शादी के बाद पहली रसोई के दिन ही श्वेता के कानों में आवाज आई…मिले माई लंगड़ा आया है….
इस आवाज को आए मिनट भर भी नहीं हुए होंगे कि ससुर जी ने आकर कहा ….दुल्हन , दो रोटी और थोड़ी सी सब्जी एक प्लेट में दे दो …लंगड़ा आया है ….पल्लू ठीक करते हुए धीरे से.. जी कहकर श्वेता ने दो रोटी और थोड़ी सी सब्जी निकालकर ससुर जी को पकड़ा दिया …..फिर अपने काम हलवा बनाने में व्यस्त हो गई…!
तीन भाइयों और सास ससुर से भरा पूरा संयुक्त परिवार में श्वेता की शादी हुई थी… ।
फिर तो हफ्ते में दो बार , कभी तीन बार ये सिलसिला ही बन गया था…
वैसे भी संयुक्त परिवार में दो-चार रोटियां तो हर रोज ज्यादा बनाई ही जाती थी …एक गाय की , एक कुत्ते की , एक कौवा की…. और भी नौकर चाकरों की…. और एक दो ऐसे भी अतिरिक्त…
फिर उस समय घर में ये बात बिल्कुल लागू नहीं होती थी कि कौन कितना रोटी खाएगा जब तक पेट ना भर जाए और हाथ बढ़ाकर रोकने का संकेत न हो तब तक गरमा गरम (फुलकियां) रोटियां थाली में डालते ही जाना होता था…!
इसीलिए एक दो रोटियां का कम ज्यादा पड़ने का कोई सवाल ही नहीं होता था …।
आज का जमाना थोड़ी ना था… सब स्वास्थ्य के प्रति इतने सजग है… रात में कम खाए या देर रात खाए ही ना… उस समय तो परिवार के मर्दों के मध्य प्रतियोगिता होती थी आज कौन कितना रोटी खाएगा…. हम औरतों की आफत आ जाती थी रोटी सेंकते-सेंकते ….!
हम देवरानी , जेठानी ,सासू मां सभी महिलाएं मिलकर ..आपस में बैठकर.. अपने ही घर के मर्दों की जी भर कर बुराई भी कर लिया करते थे …सारे पुरुष वर्ग व मोहल्ले के कुछ लोग बाहर बैठकर गप्पे मारते… हम औरतें खाना बनाकर इंतजार करते रहती …
वो इंतजार का समय और हम औरतों का आपस में मिलकर इन लोगों के प्रति नाराजगी जाहिर करने में भी एक अलग ही मजा होता था ….
एक दूसरे से खुलकर बातें करना कुछ भी छुपाव दुराव नहीं होता था… कोई चालाकी नहीं , कोई ऊंच-नीच भी की सोच भी नहीं , वाकई क्या दिन थे… हालांकि कुछ असुविधाएं भी होती थी …पर यदि देखा जाए तो संयुक्त परिवार में खूबियां ज्यादा थी वनस्पत कमियों के…..।
दिन बीतते गए …समय अनुसार परिस्थिति वश संयुक्त परिवार ने एकाकी परिवार का रूप ले लिया …सभी भाइयों के अलग-अलग घर हो गए.. सास ससुर भी नहीं रहे थे….. इस बीच काफी कुछ बदल सा गया था …नहीं बदला था तो वो सिर्फ एक आवाज …
” मिले माई लंगड़ा आया है “
बच्चे बड़े हो रहे थे ….इस दौरान हमेशा की तरह उस दिन भी आवाज आई….. मिले माई लंगड़ा आया है…
तभी बेटे शिवांश ने आकर कहा मम्मी…. रोटी दे दो …लंगड़ा आया है …फिर मैंने शिवांश को डांटा…ऐसा नहीं बोलते ..वो बड़े हैं ….जवाब में शिवांश ने कहा ….उन्होंने ही मुझे आपसे बोलने बोला था…. की मम्मी को कह दो लंगड़ा आया है ….फिर मैंने शिवांश को बड़े प्यार से समझाया ….
तब से लंगड़ा कहे जाने वाले “लंगड़ काका ” के नाम से पहचाने जाने लगे ….!
अब तो उम्र से लंगड़ काका भी बूढ़े होने लगे थे… पहले हफ्ते में दो बार आते थे अब तो हफ्ते में तीन चार बार आ ही जाते हैं…! शायद अब उन्हें और उनके परिवार को समाज की ज्यादा जरूरत पड़ने लगी थी … परिवार में पत्नी के अलावा था भी कोई नहीं…
एक बेटा था वो बहुत पहले ही अपनी पसंद से शादी कर अलग हो चुका था… ना उसकी कोई खबर थी …ना लंगड़ काका के बारे में उसको कोई खबर रहती थी…!
