गायत्री का मन बेचैन हो रहा था । फ़ोन रखने के बाद ग़ुस्से के साथ दुख इतना हुआ कि वे जी भर कर रोईं पर उसके बाद भी रह-रहकर आँखें छलछला उठती थी । उन्होंने अपने मन को समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन मन मानने को तैयार ही नहीं था कि उनका सुशांत अपनी छोटी बहन के लिए मन में द्वेष की भावना रखता है। जब से सुशांत के साथ फ़ोन पर बात हुई, उसके बाद से ही वे अपने कमरे में पड़ी- कभी यादों में खोई आँसू बहाती , कभी जी को कड़ा करने का प्रयत्न करती , कभी मन व्याकुल हो उठता तो कभी आँखें मींचने का प्रयास कर रही थी । कई बार उन्होंने अपनी सहेली मीरा का नंबर निकाला पर डॉयल करने से पहले ही मन बदलते हुए सोचा—-
क्या सोचेगी मीरा मेरे बारे में कि कल तक तो सुशांत एक आदर्श पुत्र की परिभाषा पर सोने सा खरा उतरता था और आज अचानक उसमें कमियाँ निकल आई ।
गायत्री को खुद पर हैरानी हो रही थी कि वो कितनी मूर्ख है जो अपने ही बेटे को न समझ सकी । आख़िर वो किस विश्वास के बलबूते पर सुशांत से इतनी उम्मीद लगा बैठी थी ।
जब सोचते-सोचते सिर घूमने लगा तो मीरा को फ़ोन कर ही दिया —-
हाँ गायत्री ! तू ठीक तो है ? पता नहीं क्यों आज सुबह से ही तेरी बड़ी याद आ रही थी जबकि कल शाम को ही तो बात हुई थी । बच्चों से बात हुई….. सुशांत- सुरभि… सब ….अरे … क्या हुआ गायत्री ? रो क्यों रही है … बोल ना जल्दी…
मीरा ….. आ…ज….शा…म …. के….
पहले पानी पी उठकर । बस इतना बता , बच्चे ठीक हैं क्या?
हाँ, वे तो ठीक है । क्या तू आज रात मेरे पास ठहरने आ सकेगी ? बड़ा मन घबरा रहा है ।
ठीक है । आती हूँ बस पंद्रह मिनट में , काकू को बोलती हूँ, छोड़ देगा ।
और ठीक पंद्रह/ बीस मिनट के बाद मीरा अपने बचपन की सहेली गायत्री के घर पहुँच गई । गायत्री बाहर के बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठी उसका ही इंतज़ार कर रही थी ।मोटरसाइकिल को गेट पर रूकता देखकर गायत्री खड़ी हो गई।
नमस्ते मौसी ! तबीयत तो ठीक है ? अचानक मम्मी को बुलाया?
हाँ- हाँ बेटा, सब ठीक है । बस यूँ ही दिल किया कि आज दोनों साथ रहें । कई महीने गुजर गए, दिल की सारी बातें रात में इकट्ठे बैठकर ही पूरी होती हैं । अच्छा काकू , कल तो संडे है ना बेटे , मीरा आराम से आएगी ।
मीरा ! अगर तुम न होती मेरे पास तो पता नहीं मैं कैसे मैनेज करती ? शुक्रगुज़ार हूँ भगवान की , हम दोनों शादी के बाद भी इसी शहर में एक साथ हैं ।
चल पहले ये बता कि तुमने कुछ खाया ? रसोई में छाए सन्नाटे को मैं महसूस कर सकती हूँ , झूठ मत बोलना । गायत्री , कितनी बार कहा है कि किसी भी समस्या का समाधान भूखे रहकर नहीं निकलता ।
इतना कहकर मीरा ने अपने बैग से खाने का डिब्बा निकाला क्योंकि वह अच्छी तरह जानती थी कि ज़रा सी परेशानी आ जाने पर गायत्री सबसे पहले खाना छोड़ती है ।
तुझे पता है मीरा , जब मैंने तुझे फ़ोन किया , मन कर रहा था कि तेरे गले लगकर खूब रोऊँ पर जैसे ही तुझे देखा तो मन को अपने आप ही सहारा सा मिल गया । अभी तो कोई बात भी नहीं बताई फिर भी बेचैनी ख़त्म हो गई ।
खाना खाकर मीरा ने कहा —-क्या हुआ, क्यूँ इतनी परेशान थी। भाई साहब के जाने के बाद आज तेरी आवाज़ में उस दिन जैसी ही बेचैनी थी ।
आज बातों ही बातों में मैंने सुशांत से ये क्या कह दिया कि मेरा जो भी कुछ है वो तुम दोनों भाई- बहन का आधा-आधा है । अब मेरा भी अकेली का मन नहीं लगता तो यहाँ का मकान ज़मीन बेचकर , तेरे ही साथ रहूँगी , वो तो भड़क गया । बोला— ऐसा करो , आप सुरभि को ही सब कुछ दे दो और उसी के साथ रह लो ।
देख गायत्री, किसी भी नतीजे पर बहुत जल्दी पहुँच जाती है तू। अरे , जब तूने सुशांत के सामने ज़िक्र किया हो सकता है कि कोई ऑफिस की परेशानी हो या घर की या कोई और……. दूसरी बात यह कि जो तुम दोनों पति- पत्नी का है ,भाई साहब के जाने के बाद उस पर तुम्हारा अधिकार है तुम जैसे चाहो बँटवारा करो । इसमें कहने – बताने की ज़रूरत क्या है? अपना आत्मविश्वास क्यों कमजोर करती हो ?
