घर पर शादी की धूम थी। चारों ओर चहल-पहल वाला माहौल था। अम्मा जी, ओसारे में, अपनी खाट पर बैठी हुई चिल्ला रहीं थी,,, “ना जाने कौन सो जमानो आ गयो है! हमारे जमाने में तो सब मर्यादा में रहत रहे।
ये छोरियां मटक-मटक कर का दिखावे हैं? मुझे तो कछू समझ ना आवे है? घर के काम-काज ना करवे हैं, बनाव श्रृंगार में तो ऐसन लगी हैं जैसन इनकी भांवरें पड़बे को होंए।
जो दुल्हन बनबे जाय रही है बल्कि वो ना बन-ठन रही है।”
तभी अम्मा जी की बड़ी बेटी ने आकर कहा,,, “अम्मा हम सब औरन (भाई-बहन) के लिए तो तुम सदा हिटलर बनी रही, कभी भी माथे में एक बिंदी से अधिक लगाने ना दिया।
कम से कम अब अपनी शौक को हम अपने बच्चों को देखकर पूरी कर रहे हैं, तो अब तुम उन्हें भी खिशियाए जाय रही हो!
बनाव-श्रृंगार तो औरतों का गहना है!
समय के साथ चलना सीखो अम्मा, समय के साथ, नहीं तो बहुत पीछे छूट जाओगी।
वे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं, जो तुम्हारी हर हिटलरशाही को बर्दाश्त कर लेंगे। वे नाती-पोते हैं उनकी नजर में सम्मान पाना चाहती हो, तो उन्हें प्यार दुलार करो। उन पर दिन भर चिंघाड़ती मत रहा करो।
अभी तुम्हें कोई जबाव नहीं देते, कल को तुम्हारी इसी आदत पर जबाव देना सीख जायेंगे, तो तुम्हारा फिर क्या मान-सम्मान रह जाएगा जरा सोचो!”
ऐसा कहकर अम्मा जी की बड़ी बेटी वहाँ से चली गई। उनकी बातें उनकी भाभी ने सुन ली थी। उसको अपनी ननद पर फख्र हो रहा था।
कुछ ही देर में जब भीड़ की गहमा-गहमी कुछ शांत हुई, तब ननद-भाभी एक साथ बैठकर कुछ काम समेटने लगीं।
तीन ननदों में से एक यही ननद सच-झूठ का मुआयना करके सच बात कहती थी। बाकी दो ननदें तो हमेशा अम्मा जी की हाँ में हाँ मिलाती थीं। और बैठे-बैठे दुनिया भर की चुगली करती रहतीं थी।
काम करते-करते ही भाभी ने अपनी ननद से कहना चालू किया,,, “दीदी, अम्मा जी अपना रौब कायम रखने के लिए जो दिन भर चीखती-चिल्लाती रहती हैं ना। वो हम सब देखकर भी इसलिए अनदेखा करते हैं, वो इसलिए कि यदि उन्हें बोलने से ही अपने प्रभुत्व का अहसास होता है तो हो जाने दें। उनके बोलने से क्या बिगड़ने वाला है? उनका भी सम्मान बचा रहे हमारा भी। आखिर हैं तो वे हमारी बड़ी ही। हम अपने बड़ों का यदि मान-सम्मान करेंगे तब ही तो हमारे बच्चे आगे चलकर हमारा सम्मान करेंगे।
ये तो हमें भी पता है कि उनके जमाने में कुछ अलग रहा होगा, हमारे जमाने में अलग था, हमारे बच्चों के जमाने में और अलग है फिर आगे चलकर और भी अलग होने वाला है। इस बदलाव को रोका तो नहीं जा सकता। बदलाव प्रकृति का नियम है। मेरे ख्याल से जमाना कोई भी हो संस्कार और संस्कृति जिंदा रहनी चाहिए। ओसारे में बैठी अम्मा जी अपनी बहू और बेटी के बीच हो रही बातें सुन रहीं थी और उन्होंने भी मन ही मन एक संकल्प लिया कि अब वे भी जमाने के साथ चलने की कोशिश करेंगी।
यही तो संस्कार और संस्कृति के जिंदा होने का सबूत है जो उनकी बहू में नजर आ रहा है। अब से वे किसी को भी अपना भाषण नहीं सुनाएंगी।
©अनिला द्विवेदी तिवारी
जबलपुर मध्यप्रदेश