दीदी! बड़े भाई का फ़ोन आया था… बाबूजी के श्राद्ध के दिन मुझे पहुँचने को कह रहे थे । आप तो जानती है कि अब मुझसे तो वहाँ रात में रुका नहीं जाता , बड़ी मुश्किल होती है और हवन सुबह आठ बजे का रखवाया है…. साढ़े सात बजे तक तो हम उठते ही है, ख़ैर आप तो दो चार दिन पहले जा ही रही होगी ना ?
हाँ…मुझे तो जाना है । आ जाना सौम्या तुम भी….. एक रात में क्या परेशानी ? शादी से पहले तुम उसी घर में रही हो , चारों भाई- बहन होंगे तो बाबूजी की आत्मा तृप्त हो जाएगी ।
अरे दीदी, आपको तो पता है कि राघव को पल भर की फ़ुरसत नहीं और मुझे अकेली को वो जाने नहीं देंगे ।
शक्ति ने अपनी छोटी बहन सौम्या से बातचीत की और फ़ोन रख दिया हालाँकि अब उनकी तबीयत ठीक नहीं रहती थी, उम्र होने लगी थी और उन्होंने सोचा था कि इस बार सौम्या से कहूँगी कि बाबूजी के श्राद्ध पर वो चली जाए पर सौम्या ने कभी बहन के मन को समझना ही नहीं चाहा । उसे केवल अपनी सुख- सुविधाओं की चिंता रहती थी । तभी बहू ने कहा —-
माँ, आपने तो बताया ही नहीं कि आप नानाजी के श्राद्ध पर फ़रीदाबाद जा रही है । दरअसल बच्चे भी इम्तिहान के बाद कहीं घूमने जाने की ज़िद कर रहे हैं । कब है नानाजी का श्राद्ध?
अभी तो महीना पड़ा है बेटा ! तुम बच्चों को लेकर आराम से घूमफिर आओ । सौम्या की तो आदत है….कहीं जाना हो तो दो महीने पहले शोर मचाना शुरू कर देती है ।
अच्छा…..मैंने सोचा कि आपको अभी हफ़्ता दस दिन में जाना है । आप और मौसी कितनी अलग हैं, कोई कह नहीं सकता कि आप दोनों सगी बहनें हैं ।
बहू की बात सुनकर शक्ति मुस्करा दी । कहने के लिए तो सौम्या उसकी छोटी बहन थी पर वे तो उसे अपनी बेटी ही समझती थी । सौम्या बेटी ही तो थी उसकी , जब माँ चार साल की सौम्या को शक्ति की गोद में डालकर इस दुनिया से चली गई थी ।
और हमेशा की तरह सारी घटनाएँ एक फ़िल्म की तरह शक्ति के सामने आ गई । वह तक़रीबन पंद्रह- सोलह बरस की हो चुकी थी ।नवरात्रि की नवमी तिथि थी ….. व्रत खोलने के बाद जब माँ को चक्कर आ गया तो दादी ने कहा—-
नौ- दस दिन बाद अन्न ग्रहण किया है ना इसलिए चक्कर आ गया होगा…..फिर एक- दो दिन बाद माँ और बाबूजी को खुसरफुसर करते देख दादी ने कहा —-
ऐसा जुल्म न करने दूँगी महेश!
पर माँ! बच्चे बड़े हो गए हैं । पता नहीं ये सब कैसे …..फिर दो लड़के हैं एक लड़की है ।
देख बेटा , सब अपना नसीब खुद लेकर आते हैं । अगर माता रानी की यही इच्छा है तो प्रेम से स्वीकार कर ।
और अंत में जिस दिन सौम्या का जन्म हुआ, उस दिन तो शक्ति और उसके दोनों भाई लज्जित और अपराधी से बने सबकी नज़रों से बचते रहे पर पता नहीं कब सौम्या अपने भाई- बहनों के दिल का टुकड़ा बन गई, किसी को पता नहीं चला ।
सबकी आँखों का तारा , सौम्या की ज़बान खुलने से पहले उसकी ज़िद पूरी हो जाती थी । सौम्या के तीसरे जन्मदिन से कुछ दिनपहले दादी ने बाबूजी से कहा था—-
महेश! इस बार तो लाडो का जन्मदिन माता वैष्णोदेवी के दरबार में उनका आशीर्वाद दिलाकर मनाएँगे ।
बस फिर क्या था, सब राज़ी-ख़ुशी दर्शन करके लौट आए । वहाँ से आने के अगले ही दिन माँ को ऐसा बुख़ार आया कि एक साल की लंबी बीमारी के बाद काल उन्हें लेकर चला गया । शक्ति अठारह- उन्नीस साल की उम्र में अपने छोटे भाई- बहन की माँ बन गई । दादी ने ज़बरदस्ती साल के बाद ही उसका विवाह करवा दिया —-
अरे बेटा …. बिन माँ की बच्ची पर लोग सौ तोहमत लगाते हैं । मेरे सामने ही हाथ पीले कर दे । कुछ ऊँच- नीच हो गई तो अनर्थ हो जाएगा ।
पर ईश्वर की कृपा से ऐसी ससुराल मिली कि जब भी बाबूजी , दादी और भाई- बहन को उसकी ज़रूरत पड़ी वह हमेशा उनके साथ खड़ी पाती थी ।धीरे-धीरे दोनों भाइयों का विवाह हो गया , सौम्या अपने घर चली गई और दादी तथा बाबूजी भी चले गए ।
ऐसा लगता है कि कल ही बात है , सोचते- सोचते शक्ति ने आँखों में आया पानी पोंछा । उसका मन कृतज्ञता से भर उठता … अपनी सास और दोनों जेठानियों के प्रति । सचमुच अगर इन तीनों का सहारा न मिलता तो क्या वह अपने बच्चों के साथ मायके की बड़ी बेटी होने का फ़र्ज़ निभा सकती थी ?
