पुत्र और पुत्रवधू की शादी की वर्षगाँठ मनाने की उड़ती-उड़ती चर्चा मेरे कानों में भी पड़ी थी।उस दिन रविवार की सुबह थी ।अक्टूबर महीने की गुलाबी ठंड का अहसास फ़िज़ाओं में महसूस होने लगा था ।बाहर बरामदे में सुबह की चाय संपन्न हो चुकी थी।चाय के बाद के अपने रोज़ाना रूटीन के अनुरूप खुरपा लेकर मैं बगीचे के पौधों की तीमारदारी पर जुट चुका था।
चूँकि आज न तो पुत्र और पुत्रवधू को अपनी नौकरियों पर जाना था और न ही टीटू पिंकी को अपने स्कूल ।अत: सुबह की चाय के बाद की महफ़िल बरामदे में जमी हुई थी ।महफ़िल में चर्चा का विषय था आने वाले बुधवार को पड़ने वाली शादी की सालगिरह ।परंपरा स्वरूप सदैव की भाँति हमारी श्रीमती जी चर्चा की मुखिया थीं ।बरामदे से ही उड़ती-उड़ती चर्चा ,मेरे कानों में पड़ रही थी ।
अमूमन न तो इस तरह के आयोजनों में मेरी कोई राय ली जाती और न ही ऐसी चर्चाओं में मुझे सम्मिलित करने की आवश्यकता समझी जाती ।इसका मुख्य कारण है मेरी मानसिकता में फ़िज़ूल खर्ची के ख़िलाफ़ की सोच ।मुझे पता है कि वर्षगाँठ मनाने की यह चर्चा भले ही कितनी ही लंबी चले पर जाकर इसे टिकना किसी स्टार वाले होटल पर ही है ।घरवालों को भी पता है कि यदि मुझ से राय ली जाएगी तो मेरा जवाब होगा कि-“ जितना होटल में पैसा उड़ाओगे उतने में तो घर पर आराम से कई बार पार्टी की जा सकती है ।”
इसके विपरीत पुत्रवधू का तर्क है कि वर्षगाँठ पर भी यदि दिनभर रसोई में ही खटना पड़े तो आम दिन और इस ख़ास दिन में क्या अंतर रह जाएगा ।और फिर पैसे का उपयोग क्या , बैंक में पड़े -पड़े ,पासबुक में चंद ज़ीरो जोड़ देने भर का है।जो पैसा अपने पर खर्च कर दिया वही अपना है बाक़ी तो सब फ़िज़ूल है ।
प्रत्येक व्यक्ति का जीवन जीने का अपना अपना नज़रिया है ।आज की जेनरेशन का जीवन जीने का मंत्र है -“ खाओ पिओ मौज उड़ाओ “।मौज उड़ाना किसे अच्छा नहीं लगता पर मैं मजबूर हूँ अपनी पुरानी मानसिकता को लेकर ।मैं चाहकर भी अपनी मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाता ।उम्र के अस्सी वर्ष भोग चुका हूँ ।
अच्छी-खासी सरकारी पेंशन पा रहा हूँ ।संयुक्त परिवार में बेटा-बहु के साथ रहता हूँ ।बेटा बहु दोनों का मिलकर इतना वेतन है कि मेरी पेंशन अनुपयोगी बैंक में जंग खाती रहती है ।यदि मैं चाहूँ तो -“ खाओ पिओ और मौज उड़ाओ के फ़ार्मूले को अपना सकता हूँ ।पर मेरी फ़िज़ूल खर्ची न करने की मानसिकता नयी पीढ़ी की सोच से पटरी नहीं खाती।पिछले महीने की बात है।।
मेरे जूते जो पिछले तीन साल से मुझे सेवा देते आ रहे थे चरमरा गये थे ।श्रीमती जी ने कई बार टोका और मरम्मत करने वाले मोची ने भी बदलने का मशविरा दिया ।किंतु मैं था कि जब तलक पैर का अंगूठा ही सामने से बाहर न झांकने लगे जूते को रगड़े जा रहा था ।
श्रीमती जी और पुत्र में कुछ गुफ़्तगू हुई और शाम को बेटा जी किसी ब्रांडेड कंपनी की सुंदर सी पैकिंग में चरण पादुका ले कर हाज़िर हो गए।जूते देखने में शानदार थे किंतु जूते की चमक-दमक से ज़्यादा मुझे उसकी क़ीमत जानने की जिज्ञासा थी।पुत्र ने कहा -“पिताजी , क़ीमत से आपका क्या लेन देना , पहनिये और मौज करिए ।
