स्वतंत्रता दिवस मेरे लिए दोहरी खुशी लेकर आता है।आज मेरी मां का जन्मदिन होता है।संयोगवश पंद्रह अगस्त १९४७ को ही उनका जन्म हुआ था। नाना-नानी की पहली संतान ने स्वतंत्र भारत में जन्म लिया था।नाना जी ने अपनी बेटी का नाम रखा “मुक्ति”।अपने नाम पर सदा उन्हें गौरव रहा।
ज्यादा पढ़ नहीं पाई थीं,अठारह साल की उम्र में ही उनकी शादी कर दी गई थी।पश्चिम बंगाल के मालदा जिले की रहने वाली,मुक्त विचारों की एक नासमझ,नादान लड़की विवाह के बाद हजारों मील दूर मध्यप्रदेश के कटनी जिले में स्थित कैमोर में आ गई।मन में उड़ने के स्वप्न लिए जब वे आईं होंगीं संयुक्त परिवार में,तब उनकी मनोदशा क्या हुई होगी,अब समझ में आता है।
घर में सास-ससुर,दो ननदें थीं।इकलौते बेटे को अपनी ममता की छांव में पाला था दादा-दादी ने।किसी काम की विशेष जिम्मेदारी नहीं थीं उनपर।घर के सभी फैसले दादा जी और बड़ी बुआ लेतीं थीं।सुंदर बहू अब एक सुंदर सी बेटी की मां बन चुकी थी।खाना बनाने का इतना शौक था कि रात होने का अहसास भी नहीं होता था।
उनकी विचारधारा कभी इस घर के लोगों से मिली ही नहीं।अपने सारे शौक भी पूरे नहीं कर पाती थीं वे।हां,हर महीने हम तीनों(मैं, पापा-मम्मी)कटनी जाते थे पिक्चर देखने।रात को होटल में रुककर खाना खाकर अगले दिन घर जाते थे।
अपनी उन्मुक्त सोच लिए मुझे बड़ा किया था उन्होंने।वैसे तो ज्यादा समय मैं बुआ के पास उनके क्वार्टर में रहती थी।शाम को मां के पास उनके घर(दादा-दादी का बनवाया)जाती थी।बचपन से मेरे अवचेतन मन में मां की छवि अच्छी नहीं थी। दादा-दादी और बुआ के मुंह से सुन-सुनकर यही लगता था कि मां जिम्मेदारी लेना नहीं जानती।पापा को भी शायद यही कहकर भड़काया जाता रहा होगा।
इस कहानी को भी पढ़ें:
क्या कहें हमारे तो करम ही फुट गए जो ऐसी संतान को जन्म दिया – शनाया अहम : Moral Stories in Hindi
बुआ की शादी के बाद दादा-दादी और छोटी बुआ के संग मैं उसी घर में आ गए रहने।सुबह से रात तक रसोई में खाना बनाना, बर्तन साफ करना,कपड़े धोना करते-करते ही उनका पूरा दिन निकल जाता।एक बात में वे बहुत कड़क थीं।हमारी पढ़ाई के मामले में कभी समझौता नहीं किया उन्होंने।
मेरे साथ ही बाकी के तीन भाई बहन भी पढ़ते थे।अक्सर मुझसे कहतीं”ऐसी पढ़ाई करना कि ऊंचे आसमान में अपने पर खोलकर उड़ सको।बंधन में रहना पर किसी का बाध्य मत बनना।लड़कियों को अपने मन की बात भी सुननी चाहिए।ख़ुद ही खुश नहीं रह पाएगी,तो दूसरों को क्या खुश रख पाएंगी।”
समय निकलने लगा। दादा-दादी छोटी बुआ के पास रहने आ गए।उन्हें रेलवे में नौकरी मिली थी,अपंगता की कैटेगरी में।
अब मैंने देखा मां का संघर्ष।पापा ने पहले कुछ किया नहीं था।मां बाजार,किराना,किराया वसूलना,राशन के लिए लाइन लगाना सब कुछ करती थीं।बस उन्हें रोटी बनाना और कुएं से पानी भरना नहीं आता था।एक आदमी लगवा लिया था उन्होंने पानी भरने के लिए।मैंने कहा भी था”मुझसे तो आता है,
भर दिया करूंगी।”तब उन्होंने बड़े गंभीर स्वर में कहा था”हमें सब काम नहीं आने चाहिए ।लोग हमारी कदर करना भूल जातें हैं।अभी तुम्हारे लिए पढ़ना जरूरी है,घर के काम नहीं।जिस समय जिस की जरूरत होती है,वह उसी समय करनी चाहिए।”उनकी यह फिलासफी आज पचास पार कर अक्षरशः समझ पाती हूं।
