नेह का बंधन – निभा राजीव “निर्वी”  : Moral Stories in Hindi

वीडियो कॉल पर भाई से बात करके फोन रखने के बाद अदिति की आँखे सावन भादो की तरह बरसने को आतुर हो गईं। छुट्टी ना मिल पाने के कारण भाई नहीं आ पाया रक्षाबंधन पर.. दोनों भाई बहन का मन भर आया लेकिन क्या कर सकते थे। वह इतना दूर ही था कि एक दिन में आना और जाना संभव ही नहीं था।

अदिति की भी नई नौकरी थी इसलिए उसके साथ भी यही समस्या थी। कभी-कभी यह व्यस्तताएं बेड़ियां बनकर रह जाती हैं ।वह यूं ही निश्चेष्ट बैठी रही और खिड़की के बाहर ताकते हुए परिवार और भाई के साथ बिताए स्नेहिल पलों को याद कर उसमें डूबती उतराती रही।

बाहर गिरती हुई बारिश की बूंदे जैसे उसके अंतर्मन की परतों को झकझोर कर और आंदोलित कर रही थी।तभी अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई। दरवाजा खोलते ही आगन्तुक को देखकर वह एकदम चौंक गई,”- अरे तू! इतनी बारिश में यहां कैसे आया!” 

             उस 12-13 वर्ष के कृशकाय बालक के दीन चेहरे पर निर्मल सी मुस्कान दौड़ गई… “बस आपसे मिलने आ गया हूं दीदी!”

              उसकी बात पर एकदम से अदिति को एक डेढ़ महीने पूर्व की घटना याद आ गई….

          एम बी ए करने के उसकी नई-नई नौकरी इस शहर में लगी थी, और वह घर परिवार से दूर यहां आ गई थी। एक दिन जब वह कार्यालय जाने के लिए तेजी से बस स्टॉप की ओर बढ़ ही रही थी तभी अचानक उसकी चप्पल टूट गई। एक तो नई नौकरी और उसे पर से ढेर सारा काम था कार्यालय में…

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उसका मन रोने रोने को हो आया… अब तो आज देर हो ही जाएगी और बॉस की जबर्दस्त डांट पड़ने वाली है आज तो…. बहुत ही असहाय दृष्टि से उसने इधर-उधर ताका कि कहीं से कुछ सहायता मिल जाए… तो वह समय पर अपने कार्यालय पहुंच जाए। तभी उसकी दृष्टि सड़क के उस पार बैठे 12-13

वर्ष के उस बालक पर पड़ी जो मोची का जो सामान लेकर बैठा हुआ था और बड़ी तन्मयता से एक चप्पल को सी रहा था। यह देखकर ही उसे तत्काल राहत प्राप्त हुई और वह शीघ्र उसके पास पहुंच गई…”- अरे छोटू.. जरा जल्दी से मेरी चप्पल सी कर दे दे तो… मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही है…”

      उसका स्वर सुनकर बालक में दृष्टि उठाकर उसकी ओर ताका, फिर उसके हाथ से चप्पल लेते हुए मुस्कुराते हुए कहा, “- मेरा नाम छोटू नहीं राजू है… आप फिकर मत करो मैं…पांच मिनट के अंदर आपकी चप्पल की फर्स्ट क्लास वाली मरम्मत करके देता हूं।”

उसकी बात सुनकर अदिति के चेहरे पर राहत भरी मुस्कान आ गई। राजू ने त्वरित गति से अपना कार्य प्रारंभ कर दिया। समय बिताने की गरज से अदिति ने उससे पूछा, “- राजू, तुम कब से काम कर रहे हो यहां..?”

राजू ने चप्पल की मरम्मत करते-करते दृष्टि झुकाए हुए ही कहा, “- अब तो 2 साल हो गए पहले…बापू काम करता था… फिर एक बार वह बीमार हो गया तो हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि उसका अच्छे से इलाज कर पाते तो मर गया…”

 फिर स्वर में आई हुई उदासी को सप्रयास दूर धकेलते हुए उसने कहा “-मैंने उससे यह थोड़ा बहुत काम सीख रखा था तो घर चलाने के लिए मैंने पढ़ाई छोड़ दी और यह काम शुरू कर लिया… और माँ भी कई घरों में झाड़ू पोछे का काम करती है। मेरा एक छोटा भाई है ना… तो मैंने माँ से कहा कि उसकी पढ़ाई मत छुड़वाओ… हम दोनों काम करेंगे और इसको पढ़ाकर खूब बड़ा आदमी बनाएंगे…. लीजिए दीदी आपकी चप्पल बन कर तैयार हो गई… ₹40 हुए आपके।”

