नातों की समझ – लतिका श्रीवास्तव  : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : किसना ओ बेटा किसना सुन तो इधर आ तो जरा….रात के बारह बज रहे थे बाबूजी की कराहती आवाज सुन पास ही लेता किसना हड़बड़ा के उठ बैठा हां बाऊजी मैं यही हूं आपके पास पानी पीना है क्या..!!पास रखी मिट्टी की  सुराही से पानी निकालने के लिए वो तत्पर हो गया था।

….नही नही बेटा पानी नहीं पीना है ऐसे ही जी  घबरा रहा था …. तू यहां मेरे कमरे में क्या कर रहा है बेटा जा अपने कमरे में सो जाकर ….बहुत रात हो गई है मैं ठीक हूं बेटा चिंता मत कर जा तू अपने कमरे में जा यहां तो एसी भी नही है मुझे उसकी आदत नही है सर्दी हो जाती है…!

पर किसना को टस से मस न होते देख वो अपने बिस्तर से उतर कर उसकी तरफ आने लगे….!

अरे बाबूजी आप क्या कर रहे हैं..!इतना क्यों परेशान हो रहे हैं मेरे यहां सोने से ये आपका कमरा क्या मेरा कमरा नहीं है!!किशन उनकी उद्विग्नता समझ रहा था उसके जाए बिना वो सोएंगे नही अच्छी तरह समझ गया था तो अच्छा अच्छा आप सोइए मैं जा रहा हूं अपने कमरे में…..कह कर अपने कमरे में जैसे ही पहुंचा पत्नी दीपा की बड़ बड़ तेज हो गई थी …..

क्यों आ गए यहां..!जाओ वहीं अपने बाबूजी के पास…बाबूजी ..बाबूजी बस दिन रात मंत्र की तरह जपते रहते हो .   मैं कहती हूं दुनिया में और भी काम है तुम्हारे इस जाप के सिवाय…!एक पत्नी भी है तुम्हारी तुम्हे याद है कि नही….कब से कह रही हूं दो दिनों की छुट्टी ले लो ऑफिस से और मुझे मायके घुमा लाओ ….मां तो बुला बुला के थक गई हैं….ये सब तुम्हे दिखाई नहीं देता है तुमने  तो शादी भी अपने बाबूजी की सेवा करवाने के लिए ही की है नौकरानी चाहिए थी तुम लोगों को…..!!

अरे दीपा जब से तुम आई हो मेरी हिम्मत बढ़ गई है देख रही हो ना बाबूजी उम्र बढ़ने के साथ साथ कितने अशक्त और असहाय होते जा रहे हैं तुमने मेरा आधा काम संभाल लिया है…कितनी समझदार पत्नी मिली है मुझे गहरे प्यार से कह कर किशन उसके बगल में लेट गया ….।

अपनी तारीफ सुन दीपा कुछ बोल ही नहीं पाई थी लेकिन सुबह उठते ही फिर से मायके जाने की रट लगा दी थी…बाबूजी के कारण कहीं आना जाना घर छोड़ना दुश्वार हो गया है…मेरी सहेलियां तो शादी के बाद जाने कहां कहां घूम आईं…एक मुझे देखो जब से शादी हुई है वही चूल्हा चौका और ऊपर से बाबूजी की सेवा …पति भी ऐसा मिला है जो पति कम है पुत्र ज्यादा है…किस्मत में मेरे ऐसा ही पति लिखा था …आंसू बहाती दीपा की  बड़बड़ असमर्थ बाबूजी को और निरीह बना रही थी…

बेटा किसना बहु एकदम ठीक कह रही है बिचारी यहां आकर कैद हो गई है उसके भी कितने अरमान होंगे तू जा बेटा उसे ले जा उसके मायके घुमा ला कुछ दिन घुमा फिरा के वापिस आ जाना तेरा भी मन बहल जायेगा मेरा तो ये बुढ़ापा का रोग यूं ही चलता रहेगा…बहू अभी नई है मैं नहीं चाहता मेरी वजह से तुम दोनों के इस पल्लवित होते हुए रिश्तों में खट्टास आए….बाबूजी की कातर अनुनय किशन को विगलित कर गई थी…