अपने जन्मदिन को स्वतंत्रता दिवस के साथ ऐसे जोड़तीं थीं,मानो वह भी कोई अद्भुत दिवस हो।खाना बनाने की शौकीन मां तिरंगे के तीनों रंग से सजी डिश बनातीं थीं।बासंती पुलाव,दहीबड़ा,पालक पनीर।पूरे मोहल्ले की पार्टी होती थी। आंगन में भारत मां की फोटो रखकर हम सब फूल माला चढ़ाते थे,और मां रवींद्रनाथ की देशभक्ति के गीत गाती थीं।
संयुक्त परिवार में रहकर भी उन्होंने अपनी निजता का त्याग कभी नहीं किया।पापा के चले जाने के बाद उनके हांथ कभी नहीं कांपे,सास के कांसा-पीतल के बर्तन बेचते।उसी पैसों से हमारे परीक्षा के फार्म भरे जाते थे।कभी गलती से भी मैंने टोका तो उत्तर में कहतीं”दादा-दादी की संपत्ति विरासत की पूंजी है,
इस कहानी को भी पढ़ें:
मैं मानती हूं।मेरी पूंजी है मेरे बच्चों की शिक्षा।वह तो मुझे चालू रखनी पड़ेगी ना।मां ट्यूशन भी पढ़ाती थी घर जाकर।मुझे अच्छा नहीं लगता था।तब कहतीं”इससे अच्छा इज्जत का काम और कुछ नहीं।जीने के लिए जो भी ईमानदार प्रयास कर सकते हैं, हमें करने चाहिए।
कालेज के टूर में जाने से मैं मना कर देती थी ,पर वे पैसा जमा करवा देती और कहती”कल क्या लिखा है किस्मत में तुझे पता है क्या?अभी मौका मिल रहा है,घूम लें।परिवार में तंगी तो चलती रहेगी।”यह उनके जोर देने का ही परिणाम था कि तब नेपाल,पुरी, लखनऊ,आगरा, नैनीताल जैसे अद्भुत स्थल देखने का सौभाग्य मिला।
शादी की बात चलने पर साफ कहती थीं मां”,जात धोकर पानी नहीं पिया जाता।ऐसा लड़का चुनना जो तुझे समान सम्मान दे सके।तेरी इच्छाओं को समझें,पूरी करने के लिए किसी और पर आश्रित ना हो।”
शादी हुई मेरी।बच्चे हुए और बड़े हो रहे थे।अचानक उनका यूटेरस कैंसर डिटेक्ट हुआ,लास्ट स्टेज का। मुश्किल से छह महीने ही जी पाईं और,पर ज़िंदगी से लड़ती रहीं।मेरे लिए नींबू,गाजर,गोभी खरीद कर रखा था उन्होंने अचार बनाने के लिए,पर बना नहीं पाई।मैं उन्हें आखिरी बार मिल भी नहीं पाई।
मां के चले जाने के बाद चेतना जागी मेरी।एक कम उम्र की लड़की को उसके शहर ,राज्य से हजारों मील दूर शादी करके आकर कैसा लगा होगा?कम उम्र में बार-बार भाई -बहनों को देखने का मन होने पर भी ना जा पाने का दुख कैसा लगता होगा?अपने किसी शौक को पति से बताकर कई दिनों तक नन्द और ससुर के फैसले के इंतजार में कितनी थकी होगी उनकी आंखें?
देश के मुक्ति दिवस को अपना जन्मदिन मनाना कितना सुकून देता होगा उन्हें।वो बूढ़ा जलेबी वाला टीन के डिब्बे में लेकर आता जलेबी,और उस दिन पूरे मोहल्ले को बांटना उनका।अपनी आजाद ख्यालों को कभी किसी के सामने परतंत्र नहीं होने दिया था मां ने।उस भयंकर बीमारी से तकलीफ़ तो बहुत झेली पर जल्दी मुक्त भी हो गई अपने शारीरिक और मानसिक संघर्ष से।
आज दो साल बाद विद्यालय में जाकर झंडा फहराने पर जब जन -गण-मन गा रही थी तो,एक पल को लगा मुक्त कंठ से मेरी मां “मुक्ति”भी गा रही हैं मेरे साथ।मैंने भी हैप्पी बर्थडे मां कह ही दिया ऊपर देखकर।
शुभ्रा बैनर्जी