Moral Stories in Hindi : अरे मंजुला तुझे क्या बताऊं, मेरा बेटा तो शादी के बाद विल्कुल बदल गया । अब तो उसे कल की आई वह छोरीऔर ससुराल वाले ही सब कुछ लगे हैं। छोटे-छोटे काम के लिए हर समय मुझे आवाज देता रहता था अब उसे मेरी जरूरत ही नहीं है। ये सब बीना जी बोल रही थीं जिनके बेटे की शादी अभी छ: माह पहले ही हुई थी।
अब मंजुला जी के कान सतर्क हो गए यह सब सुनकर क्योंकि नौकरी लगने के बाद उनके बेटे अंश के भी रिश्ते आ रहे थे। तभी सरिताजी बोली देख मंजुला अब तेरा बेटा भी शादी लायक है सोच समझ कर लड़की पसन्द करना कहीं ऐसा न हो तेरा बेटा भी हाथ से निकल जाए।
वीना जी बोली ये आजकल की लडकियाँ बड़ी व्यवहारिक होती हैं। अपने मायके वालों को झुकने नहीं देना चाहती। वे अपने माँ-पिता का भी वही सम्मान चाहती हैं जो लड़के के माता पिता का होता है।
मंजुला जी बोली तो उसमें बुरा क्या है। हमारी तरह थोड़ी कि आंखों के सामने ही माता-पिता का अपमान रोज सहते थे, कितना बुरा लगता था।
सरिता जी बोली मंजुला कहना आसान है जब खुद पर बीतती है तो सहना मुश्किल होता है. अतः थोडा शुरू से ही सर्तक रहना चाहिये । तीनों सहेलियां शाम पार्क में बातचीत में मग्न थीं।घर आने के बाद मंजुला जी कानों में उनके ही शब्द गूंजते रहे।
कुछ समय पश्चात् उन्होंने अंश के लिए आए रिश्तों में से एक लड़की मंशा पसंद कर ली। वहअपने मां-बाप की इकलौती संतान थी। सारी बातें होने के बाद मंशा बोली आंटी कुछ भी तय होने पहले में आपसे एक बात कहना चाहती हूं इजाजत है आप की।
हां हां बेहिचक कहो न बेटा मंजुला जी बोलीं।
एक सिक्के के दो पहलू – डॉ संगीता अग्रवाल : Moral stories in hindi
आंटी एक विनम्र निवेदन हैं कि में अपने माँ-पिता की इकलौती बेटी हूं अभी इनकी सार सम्हाल का जिम्मा मेरा है और आगे भी करूंगी तो शादी के बाद मुझे इस काम के लिए रोका न जाए। मेरे माता पिता मेरी जिम्मेदारी हैं , और में चाहूंगी अंशजी एवं आप सब मुझे सहयोग देंगे।
मंजुला जी बोलीअरे इसमें पूछना क्या है
जैसा तुम करना चाहो करती रहना हमें कोई आपत्ती नहीं है, क्यों अंश बेटा तुम क्या कहते हो।
अंश मुझे तो कोई परेशानी नहीं है । अंश के पापा बेटा तुम बेफिक्र रहो तुम्हें कोई नहीं रोकेगा ।
बस फिर क्या था दो माह में मंशा ,मंजुला जी की बहू बन कर आ गई।वह बड़ी खुशमिजाज एवं सुलझी हुई थी सो उसने जल्द ही सबका दिल जीत लिया ।वह जितना होता सुबह मंजुला जी की काम में मदद करा कर आफिस जाती लौटते में कभी मम्मी-पापा से मिलती आती। आकर फिर शाम के खाने की तैयारी में जुट जाती।
छुट्टी वाले दिन कभी अंशभी कुछ समय के लिए उसके साथ चला जाता। कभी घर में ज्यादा व्यस्त होती तो स्वयं न जा कर अंश को बोल देती – बाजार से लौटते वक्त मम्मी के पास होते आना कोई जरूरत हो देख लेना। अंश भी हां बोलकर निकल जाता।
यह सब देखकर अब मंजुला जी को अच्छा नहीं लगता । उन्हें लगता बेटा तो ससुराल का हुआ जा रहा है। रोज-रोज जाना अच्छा लगता है क्या। सहेलियों की बातें उनके कानों में गूंजती कि शादी के बेटा हाथ से निकल जाएगा ।एक दिन मौका पाकर उन्होंने अंश को अपने पास बैठाया और बोली बेटा एक बात तुमसे कहनी है।
कहो न माँ इतना क्या सोच रही हो, मंशा ने कुछ कहा है आपसे। अरे नहीं बेटा वह तो बहुत अच्छी है सबका पूरा ध्यान रखती है उससे कोई शिकायत नहीं है।
फिर क्या परेशानी है आपको बतायें। बेटा ये तेरा रोज-रोज ससुराल जाना अच्छा लगता है क्या। तू जमाई है उस घर का जरा जमाई के ठसके से रह। रोज रोज जाने से इज्जत कम होती है।
