सरोज जी एक बहुत ही कड़क और सख्त मिजाज महिला हैं। उनके पति की मृत्यु को दस साल बीत चुके थे। सरोज जी के तीन बेटे — रवि, अमित और दीपक थे। तीनों की शादियाँ हो चुकी थीं। जब तक सरोज के पति जीवित थे, घर एक था, भोजन साझा था और रसोई की खुशबू सबको जोड़े रखती थी। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया।
सरोज जी को अपने बेटे बहुओं को दबाकर रखने में संतुष्टि मिलती थी लेकिन अमित और दीपक, अपनी पत्नियों के दबाव में आकर अलग हो गए।
“मां बहुत दखल देती हैं, हर बात में दखल!” — बहुओं की यही शिकायत थी।
“अब हम अपने तरीके से जीना चाहते हैं…” — बेटों की यही सोच थी।
बड़ा बेटा रवि, मां का सबसे “आज्ञाकारी” बेटा कहलाता था। लेकिन सच्चाई यह थी कि रवि हमेशा मां की आड़ में अपनी पत्नी किरण के साथ दुर्व्यवहार करता था। सरोज जी ने भी अपनी बहु किरण को तकलीफ देने में कोई कमी नहीं रखी
किरण, एक सीधे-सादे गरीब परिवार से थी। शादी के बाद ससुराल ही उसकी दुनिया बन गई थी। मायके में कोई था नहीं — मां-बाप पहले ही नहीं रहे, और भाई-भाभी का रिश्ता सिर्फ औपचारिक था। तो जब रवि और उसके भाई-बहनों ने अलग होना चाहा, तो उसे अपने तीन बच्चों के साथ इसी घर में रहना पड़ा ।
समय बीता। किरन ने घर संभाल लिया। सास की सेवा, बच्चों की परवरिश, घर का हर काम — बिना किसी शिकायत के निभाया। लेकिन उसे कभी पत्नी का मान नहीं मिला, न मां की तरह आदर। और सरोज जी , उन्होंने ने किरण को बहु नहीं बल्कि हमेशा नौकारानी की तरह रखा था।
बच्चों में भी वही रवैया पनपने लगा। बेटियाँ बड़ी हुईं —
बड़ी बेटी सिम्मी, मां से ज्यादा अपने फायदे की सोचती थी, पिता की तरह आत्मकेंद्रित।
छोटी बेटी रिया, अपने उसूलों वाली थी। शादी के बाद भी मां से भावनात्मक रिश्ता बनाए रखा, लेकिन बाकी घर के लोग उससे दूरी बनाकर रखते थे। छोटी बेटी रिया को उसके घर में कोई पसंद नही करता था। रिया का अपनी मां की तरफ झुकाव था इसलिए सब उसको नापसन्द करते थे। जहां बड़ी बेटी सिम्मी की शादी एक अच्छे परिवार में की थी वहीं छोटी बेटी रिया की शादी एक बहुत ही मामूली से परिवार में की उसके पिता ओर दादी सरोज ने। वजह बस यही थी कि वो सच का साथ देती थी। इसीलिए उसको भी अपने ही परिवार की नफरत मिली हमेशा से ।
फिर वह दिन आया जब रवि के बेटे अर्जुन की शादी तय हुई। लेकिन उसके कुछ दिन बाद अचानक किरण जी के पति की मृत्यु हो गई।
कुछ समय बाद अर्जुन की शादी हो गई।
अर्जुन ने लव मैरिज की थी — एक मॉडर्न, पढ़ी-लिखी लड़की माही से।
माही के आते ही घर में एक महीने तक सब ठीक चला। लेकिन धीरे-धीरे माही को समझ आने लगा कि उसकी सास किरन की घर में कोई इज्जत नहीं है।
दादी यानी सरोज से बात करते हुए माही ने मज़ाक में कहा था,
“मुझे तो लगा था मम्मी जी घर की बड़ी होंगी, पर यहाँ तो सब फैसले आप लेती हैं।”
