अजय ,विजय पूरे दो साल बाद अपने माँ बाप से मिलने मुंबई से आये थे।जब से दोनों भाइयों की नौकरी मुंबई में लगी थी,माँ बाप से मिलने का टाइम मिल ही नहीं पाता थ। रेबती व सुधाकर उनके मां बाप थेजो गांव में रहते थे। गाँव में अपनी ज़मीन थी,खेतीबाड़ी करके दोनों का गुज़ारा बहुत आराम से हो जाता था।बल्कि जब भी दोनों भाई आते रेबती उनकी पसंद के पकवान बना कर खिलाती,बापस जाने पर ढेर सारी चीज़ें उनको दे देती कि वहाँ मुंबई में तो सारी चीजें बहुत मंहगी हैं और मिलाबटी भी।यह सिलसिला जब तक चलता रहा जब तक उन दोनो की शादी नहीं हो गई।
शादी भी दोनों भाइयों ने अपने साथ पढ़ती अपनी पसंद की लड़कियों से कर ली थी।रेबती व सुधाकर ने अपने मन को यह सोच कर समझा लिया था कि बदलते वक़्त का ही शायद तक़ाज़ा है आजकल बच्चे अपनी पसंद से ही शादी करते है।फिर मां-बाप को उन्हें स्वीकार करना ही पड़ता है बच्चों की खुशियों की खातिर।
चलो दोनों का घर बस गया था,यही जान कर खुश थे कि इस बार तो जब भी अजय ,विजय का आना होगा तो उनकी बहुएं भी साथ में आएँगी ,यही सोच कर दोनों बहुओं के लिए कुछेक गहने भी बनवा लिये थे । शायद मां की ममता ऐसीही होती है। प्यार से सराबोर।
लेकिन इस बार भी जब दोनों बेटे अकेले ही उन दोनों से मिलने आऐ तो रेबती ने मन ही मन सोचा कि शायद इस बार ये दोनो भाई हम लोगों को अपने साथ ले जाने को कहेंगे।क्योंकि उनको मालूम है कि मुझे मुंबई देखनेका कितना चाव है। सिर्फ फिल्मों में ही मुंबई के नजारे देखे है।
रेबती ने सुधाकर से सलाह की कि मैं तो कहती हूं कि उन लोगों के आने से पहले हम दोनों को कुछेक जोड़ी कपड़े मुंबई के हिसाब से बनवा लेने चाहिए, ये गांव में पहनने वाले कपड़े वहां मुंबई में थोडे ही अच्छे लगेंगे।फिर हमारी पढ़ी-लिखी आधुनिक बहुऐ ंभी हमारे बारे में क्या सोचेंगी।आखिर हमारा भी तो कुछ आत्मसम्मान है कि नही।
हे भगवान,कुछ पेपर बगैरह पढ़ती हो या नहीं।आजकल के बच्चे अपने मां-बाप को साथ में रखते ही कहां है,बहुत हुआ तो कुछ रूपया पैसा देकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।यदि कोई अपने मां-बाप को साथ रखने की हिम्मत कर भी ले तो उन की आधुनिक पत्नियां सास ससुर को किसी नोकर से अधिक तवज्जो नहीं देती।आए दिन तो कथा कहानियों व फिल्मों में यही सब दिखाते हैं।सुधाकर ने कहा।तू सच में बहुत भोली है रेबती।अभी तक अपने बच्चों को नही समझ पाई या तू फिर उनके प्यार में अंधी है जो ऐसे सपने देख रही है, मुंबई जाने के।मै तो कहता हूं अपना घर जन्नत है,गांव की शुद्ध आबोहबा, प्योर बिना मिलाबट बाली चीजें , आस-पड़ोस का अपनापन।ये सब मुंबई में कहां,जितना बड़ा शहर उतनी ही मंहगी चीजें वे भी मिलाबट वाली। पता नहीं क्यों सपना पाल कर बैठी है मुंबई जाने का।बहां तो सुना है पड़ोस में रहने वाले भी ंएक दूसरे को नहीं जानते।सब अपनी अपनी जिंदगी जीते हैं बस पैसे के पीछे भागते रहते हैं।
मेरा कहा मान तू येसरूपा के सत्तू‘‘बनाना बंद करदे। अधिक उम्मीद भी निराशा व दुख का कारण बन जाती है।जब वे दोनों तेरे लाड़ले आयेंगे तब की तब देखेंगे,पर पहले आने तो दे उनको।
पूरे दो साल बीतने को होरहे थे कि दोनों में से एक भी बेटा मां बाप से मिलने नही आया।जब रेबतीको उनकी याद आती किसी पी सी ओ बूथ से दोनों बच्चों से बातचीत कर लेती।वे जब भी कहती बेटा तुम लोगों की बहुत याद आती है। हम उम्र दराज मां बाप से मिलने का थोड़ा समय तो निकाल लिया करो, आंखें तरस जाती हैं तुम दोनों को देखने के लिए।उनकी बात खत्म होते ही बेटों का रट रटाया जबाव सुनाई देता ओह!मां आप भी न जाने कैसी बातें करती हैं हम लोग कोई छोटे बच्चे थोड़े ही हैं।हमारे पास ऑफिस के ढेर सारे काम होते हैं फिर हमारा ध्यान रखने को आपकीबहुऐ हैं वे हमारा ध्यान ठीक से रख लेती हैं । आप हमारी चिंता मत किया करो।आज के काम काज भरी व्यस्त लाइफ़ में इन भावुकता पूर्ण बातों के लिए समय ही कहां है।हां अगले महीने मैं व छोटे आप लोगों के लिए कुछ रुपए भेज देंगे। हां गांव आना कब तक हो पायेगा,कहना बहुत मुश्किल है।कहकर उनके बेटेअजयने फोन काट दिया।मन ही मन सोचने लगी क्या रूपया पैसा इन्सान की जगह ले सकता है, नहीं न ।फिर पता नहीं आज की आधुनिक पीढ़ी को क्यों लगता है कि उनके मां बाप को सिर्फ उनके पैसों की जरूरत है।
भौतिक वादी युग में संबेदनाऔ की कोई जगह क्यों नही रह गईं है।जो पेरेंट्स अपना तन मन धन सब कुछ निछावर करके इन बच्चों के उत्तम भविष्य की चिंता में अपनी भूख प्यास सब भूल जाते हैं, क्या सिर्फ इसी दिन के लिए कि बड़े होकर ये मां बाप की अबहेलना करें।
फोन बूथ से बापिस ‘आने पर जब पति सुधाकर ने पूछा कि क्या कहा , तुम्हारे लाड़ले बेटों ने कब आरहे है हम लोगों से मिलने।
हां जल्दी ही आंऐगे, रेबती ने बात बदलते हुए कहा, आप परेशान क्यों होते हो इतना। अच्छा चलो मैने आजआपके पसंद का बैंगन का भरता बनाया है,चलों हाथ मुंह धोलो खाना खाकर कुछ देर आराम करलेना। फिर मुझे कुछ देर के लिए अपनी सहेली दमयंती के पास जाना है,उसने कुछ नया कसीदा किया है वहीं दिखाने के लिए बुलाया है।
जब रेबती दमयंती के यहां से लौटीं तो उसका मन एक नई उर्जा से ओतप्रोत था। दोनों सहेलियों ने मिलने पर एक दूसरे से अपने अपने घर परिवार व बच्चों के बारे में बातचीत की।रेबती ने कहा,आजकल मेरा मन बहुत उदास है किसी काम में मन नहीं लगता,हर समय बच्चों की याद आती रहती है।पूरे तीन साल हो गए हैं इस बार वे दोनों हम लोगों से मिलने ही नहीं आए। पता नहीं किस हाल में होंगे।
अच्छा ,छोड़ ये सब बातें,ये कहानी तो आजकल घर घर की है।तू यह देख मैने कितना सुन्दर कसीदा करके एक बैडकबर बनाया है, और जानती है यह बैडकबर एक दुकानदार ने पूरे एक हजार में खरीद भी लिया है।
हुआ यों कि जब उस दिन मैं यह कसीदा कर रही थी तो उसी समय इनके एक दोस्त का आना हुआ,मैं यह कसीदा वहीं छोड़ कर उनके लिए चाय बनाने रसोई में आई,इस बीच उन्होंने इस कसीदा को देखते हुए कहा कि अरे आज-कल इस तरह के हाथ की कसीदाकारी की मार्केट में बहुत डिमांड है।मेरा एक दोस्त इस तरह की हस्तकला का मुरीद है ,वह इन चीजों को खरीद कर विदेश में बेचता है।
