेरा फर्ज था। तू आ या ना आ, ये तेरी मर्जी है।” कहकर उसके पापा फ़ोन काट देते हैं।
पापा की ये प्रतिक्रिया उसे पछतावे के आंसुओं से घेर लेती है। वह महसूस करता है कि उसके पापा की नाराज़गी निराधार नहीं है। यह उसके द्वारा अपने माता-पिता की लगातार की जा रही अवहेलना का ही परिणाम है।
जब अंकित को अपने ऑफिस में एक बड़ी जिम्मेदारी मिली और एक ऐसा प्रोजेक्ट मिला जिसके लिए न जाने कितने लोग कंपटीशन में थे तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।
इस कहानी को भी पढ़ें:
उसका काम और भी बढ़ गया, पर उसका मानना था, “बस इस प्रोजेक्ट में सफलता हासिल कर लूं फिर परिवार के लिए वक्त निकाल लूंगा।”
“ठीक हो, बेटा? क्या तुम वीकेंड पर घर आ रहे हो?” इस प्रोजेक्ट के दिनों में फोन पर माँ का हल्का, परेशान स्वर सुनकर अंकित को थोड़ी घबराहट हुई।
“माँ, इंपॉर्टेंट प्रोजेक्ट चल रहा है, इस बार नहीं आ पाऊँगा, लेकिन अगली बार मैं आपसे मिलने भिवाड़ी जरूर आऊँगा।” अंकित ने अपनी घबराहट पर काम को तरजीह देते हुए जवाब दिया।
“ठीक है, बेटा, जैसे तुम्हें ठीक लगे।” माँ की आवाज़ में एक गहरी उदासी थी, लेकिन अंकित उसे अनुभव करने के बाद भी नजरअंदाज कर, फिर से काम में खो गया।
कई हफ्ते और महीने निकल गए। अंकित का करियर ऊंचाईयां छूता गया, लेकिन रिश्तों में दूरी आती गई। एक दिन, सुबह-सुबह ऑफिस के लिए निकलते हुए अंकित ने देखा कि उसकी माँ का फोन आया था। फोन उठाया तो कुछ भी नहीं कहा गया, सिर्फ एक गहरी सांस ली गई। फिर अचानक फोन कट गया। उसने सोचा कि बाद में कॉल कर लेगा क्योंकि आज ऑफिस में एक बड़ी मीटिंग थी।
मीटिंग के बाद शाम को जब अंकित घर लौटने लगा, तो एक लंबे अर्से बाद उसके पापा का फोन आया, “अंकित, तेरी माँ की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई है। उन्हें दिल्ली में जयपुर गोल्डन अस्पताल ले जा रहा हूँ। सोचा कि तुझे बता दूं।” इतना कहकर उन्होंने फोन काट दिया।
अंकित के हाथ से फोन गिरते-गिरते बचा। उसे सुबह वाला मां का फोन याद आ गया। उसे स्वयं पर क्रोध आने लगा और उसकी घबराहट एकदम से बढ़ गई।
अब वह फ्लाइट में बैठा-बैठा खुद से बड़बड़ा रहा है, “सॉरी माँ, आपको क्या हुआ है? सब ठीक हो जाएगा, मैं आपके पास पहुँच रहा हूँ।” और अगले ही पल “कहीं मैंने देर तो नहीं कर दी!” इस विचार से उसकी आंखों में पछतावे के आंसू आ जाते हैं।
अस्पताल पहुँचने के बाद, अंकित ने देखा कि उसकी माँ एक बेड पर लेटी हुई थीं, ऑक्सीजन मास्क से उनकी सांसें मुश्किल से आ-जा रही थीं। डॉक्टर ने बताया, “उनकी हालत गंभीर है। दिल और रक्तचाप दोनों की समस्या है।”
इस कहानी को भी पढ़ें:
उसने अपने पापा के चरणस्पर्श कर उनसे क्षमायाचना की। माता-पिता की नाराज़गी कभी स्थाई नहीं होती। वे एकदम से पिघल गए। अपने बेटे को प्यार करते हुए बोले, “तुम्हारी मां तुम्हें इतना याद करती है कि थोड़े समय पहले अर्द्धबेहोशी की हालत में वह अंकित, अंकित पुकार रही थीं।”
