एक बार बृद्धाश्रम में मेरा जाना हुआ बाहर एक अम्मा बैठी बैठी चश्मा साफ कर रही थी मैं उसके पास जाकर बैठ गया और उसके बारे में पूछने लगा कि अम्मा आपका यहां कैसे आना हुआ क्या आपके परिवार में कोई नही है? थोड़ा जोर डालने पर वो बोली नही बेटा ऐसी बात नही है मेरी दो बेटियां हैं दोनों विदेश में अपने परिवार के साथ सुविधा संपन्न है दो बेटे हैं
जिनका शहर में अपना व्यबसाय है काम की व्यस्तता के कारण वो मेरा ख्याल रखने में असमर्थ थे इसलिए यहां बृद्धाश्रम में छोड़ गए ऐसा नही है कि उन्होंने मुहँ मोड़ लिया है अभी भी महीने के महीने मेरे खाते में पैसे डाल देते हैं महीने में एक बार हाल चाल भी पूछ लेते हैं
वो तो मुझसे बहुत प्यार करते थे जब छोटे थे तो एक दूसरे से लड़ाई करते थे मेरी माँ मेरी माँ कहकर। जब तक उनके बाबूजी जिंदा थे मुझे कभी किसी की कमी नही खली मगर अब अकेले समय काटना बहुत पीड़ा देता है। नाती पोतों को देखने को आंखे तरसती हैं
दिल मे एक टीस सी उठती है। मरने से पहले एकबार अपने परिवार को देख लूं तो शायद आत्मा तड़पती न रहे। बेटियां तो विदेश में हैं वो तो शायद मेरी अंतिम यात्रा में भी शामिल न हो पाएं। दो साल पहले बड़ी बेटी आई थी तो यहां बृद्धाश्रम के मुखिया को दो हजार रुपया दे गई थी कि अगर वो न आ सके तो उनकी तरफ से मां को एक अच्छी सी साड़ी अंतिम यात्रा में पहना देना।
छोटी को आए हुए कई साल हो गए अब तो कभी फ़ोन भी नही करती मुझे उसकी बहुत फिक्र होती है जाने किस हाल में होगी वो कम से कम एकबार बता तो देती की कैसी है तो दिल को तसल्ली हो जाती। किसी ने बताया था छोटे वाले के बेटे हुआ है अब तो चलने भी लग गया होगा। ये कहते कहते अम्मा की आंखों से आंसू चश्मे के नीचे से होते हुए गालों पे बहने लगे आम ने एक लंबी सांस ली और दुपट्टे से आंसू पोंछते हुए कहा ठुंठे पेड़ को भला कौन आंगन में सजाकर रखता है।
अमित रत्ता
अम्ब ऊना हिमाचल प्रदेश