क्या इस तरह की और चीजें बना कर आप लोग हमें दे सकते हैं।आप लोगों को घर बैठे कमाई का जरिया मिल जायगा । जानती है मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ पर कहते हैं न हीरे की पहचान उसके पारखी को ही होती है बाकी लोगों के लिए तो वह महज एक पत्थर ही होता है।
मुद्दे की बात यह है कि तू भी तो इस कला में माहिर है तो ऐसा करते हैं अपने आसपास की कितनी ही ऐसी महिलाएं हैं जो एकदम मस्त कसीदा व पैच वर्क करने में माहिर हैं।फिर हम लोग पहले कुछ नायाब नमूने बनाकर गांव के मेले में रखेंगे।इस मेले में दूर दूर से लोग आते हैं यदि हमारी कला लोगों को पसंद आई तो १० -१२ औरतों का एक समूह बना घर एक लघु उद्योग जैसाखोल लेंगे।जानती है इस उद्योग कानाम रखेंगे ख़ुशी एनटरपराइज। हम अपनी खुशियों के लिए बच्चों पर कब तक निर्भर रहेंगे।ये खुशियां सिर्फ हमारी होगी इन पर सिर्फ हमारा अधिकार होगा।
घर बापस आने पर रेबती ने सारी बातें सुधकर को बताई।सुधाकर ने खुश होकर कहा,ये हुई न कोई बात अब कम से कम अपनी खुशियों केबारे में तो सोचेोगी, नहीं तो तुम्हारी जिंदगी तो हमेशा बच्चों के इर्द गिर्द ही घूमती रहती है। मार्केट का काम में व दमयंती केपति सम्हाल लेंगे,तुम लोग तो बस नई नई डिजाइन के बैडकबर ,कुशनकबर व इसी तरह कीअन्य चीजें बनाकर तैयार करना।
कुछ सखियों के द्वारा मिल घर शुरू किया शाम मात्र ७ महीने में खूब फलने फूलने लगा।इन सखियों ने इसका नाम रखा, खुशी एनटरपराइज। रेबती अब अपने बिजनेस की हैड थी और पूरी तरह व्यस्त थी अपने काम को आगे बढ़ाने में।
समय अपनी गति से बीतता रहा,रेबती की खुशियों को भी पंख लग गए थे ।इन दिनों हर समय वह कुछ नया डिज़ाइन बनाने के बारे में सोचती फिर अपनी टीम के साथ बातचीत करके उस डिजाइन को मूर्त रूप देती।इस सब व्यस्तता के कारण बच्चों का ध्यान उसके मन से निकल गया था।
काफी टाइम के बाद जब बच्चों ने गांव का रूख किया तो देखा कि उनके घर के दरवाजे पर खुशी एनटरपराइज का बोर्ड लगा है।बेटों ने आश्चर्य से पूछा कि मां ये खुशी कौन है?और ये बोर्ड पर यह नाम क्यों लिखा है।और आप तो पहले से कहीं अधिक हष्ट-पुष्ट दिख रही हो और आपका चेहरा भी चमकरहा है। क्या कोई लॉटरी खुल गई है आपकी।
हां कुछ ऐसा ही समझ लो तुम लोग,अब मेरे घर में खुशियों ने दस्तक दे दी है जिन पर सिर्फ मेरा अधिकार है अतः मैंने तुम लोगों काधन्यवाद करना चाहती हूं कि मुझे मेरी खुशी से मिलबाने थे लिए।आज तक तो मैं सिर्फ तुम लोगों व तुम्हारी खुशियों के बारे में ही सोचती रही। परंतु अबऔरनही।है।मेरी खुशी मेरे साथ है #जिस पर सिर्फ मेरा अधिकार है ,#यह खुशी कोई तुम्हारे पिता की जायदाद नहीं है जिसके तुम हकदार बनो।
मेरी खुशियों पर सिर्फ मेरा अधिकार है,तुम लोग बापस जासकते हो। मां आप इतनी कठोर कैसे हो सकती हो अपने बच्चों के प्रति। ये कठोरता बच्चों तुम लोगों ने ही दी है मुझे।अब मैं अपनी खुशी के साथ बहुत खुश हूं।
स्व रचित व मौलिक
माधुरी गुप्ता