लंगड़ काका शुरू में ड्राइवर की नौकरी करते थे …उनका नाम शिवचरण था…थोड़ी सी जमीन थी… साधारण तरीके से जीवन चल रहा था… एक सड़क दुर्घटना में उनका एक पैर जाता रहा….उसके बाद उनकी माली हालत दिन प्रतिदिन खराब होती गई ….पत्नी झाड़ू बर्तन करके किसी तरह घर चला रही थी ….शुरू में बैसाखी के सहारे से शिवचरण मांग कर गुजारा करते थे ….बाद में कुछ परिचितों के प्रयास से सरकारी योजनाओं के तहत शिवचरण को ट्राई साइकिल मिल गया था ….बस फिर क्या था ….
शिवचरण ने खुद ही अपना नाम लंगड़ा रख लिया था …..और दरवाजे पर… मिले माई लंगड़ा आया है …की आवाज देकर पूरे कॉलोनी में या कहें पूरे कस्बे में अपनी एक पहचान बना ली थी…!
धीरे-धीरे लंगड़ काका की ख्वाहिश रहती कि लोग रोटी के जगह कुछ पैसे दे दिया करें….सरकार की ओर से चावल तो मिल ही जाता है… तेल साबुन के लिए पैसे की जरूरत पड़ती है…!
वाह रे हमारी कॉलोनी …. पूरे कॉलोनी के लोग लगड़ काका की मदद करते थे…. हालांकि अब पुराने लोग रिटायर होने के बाद यहां से चले गए हैं… नए लोगों के मध्य लंगड़ काका महज एक भिखारी ही है …जिन्हें बार-बार आने पर तिरस्कृत भी होना पड़ता है…..उनकी मजबूरी उनके प्रति सदभावना सिर्फ कुछ पुराने लोगों तक ही सीमित रह गई थी…!
काफी दिनों से… मिले माई लंगड़ा आया हैं ….कि ऐसी आवाज सुनाई नहीं दे रही थी…. मैंने बेटे शिवांश से पूछा…. आजकल लंगड़ काका नहीं आते हैं क्या बेटा…. क्या हो गया उन्हें..?
जवाब में शिवांश ने कहा…मम्मी आप इतना चिंता क्यों करती है …आपकी ही जिम्मेदारी है क्या…?
माना हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी है… इसका ये मतलब थोड़ी ना है कि सारे जगत की चिंता करते फिरे ….और पैसे बांटते रहे …..मेहनत करते हैं तब कमाते हैं ….!
और मैं तो कहता हूं इन्हें भी भीख नहीं मांगनी चाहिए… कुछ ना कुछ बैठे-बैठे ही सही मगर कुछ काम करना ही चाहिए…. आवेश में शिवांश ने कहा..।
फिर श्वेता ने एक लंबी सांस ली और मुस्कुरा कर बड़े इत्मीनान से कहा …बेटा पहली बात तो …पैसे का गुरुर हमें क्या …किसी को भी नहीं होना चाहिए… फिर उनकी अवस्था , उनकी स्थिति …क्या तुझे लगता है कि उनमें कोई काम करने की हिम्मत होगी…. तेरी सोच अच्छी है …हमें आखिरी दम तक कुछ ना कुछ काम करके ही बदले में कुछ पाने की लालसा रखनी चाहिए….. पर बेटा..?
पर क्या मम्मी..?
पर बेटा समाज में रहने वाले समस्त सामाजिक प्राणियों का कुछ सामाजिक दायित्व होता है…. जिसे समाज में रहने वाले हर सदस्य को निभाना चाहिए….. फिर बेटा इस संसार में लगड़ काका का अपना कहने वाले हम सब ही तो हैं…!
सामाजिक दायित्व..? ओह… मम्मी इस दायित्व के बारे में तो मैंने कभी सोचा ही नहीं… मैंने तो हमेशा मर्जी की ही सोची…!
हां बेटा कभी-कभी कुछ कठोर नियम या बाध्यता या पुण्य प्राप्ति की लालसा ना हो तो शायद हमसे अपने कार्यों की प्रति पूरी ईमानदारी में भी थोड़ी चूक हो जाती है….।
मां बेटे के बीच में इस तरह की बातें चल ही रही थी…तभी सर पल्लू से ढके हुए एक महिला आई…
कुछ कागज आगे बढ़ाते हुए बोली ….मैं लंगड़ा की …..
और जोर-जोर से रोने लगी….क्या हुआ लंगड़ काका को …..?
