नईहर – सारिका चौरसिया

बंदरिया के छोटे बच्चे सी सीने में चिपकी बच्ची लिये गले तक लम्बा घूंघट काढ़े वह चुप, ड्योढ़ी पर खड़ी थी,, ठसक गंवई बोली में तेज!तीखी आवाज में बोलती साथ आयी दूसरी औरत,

ठिगनी सी…किन्तु तेजतर्रार थी।

शीशम की बढ़िया कामदार कशीदा करी चांदी की मुठ जड़ी चौकी पर करमशाही अंदाज में मसनद के सहारे टिकी हुक्का गुड़गुड़ाती अम्मा ने सिर से पैर तक एक सरसरी नज़र, दोनों पर डाली।

के हौ तोहार!…..

हमार भौजाई हैईन!

एकर आदमी! माने हमार भाई…. पगला बा,, ऐहर ओहर बाकुर घुमत रहत हैंन। कभो कतार घरssहुं आय जात हैंन।

हुम्मम….जनात् बाss…

अम्मा ने सीने से चिपकी निरीह जान को देखा!

कंकाल भी स्वयं अपने होने पर असमंजस में पड़ जाए ऐसी रुग्ण डंडी सी कुपोषित काया….

मानो माँ की छाती का दूध नहीं रक्त पीती रही हो।

तनी घुँघटव्वा तss ऊपर करss! हिंया कौऊँन मर्द मर्दावा अगौरत हैंन तोके….

ननद ने अधिकार से घूंघट हटाने की कोशिश की ,, जिसे स्त्री ने पुरज़ोर कोशिश से अपने मुख पर खींचने का असफल प्रयास किया।

किन्तु एक हाथ बच्ची को थामे इतना सामर्थ्य ना रख सका और बादलों की ओट से चन्द्रमा बाहर निकल आया।

हाँ चन्द्रमा ही तो था….सांवला चन्द्रमा।

का नाम बा तोहार! अम्मा ने सर से पैर तक एक नज़र में तौलते हुए पूछा,

मानो कोई साहूकार ब्याज़ धरने को सोना परख रहा हो।

सोना! पूनम!!

ननद भाभी दोनों ने एक समय में एक साथ किन्तु अलग-अलग नाम उच्चारित किये।

अम्मा के प्रश्नवाचक नजरों को बूझते हुए ननद ने जोर दिया… पूनम नाम बाहे!

लागत बा हमार भैय्वा सोना! पुकारत होहिएँ कमरवा में…. पीले-पीले किन्तु कसे हुए दन्तपंक्तियों से अर्थपूर्ण हँसी हँसती हैं। किन्तु अम्मा की मुखमुद्रा देख सिटपिटा कर चुप हो जाती है।

सोना नाम बढ़िया हो तोहार!बईठ जा!!


हमार काम करे के होई, तेल कुर और हमार कपड़ा लत्ता पछाड़े के पड़ी।

इहां हमरे हिंया खाये पिये के कौनों दिक्कत ना होई तोके,,  दर्जन भर नौकर चाकर खात हैंन। एक खे तू औउर सही! .…. केउ  के  एssखे रोटी खियाय में  पुन्नssने मिलत है….. दम्भ भरी नजरों से अम्मा ने ननदी को देखा।

ए ही से तss आपके घरे लयी आय हई। बड़ हवेली के बड़ बात होssत है! किसी भी हाल में माँ-बेटी से पीछा छुड़ाने की कोशिश में कामयाबी नज़र आयी ननदी को!!

और वह कृशकाय सी गांव की सोंधी मिटटी सी काया उस दिन से इस हवेली की ड्योढ़ी लांघ जो अंदर आयी तो फिर उससे हवेली के बाहर की दुनिया कट गयी!

अम्मा के जीते जी तेल कुर और कपड़े पछाड़ने की बाबत रखी गयी ‘सोना’ अम्मा के जाने के बाद अब पूरी हवेली की महरी बन कर रह गयी। समय के साथ विलासी जीवन जीने के आदि परिवार का ढांचा डगमगाने लगा। अम्मा ने पारिवारिक मर्यादा और धनाढ्यता की जो डोर कस कर अपने हाथों में थाम रखी थी अब उनके मृत्यु पश्चात पूरी तरह स्वछंद थी। कारोबार अलग-अलग हाथों की आजमाईश में छिदाही नाँव बन चुका था।

घर का मुखिया कहता मर गया…. आंगन में पीपल का पेड़ लगा बा! सींचत जा..छांही में आराम से सोवत जा!!

