रात के 11 बज रहे थे। पत्नी और बच्चे सो चुके थे, मैं अभी भी अपने ऑफिस का काम कंप्यूटर पर चैक कर रहा था। काम करने के बाद कंप्यूटर बंद करने से पहले यह मेरी आदत ही थी कि मैं व्हाट्सएप पर मैसेज देखता था। अपनी सोसाइटी के वेलफेयर एसोसिएशन के ग्रुप में मैसेज चेक कर तो देखा सारे लोग आर. आई.पी. या कुछ भी लिखकर श्रद्धांजलि अर्पित कर कर रहे थे।
इस व्यस्त युग में श्रद्धांजलि अर्पित करने का यह तरीका सही भी है वरना सुबह से रात तक समय ही कहां मिलता है? यूं ही उत्सुकता जागृत हुई तो मैंने मैसेज देखना चाहा कि यह श्रद्धांजलि अर्पित कैसे की जा रही है? देखा तो घर के नम्बर के साथ चंदा देवी की मृत्यु का शोक समाचार राजेश अवस्थी द्वारा लिखा गया था।
तभी मन में अचानक ख्याल आया कि चंदा देवी मेरे दूर के रिश्ते में बूआ लगती थी। कभी पिताजी के साथ गांव गया था तो मैं उनसे मिला भी था। वह गांव से कब यहां आ गई यह मुझे नहीं पता। बहुत साल पहले यहां पर घर लेने के समय में उनके बेटे राजेश अवस्थी से मिला तो था।
यह तो मुझे पता था कि उसने इसी सेक्टर में मकान ले लिया। एक दो बार समिति की ही किसी मीटिंग में वह मुझे दिखा भी था। बहुत समय से मैं उससे मिला नहीं था। मुझे नहीं पता कि बुआ जी गांव से कब उसके पास आ गई होंगी हालांकि मुझे तो ख्याल था कि उसके बेटे का इंजीनियरिंग में चेन्नई में एडमिशन होने के बाद वह खुद भी चेन्नई ही चला गया था परंतु अभी यह शोक समाचार देखकर कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ होगा?
हालांकि अब मेरे पिताजी और माताजी भी इस दुनिया में नहीं है लेकिन फिर भी मन में सामाजिक जिम्मेदारी प्रतीत हुई कि मैं केवल विनम्र श्रद्धांजलि लिखकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं होउंगा अपितु मुझे राजेश के घर भी जाना चाहिए। सुबह पत्नी को सूचना दी तो पत्नी ने कहा
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मैं तो उसे लाइन में किसी को जानती नहीं और आप ही हो आइए अगर जरुरत हुई तो क्रिया पर मैं आपके साथ चली चलूंगी। उस दिन तो मैं अपनी व्यस्तताओं के कारण नहीं जा सका वहां जाने का कार्यक्रम मैंने अगले दिन के लिए स्थगित कर दिया था।
उससे अगले दिन इतवार को जब मैं उनके घर पहुंचा तो मेरा ख्याल था इतवार को और भी बहुत से लोग वहां पर आए हुए होंगे लेकिन उस घर के सामने तो बिल्कुल सुनसान था मुझे लगा शायद यह घर ना हो ,एक बार फिर से मोबाइल खोला और एड्रेस देखा तो घर का वही नंबर था और घर के बाहर अवस्थी भवन भी लिखा हुआ था।
अजीब तो लग रहा था लेकिन फिर भी मैंने घर की बैल बजाई तो एक औरत ने दरवाजा खोला। वह घर की सहायिका ही लग रही थी। मैंने उनसे पूछा कि चंदा देवी यहां ही रहती थी घर में कौन है? उस महिला ने मुझसे पूछा आप उनके कौन लगते हैं? मैंने जवाब दिया वह मेरी बुआ जी लगती थी?
अंदर भाई साहब है क्या? मेरे इस सवाल के जवाब में वह महिला बोली आप अपनी बुआ जी से मिले थे कभी? बड़ा अटपटा सा लगा और उस महिला का बोलने का इतना गंदा तरीका सुनकर अपने आप पर गुस्सा आ रहा था की क्यों मैं सामाजिक बनने को चला। वह महिला बोली पिछले दो महीने से आपकी बुआ जी बिल्कुल अकेली बिस्तर पर ही थी।
मैं ही केवल उनके साथ थी। कोई भी उनको पूछने या देखने बाहर से नहीं आया। आपके भाई साहब भी आपकी बुआ जी की मृत्यु के बाद ही आए हैं। अभी वह उनके फूल लेकर गंगाजी गए हुए हैं। अगर इतना ही प्यार अपनी बुआ जी से कुछ दिन पहले दिखा दिया होता
तो वह दरवाजे की ओर देखते हुए पथराई आंखों से न मरती। मैं अकेली कितनी परेशानी में रही मुझे ही पता है। कोई भी आसपास से उनसे मिलने भी नहीं आता था। वह महिला लगातार मुझको सुनाए जा रही थी। मैं फिर आऊंगा, कहते हुए पीछे को मुड़ गया और अपने घर की और चला।
आज के इस व्यस्त युग में ऐसा भी हो सकता है। एक एक शब्द मेरे कानों में गूंज रहा था और मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं दोषी कैसे हूं? बहुत ग्लानि हो रही थी।मैंने उनके घर मातम पुर्सी के लिए जाकर गलती करी या कि अपने आसपास के लोगों के दुख सुख को न जानने की गलती करी?
पाठकगण आपका इस विषय में क्या ख्याल है अगर हालात और व्यस्तताएं ऐसे ही बढ़ती गई तो ऐसा हादसा किसी के भी साथ हो सकता है।
लेखिका : मधु वशिष्ठ