नीलांजना ( भाग-7 ) – रश्मि झा मिश्रा  : Moral Stories in Hindi

…अभिनव दत्ता ने अपने दोनों हाथ जोड़कर नीलांजना जी से धन्यवाद कहा…

कुछ और बोलना चाह रहा था… कि उसने अपने सर में थोड़ा चक्कर महसूस किया…

वह चुप हो गया…

नीलांजना जी शायद समझ गईं…

उन्होंने देर ना करते हुए आवाज लगाई…

“शांभवी… बेटा भैया के लिए हल्दी वाला दूध ले आओ…

वहीं टेबल पर होगा… अभी रखा है…!”

थोड़ी देर में… एक प्यारी सी लड़की… हाथों में ट्रे पकड़े… एक गिलास दूध लेकर अंदर आई…

वह दूध पीने के बाद अभिनव का दिमाग थोड़ा संयत हुआ…

उसे इतना तो पता चल गया कि वह सही जगह पहुंच गया है…

मगर अब इन लोगों के यहां आने की वजह… पता चलने से पहले… उसका अपने बारे में बताना… परेशानी का सबब बन सकता था…

उसने तुरंत अपनी जेब पर हाथ डाला… ऊपर… नीचे… फिर आगे… पीछे… टटोलते देखकर… शांभवी चहक उठी…

” क्या ढूंढ रहे हो भैया… फोन… वह तो गया…

जान बच गई गनीमत समझो…

फोन की डेड बॉडी तो वहां पड़ी है…!”

फोन दूर खिड़की पर चार-पांच हिस्सों में बिखरा पड़ा था…

अभिनव ने सोचा… चलो एक तरह से अच्छा ही है… वरना फोन से भेद खुलने का डर रहता…

थोड़ी देर बाद खाना अभिनव को वहीं बेड पर मिल गया…

घर में दोनों मां बेटी उसकी देखभाल में लगे थे…

मगर अंकिता वह तो कहीं थी ही नहीं…

अभिनव की नजरें बार-बार उसी लड़की को ढूंढ रही थी…

मगर रात में तो कुछ भी पता नहीं चल पाया…

खाना बहुत ही लजीज था…उसे खाकर… कई जगह से टूटे अभिनव को… बहुत गहरी नींद आ गई…

रात वह वहीं सो गया…

अगली सुबह भी वह बड़ी देर तक सोता रहा…

किसी ने उसे उठाया भी नहीं…

अगले दिन सुबह के लगभग 11:30 बजे जाकर… जब उसकी नींद खुली… तो खिड़की से बारिश के बाद की सुनहरी धूप… झांक रही थी…

खिड़की पर अपने फोन के टुकड़ों को देख… अभिनव ने उतरने का प्रयास किया…

यहां वहां सहारा लेता हुआ… फोन तक पहुंचा…

सारे टुकड़े समेट कर… दोबारा बिस्तर पर आ गया…

टुकड़ों को जोड़ ही रहा था… कि शांभवी की चहकती आवाज ने उसे जागृत किया…

” भैया आप उठ गए… रुकिए मैं चाय लाती हूं…!”

थोड़ी देर में… चाय के साथ गरमा गरम आलू के पराठे और छाछ… उसके कमरे में आ चुके थे…

नाश्ते की प्लेट देखकर… अभिनव को भूख भी लग आई…

पर वह लंगड़ाता हुआ… अपने कमरे से बाहर निकला…

उस कमरे से लगा एक बाथरूम था… मगर वह जानबूझकर बाहर निकला…

चारों तरफ घुमा कर आठ दस बड़े-बड़े कमरे बने हुए थे…

अभिनव का कमरा सबसे पहला था… शायद मेहमानों का कमरा… बीच में एक आंगन था…

जिसमें एक कुआं और हैंडपंप दोनों ही दिख रहे थे…

अभिनव लंगड़ाता हुआ चापाकल की तरफ बढ़ने लगा…

तभी नीलांजना जी ने तेजी से आकर उसका हाथ पकड़ा… और डांटते हुए बोलीं…

“क्या करते हो… वैसे ही इतना टूटे हुए हो… और कितना टूटना है तुमको…

जाओ कमरे में… जल्दी-जल्दी दवा लो… और ठीक होकर अपने रास्ते जाओ…

यहां वहां घूमने की तुम्हें जरूरत नहीं…!”

