आरती ने जैसे हीं ये खबर सुनी वो तो वहीं अचेत हो गई।
पास खड़ी सास जल्दी से आरती को पकड़ कर होश में लाने का प्रयत्न करने लगी।
दुःख से तो उसका भी कलेजा फटा जा रहा था, बेटे को खोने का दुःख इतना गहरा था कि उसको तो जैसे काठ मार गया।
नन्हे-नन्हे बच्चों का रो रो कर बुरा हाल था।
आस-पड़ोस वालों का तांता लग गया।
कैसे हुआ?? क्या हुआ?? कब हुआ???
आरती और उसकी सास को तो कुछ भी पता नहीं था।
आरती के मायके वाले भी तुरंत पहुंच गये।
बेटी के इस अथाह दुःख से सबके कलेजे फटे जा रहे थे।
मां और भाभियों ने तुरंत आरती को संभाल लिया।
पिता और भाइयों ने बच्चों को सांत्वना दी।
इस विपदा की घड़ी में आरती को तो जैसे मैके वालों का हीं सहारा रह गया क्यों कि ससुराल में कहने को तो बड़ा परिवार था मगर सबके परिवार बंटे हुए थे।
तेरहवीं बीतते हीं आरती के मैके वालों ने उसे अपने साथ चलने की जिद करने लगे।
आरती कुछ भी कहने सुनने की स्थिति में नहीं थी,अपना भला-बुरा सब उसने अपने पिता और भाइयों पर सौंप दिया।
उस परिस्थिति में उसे वहीं अपने सबसे बड़े हितैशी नजर आ रहे थे।
आखिरकार पिता और भाइयों के कहने पर आरती अपना ससुराल छोड़ मायके में आ बसी।
उसे तो यह भी होश नहीं रहा कि, इतनी बड़ी जिंदगी क्या मायके की गलियों में कट जाएगी।
समय अपनी रफ्तार से चलता रहा साल-दर-साल बीतते गये।
जिस बेटी और उसके बच्चों को बड़े शौक से लाए थे उसी बेटी के कारण बहूओं में द्वंद छिड़ गया।
घर के बढ़ते खर्च से बात झगड़े और बंटवारे तक पहुंच गयी।
घर बंट गए खेत जमीन बंट गया यहां तक कि माता-पिता भी बंट गए।
अब आरती को कौन रखें ये सबसे बड़ा सवाल था।
इतने सालों में आरती ने भी ससुराल जाकर अपना घर-परिवार देखने और संभालने की कोशिश नहीं की।
आज मायके की गलियों में उसे एहसास हो रहा था कि दुःख की घड़ियों में संयम और समझदारी से काम ना लेकर उसने कितनी बड़ी भूल कर दी।
जिन घर में उसका बचपन बीता था उसी घर में किराए का कमरा लेकर रहने लगी।
एक छोटी सी दुकान खोल लिया और बच्चों का निर्वाह करने लगी।
आज उसे एहसास हुआ कि मायके की गलियों में तभी तक शुकून है जब तक अपना ससुराल और सुहाग साथ है वरना ये मायके की गलियां कांटों से भरे जंगल से कम नहीं होती।
एक बेटी के लिए मायके और ससुराल दोनों हीं जरूरी हैं।
स्वरचित –
डोली पाठक
पटना बिहार