पर मैं कहाँ मानने वाला था ।जीवन भर जिसने पैसे की जोड़-तोड़ करके गार्हस्थ्य जीवन की गाड़ी को खेचा हो उसके लिए क़ीमत से ज़्यादा अहम हो ही क्या सकता था ।बचपन में हाई स्कूल तक मैंने टायर सोल के जूते ही पहने थे।जूता टूट जाए पर सोल नहीं घिसता था।
बचपन के वो संघर्ष भरे दिन मेरी स्मृतियों में महफ़ूज़ हैं ।सच कहा जाए संघर्ष तो माता-पिता का था ।हम बच्चे तो मौज-मस्ती में जीते थे।उन दिनों हमें नहीं पता था कि संघर्ष और अभाव किस चिड़िया का नाम है।हमारा बड़ा परिवार था।परिवार में हम तीन भाई दो वहनों के अतिरिक्त दादा दादी तथा एक विधवा बुआ थीं।
रेलवे में क्लर्क की नौकरी करते पिता की सीमित आय में माँ घर के खर्चे कैसे चलाती थीं यह शोध का विषय है ।रेलवे के मकान में हमारा परिवार ठूँसा हुआ था ।
सुबह के नाश्ते और शाम की चाय का घर में कोई चलन नहीं था ।सुबह दस बजे लंच शाम छह बजे डिनर ।गर्मी में छत पर पानी के छिड़काव के बाद बिस्तर लग जाते और मस्त हवा में हम घोड़े बेच कर सो जाते।बर्थडे और एनीवरसरी आदि मनाने का हमारे घर में ही नहीं बरन आस पड़ोस में भी कोई चलन नहीं था ।
बचपन में तो कुछ अहसास नहीं था पर हाईस्कूल में आते आते रोज़मर्रा के खर्चो में अभाव का अहसास होने लगा था।स्कूल के कॉपी किताब के लिए पैसे माँगने में शर्म और ज़िल्लत महसूस होने लगी थी।इंटर में मैंने ख़र्चों की पूर्ति के लिये दो बच्चों के ट्यूशन पकड़ लिए थे।मुझे अहसास था कि कैसे माता-पिता अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों को दरकिनार कर परिवार के लिए संघर्ष कर रहे थे ।
पैसे का महत्व क्या होता है यह बोध दिल और दिमाग़ में घर कर गया था ।पैसों का लड़कपन का वो अभाव मेरी मानसिकता में ऐसा घुसा कि आज अस्सी वर्ष की आयू में भी मैं उस मानसिकता से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ ।आज परिवार वाले मेरी इस मानसिकता का मज़ाक़ बनाते हैं ।घर में कोई महँगी चीज़ ख़रीद कर आती है तो यह लोग उसका मूल्य मुझे कम करके बतलाते हैं जिससे मुझे टेंशन न हो ।
लंच पर प्रायः मैं और यशोदा अकेले ही होते हैं क्योंकि बेटा-बहु अपनी अपनी ड्यूटी पर होते हैं ।लंच के बाद यशोदा ने पूछा-“ आज डिनर के लिए होटल चलना है, एनीवरसरी केक भी वहीं कटेगा ।होटल क्या पहन कर चलोगे ? “
“तुम तो जानती हो कि होटलों की फ़िज़ूलख़र्ची से मुझे चिड़ है पर बहु की एनीवरसरी है , जाना तो पड़ेगा ।”
“एक बात कहूँ बुरा तो नहीं मानोगे ।”- यशोदा ने मेरी आँखों में देखते हुए कहा ।
“ यदि तुम्हारी बातों का बुरा मानता तो शादी के पचास साल कैसे निभा पाता।”-मैंने मुस्कुराते हुए कहा ।
“बचपन के अभावों ने तुम्हारी प्रकृति में जो कृपणता को घुसा दिया है उससे तुम्हें बाहर निकलना होगा ।”
“ किंतु कैसे ?”