सरोज मुस्कुरा दी थीं, लेकिन उनकी मुस्कान के पीछे कितना विष था, यह माही को जल्द ही समझ आ गया।
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माही बहू भी बाकी परिवार जैसी निकली । मौकापरस्त और स्वार्थी। माही ने अपनी जोड़ी दादी सास यानी सरोज जी के साथ बना ली।
सरोज और माही मिलकर किरन की हर बात में नुक़्स निकालतीं।
कभी रोटियाँ पतली नहीं बनीं, तो कभी चाय में चीनी ज़्यादा हो गई।
अर्जुन, जो अपनी माँ की इज़्ज़त करना सीख ही नहीं पाया था, माही का ही साथ देने लगा।
किरन अब किसी गिनती में नहीं थी। सारे घर का काम अभी तक उनके ही जिम्मे था । बहु भी परेशान ही करती थी । देखा जाए तो किरण जी की हालत दयनीय थी उस परिवार में।
फिर एक दिन किरण के पति की बरसी पर वकील आया। उसने बताया कि यह घर किरण के पति के नाम पर है, और अब कानूनी प्रक्रिया से इसके उत्तराधिकारी तय किए जाने हैं।
अब परिवार को असली चिंता हुई —
“कहीं इस घर में किरन के नाम कुछ न हो जाए।”
“कहीं रिया… यानी छोटी बेटी भी हिस्सा न माँग ले।”
सरोज और माही, दोनों ने अर्जुन को भड़काया।
“मां से दस्तखत करवा लो, कह दो कि वो अपना हिस्सा छोड़ रही हैं।”
किरन चुप रही, हमेशा की तरह। लेकिन दस्तखत के कागज़ उसके सामने आने से पहले रिया आ गई — बहुत दिनों बाद।
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रिया सब देख रही थी।
मां के चेहरे पर थकान भी थी और बेबसी भी।
जब वकील ने कहा कि यह कागज़ सब वारिसों के दस्तखत से ही मान्य होगा, और मां के भी दस्तखत चाहिए होंगे, तब माही ने रिया से कहा,
“आप तो वैसे भी कुछ नहीं चाहतीं, तो कर दीजिए साइन।”
रिया ने कागज़ नीचे रख दिए। एक लंबा साँस लेकर बोली —
“यह घर मेरे पापा का था। और मेरी मां ने इसे संभाला है। अगर तुम सबको लग रहा है कि माँ को बेघर कर दोगे और सब कुछ अपना बना लोगे, तो तुम सब गलत हो।”
सब चुप थे।
रिया ने कहा —
“तुम सबने भले ही रिश्ता ना निभाया हो… लेकिन मत भूलो, ये मेरा भी परिवार है। और ये मेरी मां का भी घर है , मेरी मां तुम सबकी नौकरानी नहीं है।”
रिया ने वकील के सामने कहा —
“मकान का एक हिस्सा मां के नाम पर ही रहेगा , और पेंशन की प्रक्रिया भी शुरू करिए।”
“मां इस घर में रहेंगी, अपने हिस्से के फ्लोर पर, शांति से। भले ही कोई साथ दे या ना दे लेकिन मैं अपनी मां के लिए हमेशा खड़ी रहूँगी।”
सरोज ने गुस्से से मुँह फेर लिया, सिम्मी ने भी नज़रें चुरा लीं।
लेकिन किरन की आँखों में पहली बार अपने लिए सम्मान की चमक थी।
रिया माँ को उनके नए कमरे में छोड़ने आती है। कमरे में एक छोटी सी तुलसी, कुछ किताबें और एक खिड़की है जहाँ से शाम की धूप उतरती है।
किरन चुपचाप रिया का हाथ पकड़ती है और बस इतना कहती है —
“तेरा होना ही मेरा सहारा है…”
—
समाप्त
लेखिका: मीनाक्षी गुप्ता (मिनी)