सुनो….जरा इधर आना
सुई में धागा डाल दो जरा….तुम्हारे कुर्ते की जेब सिल दूँ,
आगे की एक बटन भी टूटी है उसे भी टाँकनी है ,
ओहहहह…बिन चश्मे कुछ दिखाई नहीं देती अब तो…
राधिका जी ने अपने पति मोहन जो दूसरे कमरे में पेपर पढ़ रहे थे….उन्हें आवाज लगाई…..
आता हूँ…बस जरा सा रह गया है पढ़ना…
अरे छोड़ो भी…आओ इधर…
क्या एक ही अखबार को दिन में दस दस दफा पढते रहते हो…
आखिर अखबार में घूँसे क्या ढूँढते रहते हो समझ नहीं आता..
इस उम्र में कोई दूसरी मिलने से तो रही…..
अरे …..श्रीमतीजी क्यूँ गुस्सा हो रही लो आ गया….
तुम एक को तो संभाल नहीं पाता दूसरी कहाँ से संभाल लूँगा..
लाओ..सूई धागा दो….
तुम भी न…जरा सी बात का बतंगड़ बना देती हो…
आदत गई नहीं तुम्हारी…
ओहो….जैसे आप तो बड़े सरिफ जादे ठहरें…
जाने क्या करते हो…रोज़ बटन तोड़ लेते हो…
मोहन जी ने मुस्कुरा कर जवाब दिया…
टूटेगी नहीं तो तुम मेरे सीने से जूड़ोगी कैसे….
मोहन जी ने पत्नी राधिका की ओर हाँथ बढाते हुए…कहा
हटो मसखरी कम किया करो जरा…
तुम्हें तो मेरा प्रेम सदा मसखरी ही लगा है..
और नहीं तो क्या….
शुक्र करो की मैं मिल गई वरना..यूँ ही रह जाते
सो तो है…. मोहन जी ने प्रतिउत्तर दिया..
मानों हार मान ली हो अपनी….
याद है..तुम्हें अपने सीने से लगाने के लिए कैसे अपनी सर्ट की बटन खुद तोड़ देता था मैं…फिर तुम्हें आवाज देता..तुम भी दौरी भागी आती सब काम छोड़कर…कहीं मुझे देर न हो जाए…
जाने क्यूँ मुहब्बत के पल इतनी तेजी से बीत जाते हैं..
अच्छा …..उम्र हुई लेकिन आशिकी गई नहीं अभी तक…
अरे गोली मारो उम्र को…फिर तुमने मेरे प्रेम को समझा ही कब है..जानती हो मेरे लिए तुम्हारा प्रेम सदा तकिए के मुलायम फहों सा रहा है जिसे सिरहाने तले रख सो जाया करता था अक्सर..
खयाल करो…दो दो बेटों के बाप हो आप..पोता पोती अलग उपाहार…
हाँ…..पर किस काम के….औलाद होकर भी है तो हम बेऔलाद ही न….हम
न कोई देखने वाला न पूछने वाला…
मैं न कहता था राधिका…एक दिन समय हवा की तरह गुजर जाएगा..और जब हम अपनी अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर होंगे तो हमारा हम दोनों के सिवा कोई नहीं होगा…
तुम गुस्सा हो जाती…छोड़ो कुछ भी बकते रहते हो…
सठिया गए हो लगता..जो मन में आता है अनाप सनाप सोचते रहते हो..
मैं हँस देता…
तुम्हें बहुत विश्वास था कि तुम्हारे दिए संसकार जाया नहीं जा सकते…तुम्हारी परवरिश इतनी सस्ती नहीं हो सकती..
देखो आज हमारे बच्चें हमें याद तक नहीं करते…इक झलक देखने तक नहीं आते…हमें..हमारा हाल तक नहीं पूछते कैसे रह रहे हैं सम..हम जिंदा भी हैं या मर गएं..
ओहहह…क्यूँ दुखी होते हो…छोड़ो भी…
आखिर बच्चे हैं..उनकी अपनी भी कोई जिंदगी है..
और फिर तुम हो न…मेरा खयाल रखने के लिए…
वो तो जब तक जिंदा हूँ तब तक रखूँगा…तुम कहो या न कहो….पर..
मोहन जी मानों कहीं शून्य में खो गए हो जैसे..
हालांकि मुझे मेरी मौत से डर नहीं लगता….पर तुम्हें सोच सहम जाता हूँ….डरता हूँ..गर मैं नहीं रहा तो कौन देखेगा तुम्हें कैसे रहोगी तुम….इसलिए चाहता हूँ…मुझसे पहले तुम मुझे छोड़ चली जाओ…
क्या पागलों सी बातें कर रहे आज़…
पागल सी बातें नहीं…सच कह रहा मैं…एक न एक दिन तो सभी को मरना है…
ओहहो….कहा न ज्यादा मत सोचो…..क्या हुआ…हम दोनों हैं न…
और फिर मैं …तुम्हें मरने दूंगी तब न…स्थिति सामान्य करने के उदेश्य से हल्के परिहास में कहा..राधिका जी जानती थी अगर वो भी रूआँसी हो गई तो एक दूसरे को संभालना मुश्किल होगा..
लो कुर्ता सिल गया…बाजार से जरा फल ला देना…आज़ सावित्री व्रत है…और हाँ ज्यादे फल मत ले आना तुम्हें मीठे फल खाना मना है और मैं अब ज्यादा खा नहीं पाती…
तुम और तुम्हारा व्रत… पाँव कब्र में है पर व्रत करना नहीं छोड़ना…
अरे अब और कितना जिंदा रखोगी मुझे…
हड्डियों में जान कहाँ रही…जो आगे चल सकूँगा…
चाय बना दूँ या आकर पियोगे….राधिका ने सपाट लहजे में कहा..जानती थी अगर वह भी रूआँसी हो गई तो फिर दोनों को ही एक दूसरे को संभाला मुश्किल होगा..
रहने दो …तुम बैठो मैं बना देता हूँ…
वैसे भी गैस तो मुझे ही जलानी है..तो बना भी दूँगा.. ..
अभी भी समझदारी बची है कुछ कुछ…आप मे
लेकिन तुम कहाँ मानोगी…
चाय बना लाने पर मोहन जी ने चाय पीते पीते राधिका से पूछा..
अच्छा मेरी जेब में पैसे हैं न…बाजार जाने को…?
कल ही रखे थे…
मतलब…..????..राधिका ने पति से पूछा
नहीं तुम कुर्ते की जेब सिल रही थी ….सोचा फटी होने के कारण कहीं गिर न गई हो शायद…
फिर …अभी पेंशन भी आने में दो दिन बाकी हैं..
सब समझती हूँ…क्या कहना चाह रहे आप…..आपके पैसे आपकी दूसरी जेब में हैं
ये लिजिए कुछ पैसे बचा रखें थे मैने…
मोहन अच्छा कहाँ से बचें ये पैसे…???
कहीं से बचे…दे तो मैं ही रही न….
हाँ वो तो है….मोहन जी ने स्वीकृति में कहा…
आज भी याद है मुझे उस रोज़ कितनी जोड़ बरसी थी मुझपर तुम…
जब बाजार से तुम्हारे कहे सामान नहीं ला सका था मैं..तुम सौ बातें कह रही थी और मैं सुनता जा रहा था,लाता भी कैसे जेब में रखें पैसे तुम्हारे धर्म कर्म में जो चले गए थे..
हाँ बता देती तो बाजार जाने की नाहक परेशानी नहीं होती..
फिर एक दिन की बात हो तब न यह तो रोज़ की बात थी..और इधर ढलती उम्र के साथ तो कुछ ज्यादा ही..मैं कुछ पैसे बचा रखता और तुम धर्म कर्म में लगा देती..कितनी बार तो तुम अधर्मी खडूस भी कह देती मुझे पर मैं मुस्कुरा कर रह जाता क्योंकि यह भी तुम्हारा प्रेम है यह पता था मुझे….
बहुत हुआ अब जाओ भी…रूला कर ही छोड़ोगे लगता है..
अरे नहीं….. . ..
ये हमारी बूढ़ी अवस्था ही हमारी शक्ति है.हमारा एक दूसरे के प्रति प्रेम….हमारा विश्वास…और ये मोह के धागे ही हैं जो हमें अब भी बांधे है…..वरना मुझे पता है तुम्हें पता है..हम एक दूजे बिन किसी लाश से कम नहीं….
राधिका पति के सीने लग…भावूक हो चली थी..और मोहन जी अपने आँसूओं को रोकने की असफल कोशिश कर रहें थे..
दोनों का मन बोझिल हो चला था और दोनों ही एक दूसरे के हाथ थामें एक दूसरे को सहारा दे रहे थे….
विनोद सिन्हा “सुदामा”