मीरा , तू जानती है कि दामाद जी का बिज़नेस ठीक नहीं चल रहा । उन्हें हमारी मदद की ज़रूरत है वरना मैं क्यों सुरभि को हिस्सा देने की बात करती ……
यही तो तेरी गलती है, गायत्री । मतलब तू सुरभि को हिस्सा दया करके दे रही है और बेटे से उम्मीद करती है कि वो माँ के प्रति सारे कर्तव्य निःस्वार्थ भाव से निभाए ….. तेरा मन…..
पर यही तो होता आया है कि माँ-बाप की ज़िम्मेदारी बेटे की होती है । मैंने कौन सी अनोखी बात कह दी ?
एक तरफ़ तो तू सुरभि को हिस्सा देकर मार्डन जमाने की बात करती है दूसरी तरफ़ सारी ज़िम्मेदारी बेटे के ऊपर सोचती है । गायत्री, दो नावों में सवार होने की गलती ही तेरी समस्या है । देख, शांति से सोच । सुशांत का भी परिवार है । उसकी बीवी कह सकती है कि जब बहन हिस्सा ले रही है तो माँ की देखभाल की पूरी ज़िम्मेदारी उनकी ही क्यों है ? …….. और तेरी मति मारी गई है कि तू अपना मकान- ज़मीन बेचकर बेटे के साथ रहना चाहती है…….
हाँ अब अकेली का दिल नहीं लगता…. ख़ाली घर कचोटता…
पागल मत बन …. अपने घर में रानी है तू । हाथ- पाँव ठीक चलते हैं…. बीच-बीच में दोनों बच्चों के पास चली जाया कर । त्योहार या छुट्टी में उन्हें बुला…….
कोई नहीं आता । किसी का ये काम तो किसी का वो काम ….
तो तू ज़ाया कर । साथ तो अपने जीवन साथी का ही होता है । भगवान ने अकेली कर दिया तो इसी सत्य के साथ जीना सीख। बाक़ी देख, मैं तो सारी ऊँच- नीच समझा सकती हूँ । कैसे रहना , अपना मान- सम्मान और अधिकार कैसे सुरक्षित रखना , ये तुझे खुद तय करना पड़ेगा । चल … रात बहुत हो चुकी … सो जा …. मैं भी लेटती हूँ ।
मीरा तो सो गई पर गायत्री सोचती रही ….. ठीक ही तो कह रही है मीरा , साथ तो अपने जीवन साथी का होता है । ….. मैं क्यों अपने कारण बच्चों के बीच….. अगर ज़रूरत पड़ेगी तो बच्चे आएँगे ही …… मैं भी क्या बच्चों की तरह….. नहीं… जब तक हाथ- पैर चल रहे हैं अपने घर से कभी स्थाई रूप से जाने की नहीं सोचूँगी…….. और यही सब सोचते- सोचते उसकी आँख लगी गई ।
अगली सुबह एक नई गायत्री उठी , जो अपनी सहेली मीरा के साथ सैर करने के लिए तैयार खड़ी थी । आज अपने मनोबल के कारण उसके चेहरे पर चमक थी जो जीवन को नए दृष्टिकोण के साथ जीने के लिए तत्पर दिखाई दे रही थी ।
करुणा मलिक
Motivational thoughts