नींव – उमा महाजन : Moral Stories in Hindi

    रोहन ने अत्यन्त तीव्रता पूर्वक बड़े उल्लसित मन से अपने घर‌ में प्रवेश किया और इधर-उधर नजरें घुमाते हुए अपने दादाजी को बरामदे में बैठा न पाकर वह तुरंत लगभग दौड़ता हुआ सा उनके कमरे में जा पहुंचा।

दरअसल बरामदे में आ चुकी हल्की-हल्की धूप के कारण इस वक्त दादाजी अपने कमरे में ही समाचार पत्र पढ़ रहे थे।‌

   ‌ रोहन ने तुरंत अपने हाथ में पकड़े हुए मिठाई के डिब्बे को दादाजी को पकड़ाया और भावविह्वल होकर वह उनके चरणों में झुक गया, ‘दादाजी ! आपके द्वारा मुझे दिए गए सभी आशीर्वाद सफल‌ हुए। आपकी आशीष से ही मैं पिछले सप्ताह के साक्षात्कार में अपना सौ प्रतिशत दे पाया था और  आज मुझे नौकरी मिल जाने की सूचना भी मिल‌ गई है ।

वेतनमान भी मेरी अपेक्षा अनुसार ही निर्धारित किया गया है। मैं सदैव आपकी और पापा की मेहनत और लगन को देख कर ही बड़ा हुआ हूं । बचपन से ही ‘काक चेष्टा बको ध्यानं श्वान निद्रा तथैव च। अल्पाहारी गृह त्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणं’ के रूप में मिली आपकी ‘झिड़कियां’ और ताकीदों’ ने ही मुझ में सुबह जल्दी उठकर‌ दिनचर्या आरंभ करने की आदत का विकास किया है।

मां की सहिष्णुता ने अध्ययन दौरान सदैव मेरा धैर्य बनाए रखा। आप सब की शिक्षाएं होस्टल‌ में अकेले रहकर पढ़ाई करते समय भी हमेशा मेरे अंग संग रहीं और इसी की‌ बदौलत मिली सफलता संग आज मैं आपके समक्ष खड़ा हूं। कृपया आजीवन मुझ पर अपनी आशीष बनाए रखें।’

   दादा जी न केवल अपने पोते को मिली नौकरी अपितु उसके व्यवहार में विकसित अपने दिए संस्कारों से भी गर्वित हो गये और रोहन को उसके दोनों कंधों से पकड़ कर उठाते हुए आह्लादित स्वरों में बोले , ‘शाबाश ! बेटा, सदैव स्वस्थ एवं संस्कारी रहो ! और हां,यह मिठाई मुझे नहीं तुरंत जाकर अपने मां-पापा को दो।

तुम्हारी‌ मां घर की लक्ष्मी है और तुम्हारे पापा‌ ने भी तुम्हारी सफलता हेतु रात-दिन संघर्ष किया है। यह अधिकार उन्हीं का है।‌ वे ही सबका मुंह मीठा करवाएंगे।’

  रोहन हंसते हुए धीरे-धीरे दादाजी के कान में फुसफुसाया , ‘दद्दू! मैं सबके लिए मिठाई अलग से लाया हूं। इसमें सिर्फ आपकी पसंदीदा जलेबियां हैं। मैं  जानता हूं कि आपको जलेबियां बहुत पसंद हैं,

किंतु ‘मीठे से एहतियात’ के कारण घर में जलेबियां कम ही लाई जाती हैं न, सो आज मेरी तरफ से ये सारी जलेबियां केवल दद्दू के नाम हैं,किन्तु माफ करें, आप इन्हें धीरे-धीरे ही खाइएगा, ताकि मां-पापा को कोई शिकायत न हो।’ कहते हुए रोहन जोर से खिलखिला पड़ा।

     उधर,पौत्र-प्रेम में डूबे दादाजी के चेहरे पर आई लाड़ भरी मुस्कान कह रही थी कि कौन कहता है कि जब बच्चों को अकेले रहने की आदत पड़ जाए तो बड़े बुजुर्गों से उन्हें बंधन लगने लगता है। नहीं ! दरअसल बात है उनकी परवरिश के दौरान उन्हें ‘अच्छे संस्कारों के बंधन’ में बांधने की । उनके संस्कारों की नींव जितनी सुदृढ़ होगी,

उतना ही उनका व्यवहार और व्यक्तित्व सुदृढ़ होगा । इसके लिए बड़े बुजुर्गों को भी अपनी नई पीढ़ी को समझना पड़ेगा।‌उनसे संवाद स्थापित करना पड़ेगा। अपनी महत्वाकांक्षाओं एवं हठीलेपन को थोड़ा एक तरफ रखकर उनके साथ समय बिताना होगा और सबसे अहम् बात अपनी तरफ से भी दो पीढ़ियों की खाई को पाटने का प्रयास करना होगा।

फिर ऐसे परिवेश में, बच्चों के व्यवहार में उनके अकेले रहने अथवा बड़े बुजुर्गों के साथ रहने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। मेरा रोहन‌ तो आठ वर्ष तक घर से बाहर होस्टल में अकेला रहा है और आज भी वह हम सब का वैसा ही सम्मान करता है, जैसा वहां जाने से पूर्व करता था‌ और मुझे विश्वास है कि वह ऐसा ही रहेगा।’ 

    इस दौरान दादाजी के मुख में जलेबियां खाएं बगैर ही उनकी पूरी मिठास भर‌ चुकी थी।‌

 

उमा महाजन 

कपूरथला 

पंजाब 

#जब बच्चों को अकेले रहने की आदत हो जाती है तो बड़े बुजुर्गों से उन्हें बंधन दिखाई देने लगता है ।

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