शाम का समय था, आकाश में डूबते सूरज की नारंगी छटा बिखरी हुई थी। मंदिर के बाहर, लोग हाथ में पूजा और चढ़ावे की थाल लिए सरोज देवी की पूजा समाप्त होने का इंतजार कर रहे थे।
सरोज देवी, 55 वर्षीय महिला, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, माॅंग में सिंदूर की लंबी लाल रेखा और हाथों में चूड़ियों की खनक ये उनकी पहचान थे। उनके चाल-ढाल और हाव-भाव में एक अद्वितीय गरिमा थी। गाॅंव में हर कोई उन्हें बहुत सौभाग्यशाली मानता था। लोगों का विश्वास था कि जिसे भी सरोज देवी का आशीर्वाद मिल जाता है, उसका भाग्य चमक जाता है। इसलिए उनसे आशीर्वाद लेने के लिए हमेशा लोगों का तांता लगा रहता था।
आज भी जैसे ही सरोज देवी पूजा करके निकली, लोग उनके पास आशीर्वाद के लिए आने लगे। एक-एक करके लोग उनके पास आते, और वह एक सजी-धजी मूर्ति की तरह उन्हें आशीर्वाद देती जाती।अभी वह सबको आशीर्वाद दे ही रही थी कि अचानक उनकी दूर के रिश्ते की बहन कुसुम अपनी बेटी को लेकर सामने आई और बड़ी श्रद्धा से बोली, “दीदी, इसे भी आशीर्वाद दो। तेरे जैसे सौभाग्यशाली बन जाए, बस यही चाहती हूँ।”
यह सुनते ही सरोज देवी की आँखों में आँसू भर आए। वह गुस्से और दर्द से बोली, “नहीं, कुसुम! ऐसा मत कहो। भगवान ना करे कि तेरी बेटी मेरे जैसी सौभाग्यशाली बने।”
ये सुन कुसुम चौंक गई। “दीदी, तू ऐसा क्यों कह रही है? तेरा आशीर्वाद तो सबके लिए वरदान है।”
यह सुनते ही सरोज की आँखों से आँसू बहने लगे। अपने भीतर उमड़ते दर्द को दबाते हुए उसने मंदिर के पुजारी से कहा “मुझे इस बच्ची को विशेष दीक्षा देनी है। इसलिए मैं इसे अंदर कमरे में लेकर जा रही हूॅं। कुछ देर के लिए हमें कोई परेशान ना करें। यह कहकर वह दोनों को लेकर अंदर चली गई और गहरी साॅंस लेकर कहने लगी “कुसुम,हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती। मेरा जीवन भी तुझे जैसा दिख रहा है असल में ऐसा कुछ भी नहीं है। जब मैं ब्याह कर आई थी, तब तेरे जीजाजी की तबीयत बहुत खराब थी। गाॅंव के झोलाछाप डॉक्टर जवाब दे दिया था। लेकिन,मैं इस बात पर विश्वास न कर उनकी सेवा करती रही। शहर से दवाइयाॅं मंगवाई।
भगवान की कृपा से कुछ ही महीनों की सेवा और इलाज से तेरे जीजाजी ठीक हो गए। उनके ठीक होते ही ससुराल वालों ने मुझे ‘देवी’ के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया। पूरे गाॅंव में हल्ला कर दिया कि “मैं सावित्री की तरह हूँ, जिसने अपने पति को मौत के मुॅंह से खींच निकाला है।भोले-भोले गाँव वाले इसे सत्य मान बैठे। धीरे-धीरे,मुझे देवी की तरह देखा जाने लगा।
इस कहानी को भी पढ़ें:
गाँव में यह अफवाह फैल गई कि मेरे आशीर्वाद से सबकुछ ठीक हो सकता है। गाँव वाले मेरे पैरों में गिरने लगे,आशीर्वाद माॅंगने लगे। चढ़ावा चढ़ाने लगे। ससुराल वाले इस मुफ्त की कमाई से बहुत खुश थे। वह लगातार मुझपर दबाव बनाने लगे कि मैं गाँव वालों को आशीर्वाद दूॅं। मैं दिन भर घर के काम करती और फिर शाम को मंदिर में बैठकर लोगों को आशीर्वाद देती। मैं, जिसे अपने पति से सिर्फ थोड़े से प्यार और सम्मान की चाह थी,उसे एक मूर्ति बना दिया गया।
कुसुम की आँखों में आँसू आ गए।”पर दीदी,तूने इसका विरोध क्यों नहीं किया?”
