हमारी दुकान का नाम ‘भाटिया जनरल स्टोर’ था जो दालें, बेसन आदि सामान के साथ-साथ चाय पकौडों के लिये मशहूर थी । पुदीने की ताजी हरी चटनी के साथ आलू वाले ब्रेड पकौड़े की धूम काफी दूर तक थी । तब मिक्सी नहीं होती थी, पत्थर के दवरी डंडे में चटनी पीसी जाती थी जिसमें बहुत मेहनत लगती थी ।
चाय पकौड़ों की वजह से बर्तन भी खूब जूठे होते थे तिस पर उस समय घरों में नल नहीं हुआ करते थे । मेरी मम्मी दूर से पानी भर कर लाया करती । दोनो हाथों में बाल्टी और सिर पर पीतल की पानी से भरी गागर! सोचकर ही सिहर जाती हूँ कि वह उठाती कैसे होंगी ।
दुकान के साथ-साथ पापाजी जिल्दसाजी का काम भी किया करते थे जिसमें मम्मी भी पापाजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर साथ देती ।
मेरे पापाजी बुक बाइडिंग का सामान लेने बाजार जाते तो नये कॉमिक्स और नॉवेल भी ले आते जिन्हें किराये पर दिया जाता था । आज भी पुराने लोग हमें इसी नाम से पहचानते हैं – “अच्छा आप भाटिया जी की लड़की हो! अरे उनकी दुकान से लेकर बहुत नॉवेल पढ़े हमने!” सच्ची बहुत खुशी होती है उस समय ।
उस समय संयुक्त परिवार हुआ करते थे जिसमें दादी, चाचाजी, मम्मी-पापा, हम पाँच भाई बहन और मेरे छोटे मामा। नाना-नानी न होने के कारण छोटे मामा हमारे साथ ही रहा करते और पढ़ाई के साथ-साथ जिल्दसाजी के काम में हाथ बँटाया करते । दादी को मिलने आने वालों का अक्सर ताँता लगा रहता और मेरी माँ सारा दिन काम में लगी रहती । मुझे कभी-कभी बहुत गुस्सा आता था कि माँ को पल भर भी आराम करने का समय नहीं मिलता था ।
मेरे पापाजी स्कूल में नौकरी भी करते थे । दोपहर तक नौकरी… फिर दुकानदारी… फिर बुक बाईडिंग…बाजार से सामान लाना और सारा दिन काम में लगे रहना! इतनी मेहनत की उन्होंने! पुरानी बातों को याद करते हुए अक्सर कहते हैं कि “तेरी माँ को समय नहीं दे पाया! बहुत जल्दी चली गई वह!”
जब माँ चली गई… सारी दुनिया रुक गई जैसे । मैं भाई बहनों में सबसे बड़ी सिर्फ दस साल की और सबसे छोटा भाई मात्र ढाई साल का ।
अब मोर्चे पर आ डटी मेरी बूढ़ी दादी, जिन्हें हम अम्मा कहा करते थे । गोरी चिट्टी, मध्यम कद, खूबसूरती की मलिका… मेरी अम्मा!
हम सभी के ढेर सारे कपड़े धोना ! उस समय थाल में कपड़े धोए जाते थे, एक-एक कपड़े को रगड़-रगड़ कर साफ करना, हमारा हर तरीके से ख्याल रखना, पलंग के पाये से बाँध मधानी से छाछ बनाना, मक्खन निकालना, हमारे सिर में भर भर कर तेल लगाना और जबरदस्ती हमारी आँखों में पीतल के मोटे सुरमचू से सुरमा लगाना ।
मैं हर काम में उनकी मदद करती! चारपाई पर गेहूँ धोकर सुखाना, कोयले की केरी के गोले बनाना, आँगन में लगी अंगूर की बेल पर काले मोटे मोटे अंगूर आने पर पकने तक उन्हें कपड़े से बाँध कर रखना, बर्तन धोना, भाई बहनों की देखभाल करना… पता ही नही चला कि कब नन्ही-सी बालिका अपना बचपन भूल छोटे भाई बहनों की माँ बन गई ।
मेरी अम्मा ने बहुत साथ दिया हमारा । कड़ी नजर रखती थी हम पर । पढ़ी लिखी नहीं थी फिर भी अक्सर हमारी कॉपी किताबें चेक किया करती कि कहीं इसमे कोई लव लैटर तो नहीं! बाहर बन्नी पर तो बिलकुल नहीं खड़े होने देती थी ताकि हम इधर उधर न देखे और कोई हमें न देखे ! पूरे दिन का हाल हवाल पूछती । कोई सहेली भी आती तो छुप छुपकर हमारी बातें सुनती । उन्हें सदा हमारी चिंता लगी रहती कि बिन माँ की बेटियाँ बिगड़ न जाएँ ।
कई बरस पहले 14 फरवरी वैलेंटाइन वाले दिन 102 साल की उम्र में अम्मा चली गईं । वो तो अभी भी नहीं जाना चाहती थी ! अभी हमारे साथ जीना चाहती थी ।
सच बताऊँ मम्मी के जाने के समय हम भाई बहन बहुत छोटे थे, अम्मा ने हमें संभाल लिया । अब अम्मा के जाने के बाद सँभलना थोड़ा मुश्किल लग रहा था ।
मम्मी के जाने के बाद पापाजी ने खुद को हमारे पालन-पोषण और अम्मा की सेवा में पूर्ण समर्पित कर दिया । अम्मा पापाजी के हर सुख-दुख की साथिन थी… एक कर्मठ और जुझारू महिला । उनके बारे में संस्मरण तो क्या उपन्यास लिखा जा सकता है।
अंजू खरबंदा