“ दूसरों की ख़ुशियों के लिए दिल खोल कर खर्च करके।जब सब कुछ यहीं रह जाने वाला है तो उसका मोह क्यों ? हमारे बाद तो सब कुछ बच्चों का ही होगा तो क्यों न अपने जीते जी अपने हाथों उन्हें कुछ देते रहे।अपने बच्चों पर खर्च करो ,दीन-दुखियों पर खर्च करो।
अनाथालय आदि में दान-पुण्य करो।खर्च करके जो मुस्कान तुम ख़रीदोगे वह तुम्हारी मुस्कान बन जायेगी ।कृपणता को पैसा लुटा कर ही हराया जा सकता है ।”-यशोदा ने सुझाव देते हुए गंभीरता से कहा ।
“ अकबर के जटिल प्रश्नों का उत्तर प्रायः बीरबल अपनी पत्नी से पूछ कर ही दिया करता था , जो सिद्ध करता है कि पत्नियाँ ज़्यादा दुनियादार होती हैं ।अत: तुम्हारे सुझाव को अमल में लाने की कोशिश अवश्य करके देखूँगा ।किंतु बात तो आज बहु की एनीवर्सरी की चल रही थी बीच में यह विषयांतर कैसे हो गया ।”
“ बहु की एनीवर्सरी से ही हम दिल खोल कर खर्च करने के अभियान को आरंभ करते हैं ।”- यशोदा ने मुसकुराते हुए कहा ।
“ पर कैसे ?”- मैंने भ्रमित होते हुए कहा ।
“ तुम्हें कुछ नहीं करना बस अपनी चेकबुक ले लो।मैं फ़ोन करके ऑटो बुलाती हूँ , हम बाज़ार में ज्वैलरी के शो-रूम में चल रहे हैं “- यशोदा ने राज़दार अंदाज़ में कहा ।
तीन स्टार होटल की बड़ी सी टेबल के चारों ओर ख़ुशियों से लबरेज़ मेरा परिवार बैठा है ।सब के हाथों में मीनू है।अपनी अपनी पसंद की डिशें खोज अभियान चल रहा है ।अपनी आदत से मजबूर मैं डिश के आगे अंकित मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययन कर रहा हूँ कि इसमें सस्ता क्या है ?
मैं मीनू अध्ययन कर ही रहा था कि पुत्र ने कहा -“ पापा आप टेंशन न लें ,हमें आपकी पसंद पता है।पहले केक काट लेते हैं तत्पश्चात् खाने का आर्डर कर देंगे ।”
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ पुत्र-पुत्रवधू की शादी की सालगिरह का केक कट गया।टीटू पिंकी ने अपने हाथों से बनाए कार्ड भेंट किये।बहु जब मेरे और अपनी सास के पैर छू रही थी तो मेरी पत्नी ने मुझे आँख से इशारा किया ।मैंने तत्काल आज ज्वैलरी दुकान से ख़रीदी गिफ़्ट की डिबिया बहु को भेंट कर दी।
डिबिया में क्या है ये अभी रहस्य बना था।रहस्य का पर्दाफ़ाश करते मेरी पत्नी ने डिबिया खोली और चमचमाती सोने की चेन निकाल बहु के गले में पहना दी।सोने की चमक पुत्रवधू की आँखों में परिलक्षित हो आई थी ।एक बार फिर महफ़िल तालियों की गूंज से गुलज़ार हो आई थी।कुछ पाने की अपेक्षा देने की ख़ुशी का अहसास मैंने ह्रदय में महसूस किया था ।
जो जल बाढ़े नाव में , घर में बाढ़े दाम ।
दोनों हाथ उलीचिए , यही सयानों काम।।
( नाव में जल भर जाए या घर में धन बढ़ जाए , दोनों अवस्थाओं में उन्हें उलीचना ही बुद्धिमत्ता है )
अगली सुबह मैं घर के लॉन में लगे बगीचे में टहल रहा हूँ ।गुलाब अपनी सुगंध लुटा रहा है ।घास की ओस पैरों में शीतलता लुटा रही है।नन्ही चिड़िए चीं-चीं का गान सुना रही है।सब का संदेश की निःस्वार्थ बाँटने में ही परम सुख है ।
पुत्रवधू घर से बाहर आती है ,उसके गले में कल शाम गिफ़्ट में मिली चेन झिलमिल कर रही है- “ पापा जी अंदर चलिए ।सुबह की चाय ठंडी हो रही है…………..।
****** समाप्त ******
लेखक— नरेश वर्मा