….शादी का बंधन भी बड़ा विचित्र होता है….नए बंधन पुराने बंधनों का स्थान लेने लग जाते हैं….बाबूजी के इसी कातर स्वर ने उसे ना चाहते हुए भी विवाह के बंधन में बंधने को बाध्य कर दिया था वरना तो उसने अपने बाबूजी की सेवा के लिए अविवाहित ही रहने का निर्णय कर लिया था।मां की तो उसे याद ही नहीं दुधमुंहा ही था जब मां का निधन हो गया था…लेकिन उसके बाबूजी ने उसे कभी भी मां की कमी महसूस ही नहीं होने दी थी….अपने हाथों से नहलाना धुलाना खाना बनाना खिलाना स्कूल लेकर जाना पढ़ाना लिखना अपने पैरो पर खड़े करवाना ….इन सबमें बाबूजी ने अपना पूरा जीवन खपा दिया….नाते रिश्तेदारों के दूसरी शादी के लाखों प्रस्ताव और दबाव उन्होंने अपने पुत्र की निर्बाध परवरिश में कुर्बान कर दिए …..पर जीवन भर इस दोहरी जिम्मेदारी का अनवरत निर्वहन उनके असमय बुढ़ापे को आमंत्रित कर गया था…उनका अशक्त होता बुढ़ापा अपने समर्थ और सशक्त पुत्र को देख कर कृतार्थ हो जाता था।

किशन के लिए बाबूजी उसकी आत्मा थे उनके बिना वो एक क्षण भी नहीं रह सकता था..आज तक वह उन्हें छोड़कर कहीं नहीं गया था…पर ब्याहता दीपा की मायके जाने की ज़िद और उस ज़िद से उपज रहा बाबूजी का आत्मग्लानी का बोध उसे पुनः बाबूजी की आज्ञा मानने को मजबूर करने लगा था….अपने ऑफिस के एक लड़के को बाबूजी की दिन रात सेवा टहल में लगाकर और पड़ोसी को उनका ध्यान रखने की हजारों हिदायते देता किशन जाते समय सबकी आंख बचाकर मन ही मन फूट फूट कर रोया था।

दीपा का उछाह समा नहीं रहा था शादी के चार महीने बाद मायके जा रही थी भाभी और मां पिताजी का सानिध्य पाने को वो अधीर हो उठी थी..ससुराल ससुर पति सब उसे बोझ से लगने लगे थे……।

उधर दीपा के पिता सुबह सवेरे से खुश थे आज बेटी आ रही है ….गले लगा लिया था अपनी दुलारी दीपा को तू तो शादी करके जो गई तो हमें बिसार ही दिया मैं तो तेरी सूरत देखने को तरस गया था…

अरे बापू ऐसे घर में आपने मुझे ब्याह दिया जहां बहू की नहीं एक बीमार की सेवा टहल के लिए चौबीस घंटो वाली एक मुफ्त सेविका की जरूरत है….मेरे बारे में सोचने का तो किसी के पास समय ही नहीं है ….दीपा ने किशन की ओर देखते हुए व्यंग्य से कहा तो ससुराल में सबके सामने किशन असहज हो उठा….उठकर बाहर चला गया।

क्या कह रही है बेटी तू!!पिता का हृदय कांप उठा

घर बसाना गृहस्थी बसाना क्या घर में रहना बस  होता है!! अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पण की भावना होनी चाहिए तेरी मां को देख गृहस्थी के प्रति पूर्ण समर्पित हैं जब समर्पण की भावना आती है तब इस तरह के उथले विचार नहीं आते…. तू उस घर की बहू ही नहीं बेटी और मां भी है जहां सास भी नहीं है उस घर को तेरी ममता करुणा और ख्याल की जरूरत है वो

