निर्णायक फैसला –  बालेश्वर गुप्ता : Moral stories in hindi

      पापा, आप यहाँ अकेले क्यूँ रहना चाहते हैं, बढ़ती उम्र है,आप  यहीं मेरे पास अमेरिका आ जाओ।पापा मैं आपका एकलौता बेटा हूँ, मैं सब व्यवस्था कर दूंगा,बस आप हाँ बोल दो।

       नहीं बेटा, मेरा वहाँ बिल्कुल भी मन नही लगता।सबकुछ मशीन सा, न अपनी भाषा, न अपने पन का अहसास।मुन्ना जिद न कर मैं वहाँ घुट जाऊंगा।

        अपने नगर में रजत जी की धाक थी।सौम्य व्यवहार, दानशीलता,मिलनसारी रजत जी के सचमुच के आभूषण थे।अच्छा खासा व्यापार,संपन्नता उनके पास थे।संतान की कमी थी,इससे रजत जी उदास हो जाते।खूब दान पुण्य करते,तीर्थ यात्राएं करते,एक ही मन्नत होती कि हे भगवान औलाद का सुख और दे दे।बेटा हो या बेटी,पर कोई तो हो नाम लेवा।ईश्वर ने आखिर सुन ही ली।

रजत जी की पत्नी के पावँ भारी हो ही गये।एक नौकरानी अलग से केवल पत्नी की देखभाल को 24 घंटो के लिये तैनात कर दी गयी।जिससे पत्नी को कुछ भी ना करना पड़े,पेट का बच्चा सुरक्षित रहे।समय पर रजत जी को पुत्र प्राप्त हुई।रजत जी तो तृप्त हो गये, ईश्वर को धन्यवाद देते न अघाते।जीवन की सब अभिलाषायें पूर्ण हो गयी थी। अपने बच्चे का नाम रखा दीपक,उनका मानना था वह उनके खानदान का दीपक ही तो था,लेकिन वे दीपक को प्यार से मुन्ना ही पुकारते थे।

     अच्छी शिक्षा और लाड़ प्यार के साथ मुन्ना बड़ा होता गया।आई टी में दाखिला लेना भी उसी ने चुना।जब उन्होंने सुना कि उनका बेटा किसी के प्यार में उलझ गया है तो उन्होंने लड़की के विषय मे चुपचाप पता किया।ठीक परिवार से थी और मुन्ना के साथ ही उसी कम्पनी में जॉब करती थी।रजत जी ने स्वयं ही आगे बढ़कर मुन्ना और आशा की शादी सम्पन्न करा दी।मुन्ना अपने पिता की जिंदादिली और अपने प्रति अनुराग से अभिभूत हो गया।जीवन की गाड़ी अपनी रफ्तार से सुखद अनुभूति के साथ चलती रही।

एक दिन रजत जी तो अवाक ही रह गये, उनकी कल्पना से परे मुन्ना अपनी पत्नी आशा से कह रहा था कि अगले माह मैं अमेरिका में जॉइन कर लूंगा,आफर लेटर आ गया है।आशा कह रही थी दीपक हम चले गये तो बाबूजी तो एक दम अकेले पड़ जायेंगे।हम दोनों यहाँ अच्छा भला कमाते तो हैं, बाबूजी का कारोबार अलग से।मेरे विचार से तो नही जाना चाहिये।तुम तो लगता है पागल हो गयी हो इतना अच्छा आफर मिला है और वह भी अमेरिका में क्या ऐसे ऑफर छोड़े जाते हैं?रही बाबूजी की बात सो उनका इंतजाम करके ही तो जायेंगे, उन्हें कोई दिक्कत नही आयेगी।

      आगे रजत जी सुन नही सके,वहां से हट गये।पराए घर से आयी, पराए संस्कारो में पली बढ़ी बहू तो उनके प्रति चिंतित है पर उनका खून उनके द्वारा ही परवरिश किया हुआ उनका बेटा इस उम्र में उन्हें अकेला छोड़ परदेश जाने को तत्पर है।दिल को थाम रजत जी अपनी पत्नी के माला टंगे फोटो के सामने उसे देखते रहे और आंखों के कौर से आंसू भी छलकते रहे।