मालकिन वो नहीं रहे …
क्या…. कैसे….?
अचानक श्वेता के दिल में एक टीस सी उभरी …..कहीं ना कहीं लंगड़ काका से एक रिश्ता सा बन गया था….
ओह …..श्वेता ने बस इतना ही कहा….
बैठिए ना काकी ….कहते हुए प्लास्टिक की कुर्सी आगे सरका दी ….
पर काकी तो जमीन में ही बैठ गई… आज भी काकी ने वही साड़ी पहनी थी जो श्वेता ने लंगड़ काका को दी थी…!
काकी अपने साड़ी के पल्लू से बार-बार अपनी कलाई को ढंक रही थी….शायद सूनी कलाइयां वो किसी को दिखाना नहीं चाहती थी ….
एक औरत के लिए उसका सुहाग चाहे वो जैसा भी हो …कितना मायने रखता है ये काकी के हाव-भाव से साफ जाहिर हो रहा था…।
श्वेता बिना कागज पढ़े ही अंदर आ गई और अलमारी में से ₹500 निकालकर काकी को देना चाहा….काकी ने कहा… अरे मालकिन में पैसा लेने नहीं आई हूं…. मेरा लंगड़ा आखरी में बोलकर गया था… आपके घर का पता बता कर गया …कुछ होगा तो उन्हीं के पास जाना …
तो एक आदमी आज ये कागज देकर गया है….जानती है मालकिन …?
जब से चर्चा है हमारी थोड़ी सी जो जमीन थी ना ….उसमें सरकार रास्ता बना रही है…. तो मुआवजा मिलने वाला है…. तब से बहुत से नाते रिश्तेदार आ रहे हैं ….और बेटा भी ….नहीं उसे बेटा नहीं बोलूंगी…
शंभू …. वो मेरे लिए सिर्फ शंभू है..
मेरा लंगड़ा …नहीं नहीं अब लंगड़ा नहीं कहूंगी मेरा शिवचरण…शंभू को देखने के लिए तरसता था….मैं जानती थी ..सच बताऊं मालकिन…. मैं भी तरसती थी… पर हम दोनों एक दूसरे को ढाढस बांधने के लिए कठोर बने हुए थे…
तब तो शंभू ने एक बार भी हमारी सुध नहीं ली और अब मुआवजे की खबर सुनकर कल आया था मेरे पास….
” टूटे हुए रिश्ते को जोड़ने “
पर अब मैं ही नहीं चाहती कि वो रिश्ते जुड़े जो मेरे शिवचरण के रहते हुए समाप्त हो चुके थे….
शिवांश इधर तो आ बेटा…देख इस कागज में क्या लिखा है… श्वेता ने शिवांश को पुकारा और कागज शिवांश की ओर बढ़ा दिया… और खुद काकी की बातें सुनने लगी…!
अरे मम्मी …इसमें तो लंगड़ काका के जमीन का पट्टा ,खसरा नंबर वगैरह की विस्तृत जानकारी के साथ 50 लाख मुआवजा मिलने की बात लिखी है….
50 लाख…?
श्वेता की भी आंखें फटी की फटी रह गई….पर काकी बड़े धैर्य से चेहरा एकदम से झील सा शांत किए चुपचाप बैठी रही …
.इस बार शिवांश ने खुद ही काकी से कहा ….काकी अब तो आपकी लॉटरी निकल आई है… आपके दिन फिर गए…. अब आप मौज कीजिए….
मौज ….? काकी ने व्यंगात्मक हंसी-.. हंसी …. आगे काकी ने कहा …बेटा काश शिवचरण होते … वो देख पाते ….जब भी वो अपने घर से ट्राई साइकिल पर भीख मांगने निकलते …न जाने उनकी आंखों में कितनी लज्जा , कितनी मजबूरी , कितनी लाचारी होती…
आज शिवांश को मम्मी द्वारा कही बातें… सामाजिक दायित्व के बारे में.. सही लग रही थी….हर किसी के लिए भीख मांगना आसान नहीं होता …लंगड़ काका की मजबूरी लाचारी उनके स्वाभिमान से समझौता करना …शिवांश को समझ में आ रही थी…!
बेटा मुआवजा के कुछ पैसे मैं अपने पास जरूर रखूंगी…. जिससे मैं भी लाचार लोगों … अपाहिज़ों की मदद कर सकूं ….जैसे आप लोगों ने हमारे साथ की थी…
मालकिन… मैं तो बस एक बात आपसे कहने आई हूं ….इधर-उधर ताकने झांकने और शिवांश के अंदर जाने के बाद… काकी ने धीरे से श्वेता के कान में कहा.. ये पैसा आप अपने पास ही रखिएगा… वरना इसके लालच में लोग मुझे मार देंगे…!