परिवार ने आंगन में लगे विशाल पीपल को दूध चढ़ाना तो याद रखा! किन्तु प्यासा पीपल पानी मांग रहा ! यह विलासिता की भेंट चढ़ी मूढ़ और धर्मान्ध टोने-टोटके को नापती बुद्धि में न समाया!!

समय के साथ पीपल,हवेली और सोना तीनों खंडहर में तब्दील हो गए। गाड़ीवान, इक्कावान, दरबान, ग्वाले, हरकारे-हाक़िम ,नौकर! सब एक-एक कर बिलाते चले गए। कमरे-कमरे बिछावन बिछाने और पानी का जग रखने वाली महरिनें, रसोईं पकाने वाली महराजिन सब धीरे-धीरे जो छुट्टी ले-ले अपने गांव गये तो दुबारा हवेली का रुख़ ना किया।

और हाथ पर हाथ धरे ,चाकरों की चाकरी पर निर्भर अम्मा की ‘चौकी’ हथियाने की होड़ में एक दूजे से उलझती तथाकथित सेठानियाँ अब सोना पर अपना आधिपत्य पाने को आतुर रहती। इस खींचातानी में समूचे घर का काम सम्भालते, झाड़ू-पोछा- बर्तन तथा कपड़ें धुलती-फटकारती सोना की पीठ झुकती गयी, और बाल सन से सफ़ेद होते गए,, चन्द्रमा से दमकते सांवले मुख पर अब बस मलिनता नज़र आती। धंसी हुई कोटरों में बस दो जोड़ी पनीली आशा विहीन आँखे ही नज़र आती।

उसकी बिटिया…माता के ही समान कुपोषित और अल्प बुद्धि! यूँही पड़ी रहती,,मुख पर मक्खियां भिनभिनाती रहती। अपने बच्चों की उतरन और थाली की जूठन पकड़ा घर के लोग पुण्य कर्म के गुणगान करते।प्रत्येक नौनिहालों के ही समक्ष नज़र आती उसकी उम्र का अंदाजा मात्र सोना के चांदी होती गुच्छा नुमा केश राशि से ही लगाया जा सकता था,,पर फुर्रस्त किसे थी उम्र के इस हिसाब में उलझने की,,,

तीमारदारी कराने वाले तीमारदार नहीं बनते।

बातों को ज्यादा ना समझ पाने वाली सोना को जाने कैसे तीज, कजरी, रक्षाबंधन जैसे त्योहारों का आभास पहले से हो जाता।,,विशेषकर कजरी तो जैसे उसके पूर्वानुमान में थे। अकेले में खूब कजरी और सोहर गाती ,, माता के गंवई गीत गुनगुनाती।


आज पन्द्रहो दिन से सोना बीमार थी,, इस हवेली की चौथी पीढ़ी की एक औलाद! अम्मा की परपोती अपनी माँ की तरह ही संस्कारों को जीती थी। बहू ने अपनी  बिटिया को इतना पढ़ाया लिखाया और संस्कार दिए कि वह दर्द समझने में पारखी हो गयी।

अक्सर सोना को छेड़ती हिलोरे लेती अम्मा की यह पोती उससे बातें करने की कोशिश करती।

इन माँ बेटी के अलावा हवेली में किसी को सोना की स्वस्थता और अस्वस्थता से कोई खास फर्क़ ना पड़ता।सिवाय काम के हर्जे के जिक्र और चिल्लम पौ के!

अम्मा की परपोती ही सोना को दवा देने और माँ की सलाह पर उसके पथ्य-अपथ्य तथा आराम का ख्याल रखती और इसमें खलल पर सबसे भिड़ भी जाती।

आज सोना को दवा देते वक्त उसने यूँही छेड़ा!

का सोना! नैइहरे जाबु?

के के बा तोरे घरे??

अप्रत्याशित सा जवाब था,

जाssब ना! बाबू अइहें…..

तोके याद हैंन सब???

अचंभित सा अगला सवाल था ।

सब हैयन! अम्मा बाबू,,भईय्या,

और उसके साथ ही बचपन की ढेरों बातें अपनी अबूझ सी बोली में समझाने की कोशिश करती सोना! शायद अपने बचपन को जी रही थी,, कजरी गुनगुनाती उसकी ठेठ गंवई बोली आज इस हवेली में पहली बार अपनी मिट्टी का गाँव याद करती.…. बताती….

जाने कब वह गहरी नींद सो गयी। उस मलिन से मुख और जूठन तथा पोछे की मिलीजुली गन्ध मिश्रित उसकी धोती से अंतिम बार अचानक सोंधी सी महक आने लगी….भईय्या….पूनम….बाबू….चना क साग! मुरई…..मड़ई…..छप्पर।।

सारिका चौरसिया

मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश।।

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