सरोज ने एक कड़वी मुस्कान के साथ कहा, “शुरुआत में मैंने बहुत विरोध किया, कहा कि यह सब गलत है। मैं भोले-भाले गाॅंव वालों को धोखा नहीं दे सकती। ये किसी चमत्कार से नहीं, सही इलाज मिलने से ठीक हुए हैं। पर जब भी मैं मुँह खोलती, मुझे प्रताड़ित किया जाता।कई-कई दिनों तक खाना नहीं दिया जाता। बुरी तरह पीटा जाता। पति ने भी मेरा साथ नहीं दिया।। मुझे यह खेल कभी पसंद नहीं आया, लेकिन मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। मैं पुलिस के पास भी गई थी लेकिन ससुरालवालों ने उन्हें भी अपनी तरफ कर लिया। धीरे-धीरे विवश होकर मुझे सबकुछ मानना पड़ा। दिन-रात घर का काम करने के बाद देवी की तरह तैयार होती हूॅं और लोगों को आशीर्वाद देती हूॅं।यह सब दिखावा है, कुसुम। मेरे पास न पति का प्यार है, न इज्जत। मैं तो बस एक ज़िंदा मूर्ति हूँ, जिसे लोगों के सामने बैठा दिया गया है। लोग मुझे देवी मानते हैं, पर मैं एक आम इंसान हूँ, जिसे जीने का हक भी नहीं मिला।”
सरोज की बात सुनकर कुसुम का खून खौल उठा। उसने कहा, “दीदी, तूने इतना सब अकेले सहा और किसी से कुछ नहीं कहा। अब भी देर नहीं हुई है, तू सबको सच बता दे।”
सरोज ने गहरी साॅंस ली और कहा, “कुसुम मैं चाहकर भी इस दलदल से बाहर नहीं निकल सकती। मैं चाहूॅं या ना चाहूॅं, यही मेरी नियति है।”
ये सुन सारिका, कुसुम की बेटी, जो अबतक चुपचाप सरोज देवी की बातें सुन रही थी, बोल पड़ी “मासी, आप चाहे तो यह सब बदल सकता है। मेरी दोस्त, प्रिया, एनजीओ में काम करती है और उसकी बड़ी-बड़ी मीडिया हाउस वालों से जान-पहचान है। वह कई महिलाओं की मदद कर चुकी है, जो घरेलू हिंसा या ऐसे ही किसी झूठे सामाजिक बंधन में फंसी थीं। अगर आप चाहें, तो मैं उससे बात करके आपकी मदद करवा सकती हूँ। आजकल मीडिया और सामाजिक संस्थाएँ बहुत ताकतवर हो गई हैं। वे आपकी कहानी को सबके सामने लाकर ससुराल वालों के इस खेल को खत्म कर सकती हैं। लेकिन इसके लिए आपको हिम्मत दिखानी होगी और सबके सामने सच बोलना होगा।”
उसकी बात सुनकर सरोज देवी सोचने लगी। यह देखकर उसकी बहन कुसुम बोली “दीदी इतना क्या सोच रही हो? ‘निर्णय तो लेना पड़ेगा कब तक आत्मसम्मान खोकर जियोगी।”
इस कहानी को भी पढ़ें:
कुसुम की बात सुनकर उसने कहा “ठीक है, मैं तैयार हूँ।”
सारिका ने तुरंत अपनी दोस्त प्रिया को फोन कर सारी बात बताई। प्रिया ने कहा, “यह मामला गंभीर और संवेदनशील है। हमें इसे सावधानीपूर्वक हल करना होगा। पहले मैं एक रिपोर्टर को भेजती हूँ, जो मासी से मिलकर उनकी पूरी कहानी लिखेगा, फिर हम इसे बड़े मीडिया हाउस में छपवाएंगे। इससे न सिर्फ सच्चाई सबके सामने आएगी, बल्कि प्रशासन को भी कदम उठाने पड़ेंगे।”
अगले दिन, प्रिया के साथ एक रिपोर्टर सरोज देवी से मिलने आया। उन्होंने सरोज देवी का इंटरव्यू लिया, जिसमें उन्होंने अपने दर्द और सच्चाई को बिना किसी डर के व्यक्त किया। अपनी शादी के बाद से शुरू हुए उत्पीड़न, ससुराल वालों के लालच, और देवी’ बनाने के झूठे खेल की पूरी कहानी बताई। अगले ही दिन इसे बड़े नेशनल न्यूजपेपर में पब्लिश किया गया।
जैसे ही यह खबर छपी, पूरे गाँव में हड़कंप मच गया। लोग, जो अबतक सरोज देवी को एक देवी की तरह पूजते थे, इस सच से हिल गए। वे समझ गए कि कि सरोज देवी भी एक साधारण इंसान हैं, जिन्होंने सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों को निभाया और उनके साथ अन्याय हुआ।
खबर मीडिया में फैलने के बाद, कई सामाजिक संगठनों ने भी सरोज देवी के समर्थन में आवाज उठाई। प्रिया की मदद से सरोज देवी को कानूनी सहायता मिली और उन्होंने अपने ससुराल वालों के खिलाफ घरेलू हिंसा और धोखाधड़ी का केस दर्ज किया। पुलिस, जो पहले ससुराल वालों के पक्ष में थी, उसे भी मीडिया और लोगों के दबाव के कारण उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा।अदालत ने उन्हें मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न के आरोपों में सजा सुनाई। सरोज देवी, जो अब तक एक ‘देवी’ के झूठे चोले में कैद थीं, आखिरकार इस चक्रव्यूह से आजाद हो गईं।
इस पूरे प्रकरण के बाद, सरोज देवी ने एक नई शुरुआत की। प्रिया और सारिका के सहयोग से उन्होंने गाँव में एक महिला सशक्तिकरण केंद्र खोला, जहाँ महिलाएँ अपनी समस्याओं को बिना किसी डर के व्यक्त कर सकती थीं और उन्हें कानूनी और सामाजिक मदद मिलती थी।
सरोज देवी का जीवन अब सच्चे मायनों में बदला हुआ था। अब लोग उन्हें एक देवी की तरह नहीं, बल्कि एक ऐसी महिला के रूप में देखते थे, जिसने अपनी हिम्मत से समाज में एक नई दिशा दी।
धन्यवाद
लेखिका- श्वेता अग्रवाल
साप्ताहिक विषय कहानी प्रतियोगिता- #निर्णय तो लेना पड़ेगा कब तक आत्मसम्मान खोकर जियोगी।”
शीर्षक- निर्णय