मुझे स्वीकार नहीं है  – पुष्पा पाण्डेय

श्वेता शाम में चाय लेकर वाॅलकनी में आ गयी। चाय की चुस्की लेते-लेते वह एक नजर अपनी काॅलोनी पर डाली।

मन- ही-मन सोचने लगी- इन बीस सालों में कितना कुछ बदल गया। कभी सोचा भी नहीं था कि यह जगह मेरी कर्मभूमि होगी।

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हरि प्रसाद जी इस बार नवरात्र में विन्ध्याचल जाकर दस दिन परिवार के साथ रहने का कार्यक्रम बनाए थे। उनकी पत्नी शारदा की भी इच्छा थी कि एक बार नवरात्र का व्रत विन्ध्याचल जाकर करूँ।

हरिप्रसाद जी एक काँलेज में संस्कृत के प्राध्यापक थे। तीन बेटी और एक बेटा था।  श्वेता उनकी छोटी बेटी थी।उसने विज्ञान में स्नातक किया। पढ़ाई में काफी होशियार थी। वह भौतिक विज्ञान को लेकर आगे पढ़ना चाहती थी। उसकी भी इच्छा पिता की तरह प्राध्यापक बनने की थी। तीव्र बुद्धि के साथ-साथ श्वेता काफी सुशील और खूबसूरत भी थी। बड़ा ही सात्विक  परिवार था उनका।

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नौ दिन विन्ध्याचल में पत्नी और बेटी श्वेता के साथ बिताने के बाद हरिप्रसाद जी वापस घर लौटे।  यात्रा काफी सुखद और संतोषजनक रही। माँ विन्ध्याचल देवी के चरणों में नौ दिन की पूजा-अर्चना का सुखद एहसास अपना अमिट छाप छोड़ चुका था।

वहीं हरिप्रसाद जी को अपनी बड़ी बेटी के ससुराल वालों के रिश्तेदारों से भी मुलाकात हुई। चलते-चलते उस परिवार ने एक सवाल उनके दिलो-दिमाग में डाल चुके थे- श्वेता की शादी का।

वैसे श्वेता को आगे पढ़ाई करनी थी। वह अभी शादी करना नहीं चाहती थी। ये बात माँ शारदा और हरिप्रसाद जी को भलि-भाँति मालूम थी, लेकिन ऐसा प्रस्ताव छोड़ते भी तो नहीं बनता था।

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“हैलो अंकल जी!

आपने क्या सोचा? राधव है तो भाई, लेकिन वो मेरे बेटे जैसा है। अभी वह कॉलेज में प्राध्यापक का पद भार सम्भाल लिया है, लेकिन वह कई प्रतियोगी परीक्षाएँ दे रहा है। श्वेता उसे  बहुत पसंद है। आपको अच्छा घर और लड़का चाहिए और मुझे एक अच्छी संस्कारी लड़की।”

“हाँ, वो तो ठीक है , लेकिन अभी श्वेता आगे पढ़ना चाहती है। दो साल बाद ही शादी करना चाहती है।”

“अरे! तो इसमें समस्या क्या है? कोई बाधा नहीं है। पढ़ाई पूरी करेगी।”

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श्वेता को पुलिस और वकील का प्रोफेशन बिल्कुल पसंद नहीं था। जहाँ पैसे के बल पर झूठ को सच और सच को झूठ बनाया जाता हो। राघव का परिवार पुलिस और वकील के प्रोफेशन में था।

श्वेता को परिवार पसंद नहीं था,क्योंकि वह एक स्वस्थ वातावरण में पली बड़ी हुई थी। हरिप्रसाद जी का पारिवारिक माहौल धार्मिक और अध्ययन-अध्यापन से जुड़ा हुआ था। श्वेता को संतोष था तो यही कि राघव अध्यापन से जुड़ा है। वैसे श्वेता आर्मी वालों से शादी करना चाहती थी।

अंततः शादी राघव से हो गयी। सभी रिश्तेदार जोड़ी की नजर उतारता गया।

दोनों एक-दूजे के लिए ही बने थे।

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दुल्हन बन श्वेता उस घर में गयी और धीरे-धीरे राघव को परखने का मौका मिला। उसे अब पता चला कि राघव की नौकरी पाँच साल के अनुबन्ध पर है। श्वेता के लिए परेशानी ये नहीं थी कि उसकी नौकरी स्थायी नहीं है, बल्की उसकी परेशानी राघव की मानसिकता से थी। पुलिस बनकर कानून और न्याय की रक्षा करने से ज्यादा राधव को अपना जीवन स्तर बदलना था। भाई का रूतबा देख वह भी जल्दी अमीर बनना चाहता था। जल्दी अमीर तो ऊपरी आमदनी ही बना सकती थी। इस बात पर अक्सर श्वेता के साथ राघव का झगड़ा भी हो जाता था।

       वह अपनी पढ़ाई भी आगे नहीं कर सकी। शादी के बाद  जल्द ही बच्चे की जिम्मेवारी उठानी पड़ गयी। सास तो थी नहीं कि बच्चा सम्भालती।

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हुआ वही जो श्वेता नहीं चाहती थी। पुलिस की नौकरी पति को मिल गयी। सिर पर भाई का हाथ भी था। इसके लिए कितना रिश्वत देना पड़ा होगा इससे श्वेता अनजान थी।

धीरे-धीरे श्वेता को उस घर में साँस लेना मुश्किल हो गया। वह अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं कर पाती थी।

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एक दिन अपने चार साल के बच्चे को लेकर हमेशा के लिए मायके आ गयी। श्वेता का यह निर्णय किसी को अच्छा नहीं लगा। परिवार, समाज क्या कहेगा? श्वेता ने साफ शब्दों में कह दिया-

” मैं वहाँ रोज अपनी आत्मा को मरते नहीं देख सकती थी।

मुझे यह स्वीकार नहीं है। मैं अपने बच्चे की परवरिश वैसे माहौल में नहीं कर सकती।”

श्वेता ने स्पष्ट कर दिया कि जब-तक मैं कोई नौकरी नहीं ढूँढ लेती हूँ, तब-तक ही यहाँ रहूँगी।

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राघव ने भी पलटकर कभी खबर नहीं लिया और न ही  बेटे की चिन्ता थी। कुछ दिनों के बाद श्वेता को नौकरी दूसरे शहर में लग गयी और वह वहीं अपने बच्चे को लेकर चली गयी। अब उसका एक मात्र लक्ष्य था बेटा को एक ईमानदार इंसान बनाने की।

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“माँ ! मैं आर्मी अस्पताल ज्वाइन करना चाहता हूँ। मेरा चुनाव वहाँ के लिए हो गया है।”

बेटा की ये बात सुनते ही मानो वह नींद से जगी। आज उसकी तपस्या सफल हो गयी। उसके मुख से कोई शब्द नहीं निकल पाया और वह बेटे को गले लगाकर फफक पड़ी। जब तूफान आता है तो बांध तोड़ ही देता है, चाहे वह तूफान खुशी का ही क्यों न हो।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

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