शहर की एक पॉश सोसाइटी में अर्जुन अपने परिवार के साथ एक आलीशान बंगले में रहता था। चमचमाती फर्श, वॉइस कंट्रोल लाइट्स, होम थिएटर, स्मार्ट किचन—घर में हर सुविधा मौजूद थी। पर इस आधुनिकता के बीच घर के एक कोने में चुपचाप रहते थे अर्जुन के माता-पिता—रमा और सविता।
रमा अब 75 के हो गए थे, आंखों पर मोटा चश्मा, कमज़ोर घुटनों और शांत स्वभाव के साथ। कभी जिन कंधों ने अर्जुन को उठाकर चलना सिखाया था, आज वही कांपते हाथ अकेले बैठकर अख़बार पलटते रहते। अर्जुन एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर मैनेजर था—हमेशा व्यस्त, मोबाइल और लैपटॉप में उलझा। पत्नी निधि भी सोशल लाइफ में व्यस्त थी और बच्चे मोबाइल गेम्स व ऑनलाइन क्लास में खोए रहते।
रमा और सविता का वहाँ सिर्फ “होना” था, “होने का अहसास” किसी को नहीं था।
एक दिन पास की ही सोसाइटी में एक घटना हुई। अर्जुन के पुराने दोस्त नितिन के पिताजी का हार्ट अटैक से निधन हो गया। नितिन शहर से बाहर था, और बुज़ुर्ग अकेले थे। तीन दिन तक किसी को पता नहीं चला कि वे इस दुनिया में नहीं रहे। जब पड़ोसियों ने बदबू और सन्नाटा महसूस किया तब जाकर दरवाज़ा तोड़ा गया।
अर्जुन उस अंतिम यात्रा में शामिल हुआ। वहाँ नितिन फूट-फूटकर रो रहा था—”काश मैंने उन्हें वक्त दिया होता… काश मैंने फोन उठा लिया होता जब उन्होंने आख़िरी बार कॉल किया था।”
वहीं खड़े अर्जुन के भीतर कुछ टूट गया। उसके कानों में रमा की शांत आवाज़ गूंज उठी—
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“बेटा, मेरी आत्मा को दुखी कर तुम कभी सुख से नहीं रह सकते।”
उसी शाम अर्जुन चुपचाप अपने पापा के पास जाकर बैठ गया। पहली बार उन्होंने बिना कुछ कहे उनका हाथ थामा। रमा ने उसकी ओर देखा, आँखों में आंसू थे—लेकिन इस बार सन्नाटे के नहीं, उम्मीद के।
अर्जुन ने निर्णय लिया—
“अब से हर दिन की शुरुआत माँ-पापा के साथ होगी।”
उसने उनका कमरा बंगले के बीच में शिफ्ट किया, उनके लिए नया बिस्तर, आरामदायक कुर्सी, और दीवार पर वो पुरानी तस्वीरें लगाईं जिनमें पूरा परिवार साथ था।
वो शामें जो अब तक मोबाइल में गुम होती थीं, अब दादी की कहानियों और दादा की हँसी से भरने लगीं। अर्जुन ने बच्चों को दादाजी के साथ बैठने की आदत डलवाई। निधि भी अब सविता के साथ रसोई में बैठ चाय पीती और उनके अनुभव सुनती।
एक रविवार को अर्जुन ने पूरे परिवार को एकत्र कर कहा—
“हमने बहुत कुछ पाया है—नाम, पैसा, सुविधाएं… लेकिन अब हम वो पा रहे हैं जो सबसे जरूरी है—अपनापन।”
रमा ने मुस्कराकर कहा—
“बेटा, अब तसल्ली है। अब मेरी आत्मा दुखी नहीं, शांत है।”
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संदेश:
आज की भागदौड़ और आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम अपने ही बुज़ुर्गों को पीछे छोड़ देते हैं, जिन्हें हमारी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। बुज़ुर्गों की सेवा महज़ कर्तव्य नहीं, आत्मा का कर्ज है। इसे समय रहते चुका देना ही सच्चा सुख और संतोष देता है।
लेखिका : दीपा माथुर
#मेरी आत्मा को दुखी कर तुम सुखी नहीं रह सकती हो