पाँच साल हो गए बाबूजी को गए । पर आज भी दोनों भाई हर कार्य में उन्हें आगे रखते हैं —-
दीदी, आप यहाँ आकर बस चाहे बैठी रहना पर हमें आपको देखकर हौसला रहता है ।
इतने बड़े हो गए तुम …. अब तो अपने निर्णय खुद लिया करो । किसी दिन माँ की तरह चली जाऊँगी फिर एकदम अकेले सब करना पड़ेगा । जीवन की ढलती साँझ हैं न जाने किस दिन दूसरे सफ़र पर चल दूँ ।
जैसे- जैसे बाबूजी के श्राद्ध का दिन नज़दीक आ रहा था…शक्ति की तबीयत बिगड़ती जा रही थी । कई बार दिल किया कि सौम्या को फ़ोन करके कहें कि इस बार तुम चली जाओ पर फिर यह सोचकर चुप रही कि अगर उसने साफ़ मना कर दिया तो क्या मुँह रह जाएगा । वैसे भी एक बड़े अमीर घराने की बहू बनकर सौम्या ने एक रात भी अपने मायके में नहीं गुज़ारी । कभी-कभी शक्ति सोचती कि क्या पैसा रिश्तों से अधिक वज़नदार होता है । जिस सौम्या को हम तीनों भाई- बहन ज़मीन पर पैर तक नहीं रखने देते थे….. आज हम अपने मन की बात भी उससे खुलकर नहीं कह पाते ।
पिछले साल की बात है बड़े भाई ने अपनी बेटी का दाख़िला यह सोचकर दिल्ली करवाया कि सौम्या के पास रह कर पढ़ाई कर लेगी । खर्च भी कम होगा और बुआ की निगरानी में रहेगी पर एडमिशन के दूसरे दिन ही जब सौम्या भाई- भाभी को लड़कियों का होस्टल दिखाने ले गई तो दोनों का मुँह खुला का खुला रह गया था ।
दीदी, सुना आपने …. एक साल की बात थी पर सौम्या तो अपनी ही अकड़ में है । उसे तो कभी किसी की ज़रूरत पड़ेगी नहीं….पैसे के बलबूते पर किसी को भी ख़रीद सकती है ।नौकरों के लिए जगह है उनके घर में पर मेरी बेटी दो दिन में ही भारी लगने लगी….. सीधी सादी भतीजी के कारण उनका स्टैंडर्ड कम हो जाएगा भई ।
ना सीमा , ऐसा नहीं है । और फिर ये सोच कि अहसान ही तो चढ़ता । जो होता है अच्छा ही होता है । सौम्या की कोई मजबूरी रही होगी ।
शक्ति ने भाभी को समझाने के लिए कह तो दिया पर उन्हें भी बुरा लगा कि अगर भतीजी एक साल रह लेती तो क्या घट जाता , उल्टे कुछ न कुछ सहायता ही करती । शक्ति जानती थी कि सौम्या के बच्चे हमें और हमारे बच्चों को हीन दृष्टि से देखते हैं पर उनकी भी क्या गलती ? उन्हें माहौल ही ऐसा मिला था ।
शक्ति हमेशा की तरह मायके गई और पिता के श्राद्ध के दो- चार दिन बाद वापस लौट आई ।
कुछ महीने बीते कि एक दिन घबराई हुई सौम्या का फ़ोन आया—
दीदी ! गौरव आपके पास पहुँच रहा है, प्लीज़ उससे कोई ज़्यादा प्रश्न मत पूछना… मैं शाम को आपसे बात करती हूँ ।
इससे पहले कि वे कुछ पूछती , फ़ोन कट चुका था ।
घंटा भर बाद ही गौरव एक छोटे बैग के साथ पहुँच गया । उसका रंग उड़ा था पर शक्ति ने बिना प्रश्न किए कहा —
आजा बेटा, सौम्या ने बता दिया था कि मौसी से मिलने आ रहा है मेरा गौरव ।
हालाँकि यह बात पचानी गौरव के लिए आसान नहीं थी क्योंकि दो साल पहले जब वह अपनी माँ के साथ आया था तो उसने शक्ति से कहा था—
मौसी , गले मत लगाओ मुझे, आपके कपड़ों से अजीब सी स्मैल आती है ।
बेचारी शक्ति सोचती रह गई थी कि वह हर रोज़ सुबह नहा- धोकर साफ़ धुले कपड़े पहनती है फिर कैसी दुर्गंध ?