अभिनव हैरान था… उनके व्यवहार से.… अभी तक उन्होंने उसका नाम तक नहीं पूछा था…

एक अनजान व्यक्ति की इतनी सेवा सत्कार किए जा रही थीं…

उसने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ… खुद ही कहा…

” मैडम मेरा नाम अभिनव दत्ता है…

मैं एक अध्यापक हूं…

इस गांव के अगले गांव में… मुझे 11वीं 12वीं में गणित विज्ञान के शिक्षक की पोस्ट के लिए… इंटरव्यू देने जाना था…

मगर अब तो लगता है… यहीं से वापस जाना होगा…

बड़ी मेहनत से… यह शिक्षक की जॉब मिली थी…

सोचा था… इसी बहाने कुछ अपनी भी तैयारी होती रहेगी… अपनी पढ़ाई के साथ-साथ थोड़ा पैसा कमाना भी हो जाएगा…

मगर इस एक्सीडेंट ने तो… मुझे बिल्कुल नकारा बना दिया…!”

नीलांजना जी ने हौले से… उसे शांत करने के लहजे में कहा…

” कोई बात नहीं… कुछ दिनों की बात है.… तुम ठीक हो जाओगे…

वैसे अगर तुम्हारा कोई अपना है यहां… तो तुम बुला सकते हो…

मैं किसी फोन का इंतजाम कर दूंगी…!”

दत्ता ने धीरे से ही कहा…

” नहीं… मैम यहां कौन होगा मेरा…!”

अभिनव दत्ता कमरे में आ गया…

धीरे-धीरे फ्रेश होकर खाने बैठा ही था कि… शांभवी भागती हुई आ गई…

” रुकिए भैया… यह ठंडा हो गया… मैं फिर ले आती हूं …!”

अभिनव की बात सुने बिना ही… वह ट्रे लेकर भाग गई…

कुछ दो-तीन मिनट में ही… गरमा गरम नाश्ता… फिर से उसके सामने रख… वह जाने ही वाली थी…

कि अभिनव ने उसे रोक दिया…

“सुनो…!”

“क्या हुआ…!”

” मुझे तो भैया भैया किए जा रही हो… जरा अपने बारे में भी तो बताओ…

कुछ पढ़ती लिखती भी हो… कि बस खाना बना रही हो…!”

” खाना मैं नहीं बनाती… वह तो दीदी बनाती है…

दुनिया का बेस्ट खाना…!”

” अच्छा… कहां है तुम्हारी दीदी…!”

सुनकर शांभवी उसकी तरफ भेद दृष्टि से देखने लगी… तो अभिनव को अपनी गलती का एहसास हुआ…

” यूं ही पूछा… अभी तक दिखी नहीं ना… इसलिए…!”

“दीदी नहीं आती… मैं हूं ना.…!”

” अच्छा तुम क्या करती हो…!”

” मैं… मैं तो पढ़ती हूं… 11वीं में…!”

” अच्छा… तब तो बढ़िया हो गया… मैं 11वीं पढ़ाता हूं… तुम 11वीं पढ़ती हो…

मेरे पास ही किताबें लेकर आ जाना… मेरा भी मन लगेगा…

और तुम्हें कुछ हेल्प चाहिए होगी… तो वह भी मिल जाएगी…!”

तब तक नीलांजना जी भी वहां आ गईं…

उन्होंने शांभवी को आंखों से जाने का इशारा किया.… और कहा…

” नहीं… इसकी जरूरत नहीं… तुम एक-दो दिन में थोड़ा ढंग से चलने फिरने लगो… तो अपना रास्ता देख लो…

हमें किसी की मदद नहीं चाहिए…!”

” नहीं मैं… मैं तो बस इसलिए कह रहा था… कि फोन भी काम नहीं कर रहा… कहीं घूमना फिरना भी नहीं है…

कोई बात करने को भी नहीं…

अगर वह यहां पढ़ लेती तो……!”

” ठीक है… देखती हूं …

अगर उसे जरूरत होगी… तो मैं भेज दूंगी…

फिलहाल तुम आराम करो…!”

मगर दत्ता की आंखों में आराम कहां था……

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रश्मि झा मिश्रा

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