       सबकुछ नियति पर छोड़ रजत जी गुमसुम से अपने प्रतिष्ठान पर चले गये।अपने काम मे उनका मन लग ही नही रहा था,किस लिये, किसके लिये,यह सब मन मस्तिष्क में घूम रहा था।समय चक्र चलता रहा।बहू बेटा अमेरिका चले गये थे,वही रम गये थे।इतना तो था लगभग प्रतिदिन वीडियो कॉल कर लेते,इससे रजत जी को उनको देखने की बातचीत करने की ललक पूरी हो जाती।

घर के नौकर को घर पर छोड़ रजत जी अब अधिकतर समय एक विद्यालय में बिताते,खेलते और पढ़ते बच्चो में उन्हें अपना मुन्ना दिखाई पड़ता।इसी बीच समाचार मिला कि वे दादा बन गये हैं।खुशी का पारावार नही रहा, एक और मुन्ना उनके जीवन मे आ गया है।फिर उदास हो गये, दोनो मुन्ना तो हजारों किलोमीटर दूर अमेरिका में हैं।फिर एक दिन मुन्ना ने उनके पास अमेरिका आने का टिकिट भेज दिया।रजत जी अपने को रोक नही पाये, पोते को देखने की लालसा उन्हें अमेरिका दौड़ा ले ही गयी।

वहां जाकर पोते को देख अपनी गोद मे उसे ले उन्हें लग रहा था उनकी सब इच्छाये इसी जन्म में पूरी हो गयी है।मुन्ना का अमेरिका से वापस आने का कोई इरादा नहीं था।अमेरिका में उनका मन उचाट रहने लगा,मशीनी जिंदगी,दूसरी भाषा, कोई जान पहचान नही,बच्चो के पास भी समय का अभाव,उन्हें लगता कि वे कैद हो गये हैं।किसी प्रकार मुन्ना से कह सुनकर उन्होंने अपने भारत आने का टिकिट करा लिया और वापस भारत आ गये।यहां अपने घर आकर उन्होंने चैन की सांस ली।रजत जी ने फिर अपना पहले वाला रूटीन बना लिया,विद्यालय जाते और बच्चो को निहारते,उसी में उन्हें संतोष प्राप्त होता।

     उस दिन जब मुन्ना उन्हें अमेरिका में ही आने को प्रबल आग्रह कर रहा था तो रजत जी ने मना कर दिया कि वहां उनका दम घुटता है।फिर भी मुन्ना ने एक बार भी ये नही कहा कि पापा फिर हम ही भारत वापस आपके पास आ जाते हैं।रजत जी भीतर भीतर ही अंदर तक टूट गये।उन्होंने समझ लिया कि शायद मौत के बाद मुन्ना का कंधा भी उन्हें नसीब हो।

     फिर लिया उन्होंने एक निर्णायक फैसला और उन्होंने संस्था विद्या भारती से संपर्क किया और अपने बड़े घर मे विद्यालय सरस्वती शिशु मंदिर खोलने की प्रार्थना की।समस्त औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उनके घर मे कुछ विद्यालय के हिसाब से परिवर्तन कर सरस्वती शिशु मंदिर का श्रीगणेश हो गया।रजत जी ने अपने पास अपने जीवन काल तक के लिये मात्र एक कमरा रखा।

धीरे धीरे विद्यालय चल निकला,घर मे,घर नही विद्यालय में सुबह से ही बच्चो का शोर गूँजने लगता।रजत जी बरामदे के एक कोने में बैठे एक आरामदायक कुर्सी पर बैठे उन छोटे छोटे बच्चों को निहारते रहते।कभी कोई बच्चा गिरता तो अनायास उनके मुंह से निकल जाता,अरे मुन्ना संभल कर,चोट तो नही लगी।आचार्यगण भी उनका ध्यान रखते।

     एक दिन सुबह प्रधानाचार्य जी ने देखा कि रजत जी अपनी आराम कुर्सी पर बैठे बैठे ही अन्नत यात्रा को प्रस्थान कर चुके है,पर उनके चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे,शायद इसलिये कि अंतिम क्षणों में उनके पास भले ही अमेरिका वाला मुन्ना ना हो पर अन्य बहुतेरे मुन्ना उनके पास ही थे।

    बालेश्वर गुप्ता,पुणे

   मौलिक एवं अप्रकाशित

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