“बहुओं को हमेशा मर्यादा में रहना चाहिए। ज़्यादा छूट देने पर वह और ज़्यादा फायदा उठाती हैं।” ऐसा मेरी सासू माँ का कहना था।
वह पुरानी पीढ़ी की सोच थी,और ग्रामीण परिवेश से भी थीं ,इसी कारण मैं हमेशा साड़ी में लिपटी,पल्लू लिये रहती थी और सूट तक पहनने के लिए तरस गई।
लेकिन मैं अगली पीढ़ी की थी,ऐसे में मेरे विचार उनसे अलग थे। मैंने सोच लिया था कि मैं अपनी बहू को पर्दा बिल्कुल नही करने दूँगी बल्कि उसे हर तरह के कपड़े पहनने की आज़ादी दूँगी,,,और मैंने यही किया भी। बेटे की शादी धूमधाम से की। नई-नई बहू घर में आई तो मैंने उससे,उसके मनपसंद कपड़े पहनने की इज़ाजत दे दी।
हालांकि माता जी मेरे निर्णय से बेहद नाराज़ भी थीं कि मैं बहू को ज़्यादा ही सिर पर चढ़ा रही हूँ। पर मैंने भी सोच लिया था कि कम से कम मेरी बहू मेरी तरह तो अपना मन नही मारे,,,और इसमें वो क्या फ़ायदा उठायेगी ? मन के कपड़े ही तो पहनेगी। अब सब लड़कियाँ एक सी तो नही होती हैं? सोचकर मैं निश्चिंत थी।
आज शादी का नौंवा दिन था तभी मैंने देखा कि मेरी बहू छोटी सी पैंट और गले से खुला हुआ, स्लीवलेस टॉप पहने बाहर जाने को तैयार खड़ी थी।
“ये क्या बहू ?ब्याह को महीना भर भी नही हुआ है और तुम,,,, इतनी जल्दी ऐसे कपड़े,,,,,, सब लोग क्या कहेंगे ?” मैंने धीरे से कहा।
“तो क्या हुआ? वैसे आपने ही तो कहा था कि मैं चाहे जो पहनूँ ..और वैसे भी मम्मी जी एक बात और,,,एक पल के लिए उसकी भृकुटी तन गई “जिसे मेरे ऐसे कपड़े ना पसंद हो,वो मुझे ना देखे” कहती हुई वह सर्र से बाहर निकल गई।
अचानक मेरी नज़र पास ही खड़ी सासू माँ पर गई। वह एकटक मुझे ही देख रही थीं। मेरी आंखें भर आईं,,, मैंने असहाय सी होकर उनकी ओर देखा और फिर बाहर जाती हुई बहू को घर की मर्यादा को घर की चौखट लांघते हुए,,,,
कल्पना मिश्रा
कानपुर