अंकित की आँखों में आंसू आ गए। उसने माँ का हाथ पकड़ा और धीरे से कहा, “माँ, उठिए, आपको ठीक हो जाना है। मैं हूँ ना! मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह दिन आएगा। मुझे माफ कर दो, माँ।”
माँ की आँखें हल्की सी खुलीं, और उन्होंने अंकित को देखा। उनका चेहरा पीला था, लेकिन आंखों में वही प्यार था, जो हमेशा होता था। उन्होंने धीरे से कहा, “बेटा, तुम ठीक हो न? मुझे कुछ नहीं हुआ है। तुम आ गए हो तो मैं जल्दी ही ठीक हो जाऊंगी।”
दो दिन बाद मां को अस्पताल से छुट्टी मिल गई। लेकिन अंकित के दिल में जैसे एक गहरी चीर हो गई। माँ-पापा के शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे।
उसने गहरी सांस ली और कहा, “माँ, मैंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ हासिल किया, लेकिन आपकी और पापा की भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर दिया। मुझे लगा था कि जब सब कुछ सही हो जाएगा, तब मैं आप दोनों को व अन्य रिश्तों को समय दूँगा, लेकिन अब मुझे एहसास हो रहा है कि जो सबसे ज़रूरी था, वही मैंने खो दिया।”
माँ ने मुस्कुरा कर हाथ उसकी ओर बढ़ाया और कहा, “बेटा, तुम्हारी सफलता पर हमें गर्व है । तुम जहाँ भी हो, बस खुश रहो। हमारे लिए यही सबसे बड़ी खुशी है।”
अंकित ने अपनी माँ का हाथ मजबूती से पकड़ा। उसके दिल में पछतावे के आंसू थे, लेकिन अब उसे एक सच्ची समझ आ चुकी थी। “माँ, अब मैं कभी ऐसा नहीं करूंगा। मैं अपना काम संभालते हुए, आपको कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा। मैं सब कुछ बदल दूँगा, माँ।”
अंकित ने अगले दस दिन की अपनी सारी मीटिंग्स कैंसिल कर दी और कुछ दिन अपने माता-पिता के पास रहने का निर्णय लिया।
उसने अपने पापा से भी कहा, “पापा, काम के अलावा, अब मैं अपने परिवार, संबंधियों और मित्रों को भी अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा बनाऊंगा और आप दोनों के साथ तो ज्यादा से ज्यादा वीकेंड्स और पारिवारिक उत्सव मनाया करूंगा।”
उसे अब एहसास हो गया था, “जिस सफलता के पीछे मैंने इतनी दौड़ लगाई थी, वह कभी मेरी ज़िन्दगी का असली उद्देश्य नहीं थी। असली खुशी और सफलता वही है जो अपने रिश्तों और परिवार के साथ हो, न कि केवल करियर की ऊँचाइयों में।”
इस अनुभव ने अंकित को न केवल एक बेहतर इंसान बनाया, बल्कि उसे यह भी सिखाया कि पछतावे के आंसू तब बहते हैं जब हम किसी चीज को खो देते हैं या उसे खोने के कगार पर होते हैं। उस चीज़ की सही अहमियत तभी समझ में आती है। उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि समय रहते उसकी आंखें खुल गईं।
इस कहानी को भी पढ़ें:
बहु आंखों में आसूं भर अपने सास के पांव पर झुक गई – सांची शर्मा : Moral Stories in Hindi
कहानी का संदेश:
जीवन में रिश्तों की कीमत समझना बहुत ज़रूरी है। कोई भी सफलता, अगर अपने परिवार और अपनों से दूर होकर हासिल की जाए, तो वह अधूरी रहती है। असली सफलता उस संतुलन में है, जहाँ हम अपनी ज़िन्दगी को अपने करियर के साथ-साथ अपने परिजनों के साथ भी जीते हैं।
– सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
साप्ताहिक विषय: #पछतावे के आंसू