पछतावा-शिव कुमारी शुक्ला: Short Story

कहते है कि रूप, योवन, पैसे एव॔ पद का कभी घमंड नहीं करना चाहिये क्योंकि ये चारों ही जीवन में क्षणिक साथी है। पता नही कब दगा दे जायें। किसी भी चीज पर गर्व करना सही है, किन्तु घमंड नहीं। यह इन्सान को ले डूब ता है । गर्व और घमंड के बीच सिर्फ एक बारीक सीमा रेखा है जिसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए ।

आइये देखते हैं ऐसे मोहरों को जो हमारे चारों और समाज में बिखरे पड़े हैं। पहले मिलते है शैली से जो अत्यन्त रूप की धनी थी। बाल्यावस्था से ही उसे अह्सास हो गया था कि वह बहुत सुन्दर है ,भाई बहनों में सबसे छोटी थी ।

गोरी चिट्टी बडी-बडी कजरारी आँखे तीखे नैन नक्श इसके विपरीत दोनों बड़े भाई-बहन साधारण शक्ल सूरत के थे र॔ग भी कुछ दबा हुआ था। दोनों पढ़ लिख कर अपनी अपनीगृहस्थी में व्यस्त हो गऐ उधर उम्र के चढाव के साथ उसका रूप और यौवन अपने पूरे निखार पर था और उसे इस बात का अहसास भी था।

तभी तो उसकी नजर मे सब आकर्षण हीन थें, अपने आगे किसी को कुछ समझ ती ही नहीं थी। माता पिता परेशान थे कि कब वे शादी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे किन्तु उसे कोई लड़का पसंद ही नहीं आ रहा था।

सब मे मीन-मेख निकाल कर नकार देती। समय के साथ उम्र बढ़ती जा रही थी। चेहरे घर भी वह लावण्य नहीं रह गया था किन्तु अभी भी वह परिस्थिती की भयावहता को समझने को तैयार नहीं थी। अब अच्छे रिश्ते भी आने कम हो गए थे।

किन्तु उसकी आकांक्षा पर अभी भी कोई खरा नहीं उतर रहा था देखते ही देखते उम्र के चौतीस बसन्त पार कर लिए अब कोई कुंवारा लडका नहीं मिल रहा था मन मार कर समझौता करने को तैयार हुई किन्तु कहीं भी हिसाब नहीं बैठा।

आज चालीस की उम्र में समय ने अपने निशान उसके चेहरे पर छोड दिये और वह आज भी अपने घमंड के कारण पछताती एकाकी जीवन व्यतीत कर रही है, वहीं उसके भाई-बहन अपनी दुनियाँ में मस्त हैं।

ऐसे ही रूबरू होते हैं नवल जी से जिन्हें अपने पैसे का बहुत घमंड था। वे उस घमण्ड में चूर, अपने ही परिवार वालों को रुतबा दिखाते उन्हें दीन-हीन समझ हेय दृष्टि से देखते। उनके दिमाग में यह बात समाई हुई थी कि पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है।

पर जीवन में उस समय हार गए जब उनकी पत्नी कैंसर ग्रसित हो असमय ही काल की ग्रास हो गई। पैसा कुछ काम नही आया । समय ने इतना मौका ही नहीं दिया। सारा घमंड

चूर-चूर हो गया। एकाकी जीवन व्यतीत करते सोच रहें हैं कि जिस पैसे के घमंड में परिवार, समाज से कट गया वह किसी काम नहीं आया। काश यह बात उन्हें पहले समझ आ गई होती तो सबसे सामन्य व्यवहार रखते तो आज इतने एकाकी तो न होते।

ऐसे ही नौकरी में पद चाहे जितना बढ़ा हो किन्तु – अन्त में सेवा निवृति के बाद व्यक्ति को समाज में ही रहना होता है। मिलिए मनोजजी से जो एक सरकारी विभाग मे उच्च अधिकारी थे घमंड में चूर सामनेवाले मातहत को मातहत तो छोड इंसान भी नहीं समझते थे।

न किसी कर्मचारी की इज्जत करना जानते। मान सम्मान तो सभी का होता है चाहे वह उच्च अधिकारी हो या अधीनस्थ । किन्तु उनकी नज़र में सब गोण थे। कभी भी किसी के भी सामने छोटी-छोटी- गलतियों के लिए डाँटना – फटकारना आम बात थी।

सभी कर्मचारी उनसे परेशन रहते किन्तु कुछ कह नहीं सकते थे। बात बात पर सर्विस रिकॉर्ड खराब करने की धमकी देते । रोब से सबसे बात करना, सबसे सम्मान पाने के चाहत रखना। डर की वजह से उनका सम्मान करते पीठ पिछे बुरभला कहते।

आफिस तो छोडो घर में भी वे एक स्नेहिल पति एवम पिता के रूप में नहीं रहते।हर समय पत्नी ब बच्चों से आदेशात्मक लहजे मे बात करते।पत्नी को हर समय छोटी-छोटी बातों पर टोकना अपमानित करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते।बच्चे डाट खाने से बचने के लिए उनके आने से पहले ही अपने कमरे में दुबक जाते।घर में मरघट जैसी शान्ति छा जाती। घमंड में चूर बे इसे अपनी शान समझते।

पद पर हमेशा तो नहीं रह सकते हैं सेवानिवृती के बाद जो उनकी हालत हुई. उससे उनका सारा घमंड चूर चूर हो गया। वे सम्मान पाने की ललक में कि कोई उन्हें देखकर नमस्ते ही कर ले ,लोगों की तरफ ललक भरी तनजरो से देखते, मुस्कुराते किंतु सताये गये लोग नमस्ते करना तो दूर बल्कि पीठ पिछे उन पर हंसते मजाक बनाते।

आजउन्हें समझ आया कि पद स्थायी नही था ।जो उन्होंने कांटे बोये थे वही काट रहे थे। घमंड सारा छूमन्तर हो चुका था।

ये तो कुछ उदाहरण है ऐसेऔर लोग भी मिल जायेंगे जो घमंड में चूर रहते हैं पर जब समय पलटता है तब उनकी आँख खुलती है।तब सिवा पछताने के उनके पास कुछ नहीं होता।

शिव कुमारी शुक्ला

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