उसकी कहानी सुनकर अदिति का मन द्रवित हो गया…’ हे प्रभु! दुनिया में कितने दुख बिखेर रखे हैं… कोई तो मुंह में चांदी के चम्मच लेकर पैदा होता है और किसी का जीवन संघर्षों से जूझते हुए ही व्यतीत हो जाता है…’ 

उसने उसके हाथ से चप्पल लेकर पहनी और उसने 500 का नोट उसकी तरफ बढ़ा दिया।

राजू के चेहरे पर उलझन के भाव तैर गए, “दीदी, सुबह-सुबह का समय है.. अभी खुले नहीं है मेरे पास..”

आदिति ने मुस्कुरा कर कहा, “-कोई बात नहीं…रख ले।” 

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“-नहीं दीदी!!” अचानक राजू के स्वर में स्वाभिमान का ओज उतर आया.. “-मैं किसी से ऐसे पैसे नहीं लेता.. जितना काम किया उतने ही पैसे लेता हूं।”

अदिति उसके स्वाभिमान, ईमानदारी और मासूमियत के समक्ष नतमस्तक हो गई। विवशताएं और संघर्ष कभी-कभी एक बच्चे से उसका बचपन छीन कर असमय ही परिपक्व बना देती है। कैसी विडंबना है….

उसने मुस्कुराते हुए कहा, “-अरे ऐसे थोड़े ही न दे रही हूं राजू… तूने अभी मुझे दीदी कहा था ना… तो तू मेरा छोटा भाई हुआ ना… तो बस अपने छोटे भाई को एक उपहार दे रही हूं… चल रख ले! अब जल्दी जाने दे मुझे, वरना तेरे चक्कर में बस छूट जाएगी मेरी…!” 

            उसकी आत्मीयता से राजू के सूखे चेहरे पर चमक आ गई और उसकी आंखें भीग गईं, जिसे फटी कमीज़ के कोने से पोंछते हुए उसने हाथ बढ़ा कर पैसे ले लिए और भीगे स्वर में कहा, “- दीदी.. कभी कोई जरूरत हो तो आप बस मुझे याद करना… मैं सारे काम छोड़कर आपके पास आ जाऊंगा….”

         अदिति मुस्कुरा कर तेजी से बस स्टॉप की तरफ बढ़ गई। उसे दिन से हर रोज जब अदिति बस स्टॉप पर पहुंचती तो सड़क के उस पर बैठा राजू उसे देखकर मुस्कुरा उठता। पता नहीं कैसा लगाव सा हो गया था उसे राजू से.. कभी-कभी वह घर में कुछ अच्छा बनाती तो डब्बे में डालकर ऑफिस जाने से पहले राजू को पकड़ा जाती। कैसा अंजाना सा..निश्छल सा रिश्ता बन गया था..

        “-दीदी! क्या सोच रही हो??” अचानक राजू की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी, “-अरे कुछ नहीं… चल पहले तू अंदर आ… बुरी तरह से भीग गया है तू! चल बैठ.. मैं तेरे लिए गरमा गरम अदरक वाली चाय बनाती हूं..”

“-चाय बाद में पियूंगा दीदी, पहले आप मुझे अपने हाथों से राखी तो बाँध दो.. भूल गई आप? आज रक्षाबंधन है ना.. आपने मुझे भाई बनाया है ना..” उसने अपनी नन्ही कलाई आगे करते हुए कहा…फिर जैसे अचानक कुछ सोच कर झिझक गया…. “- दीदी आप ना बांधना चाहे तो नहीं भी बाँध सकती हैं… आप राखी बाँधो हो या ना बाँधो.. मैं तो आपका भाई हूं ही ना!”

राजू ने अपनी उदास पलकें झुका लीं। उसकी मासूम चेहरा देखकर अदिति को ढेर सारा प्यार आ गया उस पर.. उसने उसके गाल पर थपकी मारते हुए कहा, “-कैसी बातें करता है रे राजू..आजकल बहुत बातें बनाना सीख गया है..”