बीमार व्यक्ति तेरे पति के पिता और तेरे पिता तुल्य ससुर हैं बेटा..! किशन  बहुत ही सहृदय है अपने पिता के प्रति पूर्ण समर्पित है ….अपनी पत्नी के प्रति भी पूर्ण समर्पित है तभी तो दिल पर पत्थर रख कर पिता को जीवन में पहली बार अकेले  छोड़ कर तुझे यहां लेकर आ गया …यही तो ख्याल है ..आज तक किशन और उसके पिता ने तूझसे कोई बुरा व्यवहार नहीं किया …कड़वे शब्द नहीं कहे….तेरा सम्मान ही करते रहे….जिसे अनदेखा कर तूने अपने पति और पिता तुल्य ससुर दोनों का असम्मान अपनी वाणी से कर दिया  ….पिता तो पिता होता है बेटे या बहू का नहीं होता है…पिता की बातें दीपा के दिल को सन्न कर गईं….उसके सामने किशन और बाबूजी का आत्मिक लगाव मानो सजीव हो उठा था

दीपा चुपचाप उठकर कमरे से बाहर चली गई पूरे घर में ढूंढने पर भी उसे किशन कहीं नहीं दिखाई दिया तो वो चिंतित सी छत पर गई वहां किशन चुपचाप बैठा आंसू बहा रहा था।

तुम यहां बैठे  हो सब तुम्हे ढूंढ रहे हैं …क्या मेरी बात तुम्हे बुरी लग गई ….दीपा  की बात सुन उसने धीरे से कहा …”दीपा तुम शादी के बहुत दिनो के बाद अपने पिता से मिल रही हो मेरे कारण सब लोग खुलकर बात करने में संकोच ना करें इसलिए मैं यहां आ गया …..तुम्हे शायद पता नहीं है सिर्फ बाबूजी की जिद के ही कारण मैं तुम्हारे साथ यहां आया हूं…!

तुम यहां आकर भी अपने बाबूजी को याद कर रहे हो तुम्हे मेरे पिता जी के साथ बात करने का ध्यान भी नही है तुम्हारे इस तरह बीच में उठ कर आने से उन्हें बुरा लग सकता है तुमने नही सोचा…!!दीपा बोल उठी

अच्छा चलो फिर उनका दिल दुखाने का मेरा जरा भी इरादा नहीं था कहते हुए किशन हड़बड़ा कर खड़ा हो गया …!

दीपा ने उसके पांव पकड़ लिए…. आप किस मिट्टी के बने हैं मुझे कुछ कहते क्यों नहीं … मैं हमेशा आप पर इल्जाम लगाती रही अपने बारे में ही सोचती रही आपके बारे में आपकी इच्छाओं के बारे में सोच ही नहीं पाई पिता तो पिता होते हैं ये आपसे ही सीखा मैंने मैं तो हमेशा भेद ही करती रही चलिए जल्दी से मुझे पिता जी के पास ले चलिए आप दोनों मेरी खुशी की परवाह कर रहे हैं और मैं यहां अपने घर में आपको इज्जत देने दिलवाने के बजाय आप पर और आपके पिता पर इल्जाम लगाए जा रही हूं फिर भी आप चुप हैं… रुआंसी हो उठी थी वह।

नहीं नहीं दीपा ये तुम्हारे इल्जाम नही हैं ये तो एक पत्नी की अपने पति से की गई साधिकार शिकायतें हैं दोष मेरा ही है…इतने दिनों बाद तुम्हे मायके ला पाया.. अब तुम यहां आराम से जब तक जी चाहे रह लो और नाराज ना हो तो मुझे बाबूजी के पास  जाने की अनुमति दे दो मैं जाता हूं कहता किशन धीरे से उठ खड़ा हुआ था… किशन का निर्दोष चेहरा और निश्छल मन विनम्रता दीपा के शर्मिंदा मन को और भी शर्मिंदा कर गया और आंखें भिगो गया ।

मायके आकर सबसे मिलने की मेरी इच्छा पूरी हो गई..रुकिए मैं भी आपके साथ वापिस चलूंगी अपने बाबूजी के पास… दीपा झटपट अपना समान उठाए किशन के पास आ खड़ी हुई थी।

लतिका श्रीवास्तव 

#शर्मिंदा

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