नहीं …कुछ नहीं होगा आपको…वैसे आपका बेटा शंभू रहता कहां है…?
श्वेता ने शंभू के बारे में पूरी जानकारी ली और आगे सब अच्छा होने का भरोसा दिला कर काकी को विदा किया…!
पास के ही किसी गांव में शंभू रहता था…..श्वेता ने पति सुधीर से आग्रह कर शंभू के घर जाकर वस्तु स्थिति की जानकारी लेनी चाही …. चूंकि लंगड़ काका के घर का मामला था… इसीलिए सुधीर ने भी जाने के लिए हामी भर दी…!
वहां पहुंचकर पता चला शंभू छोटे से बच्चे के साथ अकेले रहता था …प्रसव के दौरान ही उसकी पत्नी का निधन हो गया था …. चूंकि वो पिता के दुर्घटना और पैर कटने के उपरांत भी उनके काम नहीं आ पाया था…..इसलिए आत्मग्लानि वश दोबारा कभी उनसे मिलने की कोशिश नहीं की…!
शंभू का यह मानना था उसने ऐसी गलती की है जो क्षमा योग्य नहीं है…. हालांकि भगवान ने उसे सजा दे दी है… परंतु वो किस मुंह से उस घर में जाए… जब उसे मुआवजे का पता चला..तब रिश्तेदारों ने पता लगाना शुरू किया कि मैं उनसे संपर्क में हूं या नहीं…!
रिश्तेदारों को ये भी मालूम था कि कुछ भी हो जाए…. मेरे माता-पिता बहुत नफरत करते हैं मुझसे….इसलिए किसी भी हालत में वो पैसे मुझे तो नहीं ही देंगे ….जिसका फायदा रिश्तेदार उठाना चाहते थे ….इसलिए मैंने मां से संपर्क करने की कोशिश की थी… ताकि मिले हुए पैसे मां के नाम से फिक्स करा दूं…. पर शायद मां को ये भी मंजूर नहीं था कि मैं उनके किसी भी मामले में अब दखल अंदाजी करूं…!
मेम साहब उन लाचार लोगों का पैसा लेकर मैं और पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता…. यदि मां आज्ञा दे, तो मैं अपने साथ उनको रख लूं…।
तभी भीतर से एक छोटा सा बच्चा आकर शंभू से पूछा…पापा , क्या दादी हमारे साथ रहेंगी…?
पूरी वस्तु स्थिति की जानकारी लेने के बाद श्वेता और सुधीर वापस आ गए…
सारी बातें काकी को बताई…. काकी का आत्मसम्मान उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था….पर कहीं ना कहीं वो एक छोटी सी बात …पोते द्वारा कही ….क्या दादी अब हमारे साथ रहेंगी …..काकी को पूरी तरह हिला कर रख दिया …..आखिर कहीं ना कहीं काकी के पास भी तो एक मां का दिल था…. !
फिर पोते के लिए उमड़ते प्यार…. लाख कोशिशों के बाद भी उनके चेहरे पर आ ही गया…!
पहली बार बेटे की हकीकत सुनकर काकी का हृदय द्रवित हो रहा था… वह सोच रही थी….अरे प्रसव के बाद ही बहू की मृत्यु हो जाना ….कैसे संभाला होगा शंभू छोटे से बच्चे को …..अरे एक बार बोला तो होता ….कुछ बताया तो होता ….आखिर हम तो मां-बाप थे… लाख बुरा हो बच्चा पर मां-बाप माफ कर ही देते हैं…!
क्या सोचने लगी काकी…?
श्वेता की आवाज सुन काकी चौंकी… नहीं नहीं …कुछ भी तो नहीं ….मैं अपनी इस छोटी सी कुटिया से कहीं नहीं जाने वाली …..हां जिसे आना है मैं रोकूंगी नहीं ….!
काकी की बातों में शंभू व पोते के लिए नमी देख श्वेता खुश हो रही थी…।दीवार पर लंगड़ काका…नहीं नहीं… लंगड़ काका नहीं… ड्राइवर शिवचरण की फोटो लगी थी… जिसमें वो मुस्कुरा रहे थे… मानो कह रहे हो बस कर शंभू की मां …जा पोते को गले लगा ले…।
एक बार फिर टूटे रिश्ते जुड़ने लगे थे..!
(स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित और अप्रकाशित प्रकाशित रचना )
साप्ताहिक विषय : # टूटते रिश्ते जुड़ने लगे
संध्या त्रिपाठी