“- अरे नहीं दीदी.. आप बड़े लोग हो और मैं तो एक गरीब जूते चप्पल सीने वाला… मेरी और आपकी क्या बराबरी है…”

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अदिति ने वात्सल्य से उसकी नाक खींचते हुए कहा, “-मेरी और तेरी यही बराबरी है कि हम दोनों भाई-बहन हैं.. चल बैठ मैं अभी राखी का थाल सजा कर लाती हूँ..” कुछ देर पहले जो अदिति उदास बैठी हुई थी अचानक उसके अंदर नवीन उत्साह का संचार हो गया हो जैसे..जो राखी उसने भाई के लिए ले रखी थी, उसने फटाफट थाल में डाली.. रोली, अक्षत, दही, मिठाई सजाई.. दीप प्रज्वलित किया और लेकर पहुंच गई अपने नन्हे भाई के पास…

राखी के रूप में नेह का बंधन राजू के हाथ में बांधने के बाद उसने मिठाई का बड़ा टुकड़ा राजू के मुंह में ठूँस दिया और खिलखिला पड़ी… राजू ने भी हँसते हुए अपनी जेब में हाथ डाला और सुनहरे रंग के दमकते हुए कृत्रिम झुमके निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिए। अदिति हतप्रभ रह गई। 

उसने आश्चर्यमिश्रित स्वर में कहा, “- क्यों रे राजू! अब तू मुझे राखी का मूल्य देगा..”

 राजू ने व्यथित स्वर में कहा, “- ऐसा मत कहो दीदी…यह राखी का मूल्य नहीं है… यह तो बस मेरा प्यार है..”

“-नहीं नहीं राजू.. मैं यह नहीं ले सकती तुझसे…” अदिति ने पुन: कहा।

            राजू का उत्साह से दमकता चेहरा अकस्मात विवर्ण हो गया, और उसकी बात काटते हुए उसने कहा,”- मैं समझ गया दीदी… यह झुमके नकली है ना इसलिए आप नहीं ले रही… शायद मेरी औकात नहीं है कि मैं आपको उपहार दे सकूं।”

            अदिति का हृदय भर आया। “-ऐसा क्यों कहता है पगले यह तो मेरे लिए बहुमूल्य है… लेकिन यह तूने खरीदे कैसे ? तेरे पास इतने पैसे कहां से आए??…”

        “-घबराओ मत दीदी… मैंने कोई चोरी नहीं की है और ना ही कोई गलत काम किया है… जहां मैं काम पर बैठता हूं ना, उससे कुछ ही दूर पर एक ढाबा है। वहां हर रोज काम से लौटते समय मैंने बर्तन धोने का काम शुरू कर लिया और यह पैसे जमा किये ताकि अपनी दीदी के लिए कुछ तो उपहार ले सकूं राखी में… मेरी तो कोई बहन थी नहीं अपने भाई कहा तो जाना की बहन का प्यार क्या होता है…. अच्छा दीदी अब मैं चलता हूं देर हो रही है…”

                अदिति ने भीगी पलकें पोंछते हुए कहा, “-ठीक है जा…तेरी मां भी चिंता कर रही होगी…. और सुन एक बात और तुझे कहना चाहती हूं … कल से तू काम पर नहीं जाएगा बल्कि स्कूल जाएगा और तेरी पढ़ाई पर होने वाला सारा खर्च मैं वहन करूंगी…”

राजू उसकी बात सुनकर कुछ कहने को उद्यत हो गया तो अदिति ने हंसकर उसके सिर पर चपत लगाते हुए कहा, “- अरे ओ स्वाभिमान के पुतले!! कोई उपकार नहीं कर रही हूं तुझ पर… जब तू बड़ा होकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा ना तो गिन गिन कर वसूलेगी तेरी दीदी सब कुछ… वह भी ब्याज के साथ!..इतना याद रख…”

 राजू की आंखों से अविरल आंसू बहने लगे और वह अदिति के चरणों में झुक गया..अदिति ने खींचकर उसे गले से लगा लिया। भाई बहन के प्रेम का यह नवांकुर आत्मीयता की मंदाकिनी से सिंचित होकर लहलहा कर झूम उठा था।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी धनबाद झारखंड 

स्वरचित और मौलिक रचना

#बहन

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