अरे माँ…. छोड़ो इनकी बातों को । इन्हें तो हर किसी से स्मैल आती है । हमने कौन सा बुलाया था… ना आते ।
गौरव की बातें सुनकर बड़े बेटे का पारा हाइ हो गया था । शुक्र है कि आज वो यहाँ नहीं है वरना कुछ न कुछ कह देता ।
शाम को सौम्या ने फ़ोन करके बताया—-
अरे दीदी! गौरव के कॉलेज में छात्रों के चुनाव थे । बस वहीं कुछ कहा- सुनी हुई और गौरव तथा एक लड़के में झड़प हो गई । लड़के को ज़्यादा लग गई और वह हॉस्पिटल में एडमिट है । वैसे डर की तो कोई बात नहीं…. पैसे ले देकर क्या नहीं हो जाता ….. पर चांस लेना ठीक नहीं लगा इसलिए गौरव को आपके पास भेजना ही उचित लगा ।
शक्ति बहन की बात सुनकर हकदम रह गई । आज भी बेटे की गलती न मानकर पैसे पर घमंड कर रही है । उनका जी नहीं माना और तभी उन्होंने सौम्या को फ़ोन करके कहा—-
सौम्या! हर बात में पैसा – पैसा करना छोड़कर ….सबसे पहले ईश्वर से उस लड़के के लिए प्रार्थना कर कि वो ठीक हो जाए और दूसरी बात , गौरव को उसकी गलती समझाने का प्रयास कर…..ना कि यह कि पैसों के बलबूते कुछ भी हो सकता है ।
हद कर दी आपने दीदी, एक दिन गौरव आपके पास रह क्या गया कि आप पर भारी हो गया । ऐसी- ऐसी मौसियाँ तो सौ खड़ी हो जाएँगी , सौ- सौ रुपये में हज़ारों रिश्तेदार मिल जाएँगे ।
इतना कहकर सौम्या ने फ़ोन काट दिया और शायद उसने गौरव को फ़ोन करके घर आने के लिए कह दिया क्योंकि छोटी बहन की बात सुनकर उनका आहत मन अभी संभला भी नहीं था कि गौरव अपना बैग लेकर बिना कुछ कहे चला गया ।
शक्ति मन ही मन भगवान से यही प्रार्थना कर रही थी कि उसकी बहन को सुबुद्धि दें । तीसरे दिन जी कड़ा करके शक्ति ने सौम्या से हाल पूछने के लिए फ़ोन किया तो सौम्या ने रोते हुए फ़ोन पर बताया कि—-
वो लड़का अधिक खून बहने के कारण बहुत सीरियस है अगर उसे कुछ हो गया तो ….
कुछ नहीं होगा उस बच्चे को ….. शक्ति ने सौम्या की बात काटते हुए कहा । भगवान हर किसी को सजा देने से पहले एक मौक़ा अवश्य देते हैं । सौम्या, अभी वक़्त है । पैसे के गुरुर को छोड़ कर गौरव को उसकी गलती का अहसास करा , उस लड़के को हॉस्पिटल देखने जाओ , उसके घरवालों को हौंसला बँधाओ …. सब ठीक हो जाएगा ।
उसके बाद पता नहीं, ईश्वर का चमत्कार हुआ या सौम्या ने बैठकर दीदी की बातों का मूल्यांकन किया पर दो दिन बाद सौम्या का फ़ोन आया—-
दीदी, वो लड़का सुमित, अब ख़तरे से बाहर है । आपने ठीक कहा था कि भगवान हर किसी को गलती सुधारने का एक मौक़ा अवश्य देते हैं । मुझे माफ़ कर दो…. मैं अपने घमंड में रिश्तों के महत्व को भूल गई थी ।
दीदी, मैं आपसे वादा करती हूँ कि मेरे अहंकार के कारण जो बुराइयाँ मेरे बच्चों में पनप रही हैं, उन्हें समूल नष्ट कर दूँगी ।
करुणा मलिक
मैं अपने अहंकार में कारण रिश्तों का महत्व भूल गई थी