दीवाली से कुछ दिन पहले ही हमारे सब दोस्तों के यहाँ ताश के सेशन शुरू हो जाते थे। दिवाली के अगले दिन अन्नकूट पर मैं सब को इनवाइट कर लेती थी।सारा खाना 56 भोग बड़े शौक़ से तैयार करती थी।हमारा छःसात फ्रेंड्स का ग्रुप था। सभी अपने परिवार सहित आते थे। कुल मिला कर 30-35 लोग हो जाते थे।लंच और शाम की चाय स्नैक्स खाने के बाद हम सब flash खेलते थे। बहुत मज़ा आता था। हर game के बाद जीते गये पैसों में से सौ रुपये निकाल कर अलग रख लेते थे।जब पांच छः हजार इकट्ठे हो जाते तो dinner बाहर से order कर देते थे।रात को दो तीन बजे तक महफ़िल चलती रहती।आठ दस साल तो ऐसे चलता रहा। फ़िर मेरे घुटनों में दर्द रहने लगी। मैंने उनको घर पर बुलाना छोड़ दिया।बहुत थक जाती थी मैं।
उनके जाने के बाद सब बर्तन समेटना।पूरा घर फैला होता था।
tv के remote नहीं मिलते थे।उनके बच्चे dressing टेबल की drawers खोल कर सब लिपस्टिकस तोड़ देते थे।bathrooms का बुरा हाल हो जाता था। दो दिन तो घर समेटने में लग जाते थे। maids भी थीं मगर सब अपना काम करके चली जाती थीं। कोई भी देर रात तक रुकने को राजी नहीं होता था। विश्वकर्मा पर वैसे भी सबको छुट्टी चाहिये होती थी। जब तक हिम्मत थी मुझमें मैं, करती रही।
जब बुलाना छोड़ दिया तो सब लोग जब दिवाली पर गिफ्ट देने आते तो बीते दिनों को याद करते। कहने लगे “भाभी जी, हम बहुत मिस करते हैं वो दिन।इस बार अन्नकूट पर जरूर बुलाना। आपको कुछ करने की जरूरत नहीं।हम सब अपने अपने घर से कुछ न कुछ बना लायेंगे”। प्रोग्राम फिक्स हो गया।सारा menu लिखा।
मैंने औपचारिकता वश उनको बनाने से मना किया कि नहीं मैं बना लूंगी।
लेकिन सब जोर देने लगे तो मैंने अपनी दो friends को पूरी बनाने का काम सौंप दिया।
मैंने कहा आप दोनों पचास पचास पूरी बनाकर ले आना।
एक फ्रेंडको snacks लाने थे।दूसरे को cold drinks ,तीसरे को रायता और sweet dish।मुझे सारी सब्जियां और चावल बनाने थे।
अन्नकूट पर मैं बहुत ख़ुश थी कि मुझे अकेले सब नहीं करना पड़ेगा।
सुबह 11बजे तक सबने आना था।
सुबह 9 बजे ही एक दोस्त का फोन आ गया कि sorry हम आज़ नहीं आ सकेंगे भाभी जी क्यूंकि अमिता के भाई ने हमें अपने घर आने का न्योता दिया है। हमारा ताश का प्रोग्राम वहीं पर होगा।
थोड़ी देर बाद एक और दोस्त का फोन आ गया कि आज़ बेटे की तबियत ठीक नहीं,हम नहीं आ पायेंगे।
तीसरे ने कहा कि आज़ मंदिर में अन्नकूट का भंडारा है ,मेरी duty वहाँ लगी है।
धीरे धीरे सब ने कोई न कोई बहाना करके पीछा छुड़ा लिया।
सच में किसी के यहाँ महमान बन के जाना कितना आसान लगता है।और कुछ करना पड़ जाये तो सब पीछे हट जाते हैं।
अनु मित्तल “इंदु”