मम्मी आप किस जमाने में जी रही हैं। क्या ठसक दिखाऊं उन्हें, वे मंशा के माता-पिता हैं मेरे लिए उतने ही सम्मानीय है जितने आपलोग । अब कोई फर्क नहीं है। जब मंशा आपको माता- पिता मान चुकी है, आप लोगों की मन से इतनी सेवा करती तो मैं उसके मम्मी-पापा को क्यों नहीं सम्मान दे सकता , क्यों अपना नहीं सकता। उनकी मदद उरने से मेरा कैसा अपमान। मम्मी अब सोच बदल चुकी है। जैसे मंशा आपकी बहू से बेटी बन चुकी है वैसे ही मै भी जमाई से बेटा बन चुका हूँ।
नहीं बेटा ये तू गलत बोल रहा है, मंशा तो बहू है उसका तो कर्तव्य है ससुराल वालों की सेवा करना किन्तु जमाई तो ससुराल में सम्मानीय होता है उसका आदर सत्कार किया जाता है , उससे काम नहीं कराया जाता।
क्यों माँ जब बहू का कर्तव्य है तो जमाई का क्यों नहीं। आप ये बाते किस जमाने की कर रही है। आज जब बेटे-बेटी में फर्क न कर माता पिता दोनों को एक समान पालते हैं, समान शिक्षा दिलाते हैं फिर बेटे-बेटी है कर्तव्य में फर्क कैसा । आज बेटी भी अपने पैरों पर खडी होती है तो वह अपने माता पिता के प्रति जिम्मेदार क्यों नहीं हो सकती. अभी तो मंशा के माता-पिता आर्थिक रूप निर्भर हैं सो पैसों से मदद नहीं लेते अन्यथा वह भी करनी पड़ती तो भी मैं मंशा को कभी मना नहीं करता । जितना खर्च आपने मेरे ऊपर किया है मुझे योग्य बनाने के लिए उतना ही मंशा के पापा-मम्मी ने भी किया है। मेरे बराबर ही कमाती है फिर उस पर बंधन कैसा।
पर फिर भी बेटा ये सामाजिक नियम है जो बर्षों से चले आ रहे हैं, उन्हें तो मानना ही पड़ता है।
कैसे नियम मम्मी पती-पत्नी का बराबरी का रिश्ता है तो पत्नी और उसके माता-पिता को छोटा क्यों समझा जाए उन्हें पूर्ण इज्जत और सम्मान क्यों नहीं दिया जाएं। याद करो माँ जब नाना ,मामा हमारे यहाँ आते थे तो दादा-दादी उन्हें कितना जली कटी सुनाते थे। पापा भी उनसे सम्मान पूर्वक बात न करके अपने जमाईवाले अहम् में रहते थे। उन्हें कितना बुरा लगता था। उन्हें अपमानित होते देख आपको भी कितना बुरा लगता था। आप भी कितना रोती थीं। चाहती थीं कि वे कभी यहाँ न आएं किन्तु आपस में मिलने का मोह उन्हें फिर खींच लाता था। फिर वही सब दोहराया जाता था. यह सब आप भूली नहीं होंगी।
हां बेटा कैसे भूल सकती हूँ अपने माता-पिता काअपमान, आज भी वह दृश्य आंखों के आगे जाता है ।
तो फिर माँ आप अब भी मंशा की स्थिति नहीं समझना चाह रही हो । सोचिए मां मंशा कितने निश्चल भाव से हमारे परिवार का ध्यान रखती है तो अगर मैं थोड़ा बहुत उसके माता-पिता के लिए करता हूं तो इसमें मेरा कैसा अपमान। क्या में पापा की तरह अकड़ू जमाई बना कर मंशा को आपकी तरह रोने के लिए मजबूर करूं।
माँ छोडिये इन सब बातों को जिस जमाने में जी रहे हैं उसी अनुसार स्वयं को ढाल लेने में ही भलाई है। जमाने के साथ कदम मिला कर चलने मे ही जीवन का सुख है। माता-पिता किसी के भी हो चाहे पति के या पत्नी के दोनों ही सम्मानीय हैं।
मंजुला जी बोली शाबाश बेटे आज तूने मेरी आँखे खोल दी, सच ही कहा तूने कि मैं सास बनने के गुमान में एक बहू होने का दर्द भूल गई थी। मुझे तुम जैसे समझदार बेटे-बहू पर गर्व है जो दोनों परिवारों के सुख का इतना ध्यान रखने की कोशिश करते हो।
अब में किसी की बातें सुन अपनी घर की सुख-शांति भंग नहीं करूंगी।
शिव कुमारी शुक्ला
21-1-24
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित