मणिका – निभा राजीव “निर्वी”

यूं तो गांव के प्राथमिक विद्यालय के प्राचार्य थे निरंजन बाबू, मगर उनके आचरण और उनके ओजस्वी व्यक्तित्व, निस्सवार्थ सेवा भावना के कारण गांव में उनकी लोकप्रियता और उनका सम्मान बहुत अधिक था। पूरे गांव में किसी पर कोई मुसीबत आए या किसी को सहायता की आवश्यकता पड़े तो निरंजन बाबू बिना बुलाए सबकी सहायता को सदैव तत्पर रहते थे।

गांव में सभी उनका बहुत सम्मान करते थे और उनकी राय को बहुत महत्व देते थे। वैसे तो वह बहुत ही विनम्र स्वभाव के थे मगर उतने ही स्वाभिमानी भी थे। उनका मस्तक ईश्वर के अलावा और किसी के समक्ष नहीं झुकता था।  अपना जीवन वह पूरी इमानदारी और अपने कार्य के प्रति पूरे समर्पण के साथ व्यतीत करते थे।

संपत्ति के नाम पर उनके पुरखों की एक छोटी सी जमीन थी, जिस पर उनका छोटा सा दो कमरों का घर था। छोटा सा परिवार था उनका, वह,  उनकी पत्नी और उनकी चार वर्षीया पुत्री मणिका!

            आज फिर ठाकुर साहब का संदेशा आया था निरंजन बाबू के पास। हालांकि प्रस्ताव तो पहले से था मगर बात अब धमकी पर उतर आई थ बात यह थी कि ठाकुर साहब अपनी पूरी मिल्कियत के चारों तरफ ऊंची सी चारदीवारी बना रहे थे, मगर जहां निरंजन बाबू का घर था उस कोने पर उनकी जमीन के कारण उनकी चारदीवारी थोड़ी टेढ़ी करनी पड़ रही थी।

इसीलिए ठाकुर साहब लगातार उन पर दबाव बना रहे थे कि  वह उस जमीन को ठाकुर साहब के नाम कर दें। बदले में वह कहीं अन्यत्र उन्हें दूसरी जमीन दे देंगे। परंतु इसके लिए निरंजन बाबू कतई तैयार नहीं थे क्योंकि यह जमीन उनके पुरखों की निशानी थी, उनका सम्मान था।

निरंजन बाबू ने सम्मान पूर्वक परंतु दृढ़ स्वर में ठाकुर साहब के मैनेजर से बोल दिया कि वह जाकर ठाकुर साहब से सम्मान पूर्वक यह कह दे कि वह अपनी जमीन किसी भी कीमत पर बेचना नहीं चाहते। वह उनकी जमीन छोड़कर अपनी चारदीवारी बना लें।




           मैनेजर के मुंह से यह संदेशा सुनते ही ठाकुर साहब आग बबूला हो उठे,”-उसमें दो टके के मास्टर की यह औकात कि उसने ठाकुर राघवेंद्र प्रताप सिंह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया! अब देखो, मैं उसका क्या हाल करता हूं। उस अभिमानी का सिर अपने पैरों में झुका कर रहूंगा! ड्राइवर मेरी गाड़ी निकालो!!!” ….

और उन्होंने दराज से आवेश में तमंचा निकाल लिया। मैनेजर पहले तो अवाक रह गया फिर उस ने उन्हें समझाने वाले स्वर में कहा,”- ठाकुर साहब मेरी क्या बिसात कि मैं आपके सामने मुंह खोलूं! छोटा मुंह बड़ी बात! फिर भी यह अवश्य कहना चाहूंगा कि जो भी करें सोच विचार कर करें। गांव में निरंजन बाबू का बहुत सम्मान और आदर है।

पूरे गांव का स्नेह उन्हें प्राप्त है। ऐसी स्थिति में कोई भी गलत कदम लोगो में असंतोष फैला सकता है और उन्हें आप के विरुद्ध कर सकता है जो आगे जाकर शायद हमारे लिए अच्छा ना हो…… आप एक बार ठंडे दिमाग से मेरी बात पर विचार करें…. कुछ ऊंचा नीचा हो गया तो आपकी साख पूरे गांव के सामने गिर जाएगी…” ठाकुर साहब ने तमंचा वापस दराज में खिसका दिया

और कुर्सी पर बैठ गए। उनके माथे पर पड़ रहे बल बता रहे थे कि वह गहरी सोच में डूबे हुए हैं । थोड़ा सोचने के पश्चात उन्होंने मैनेजर से कहा कि  निरंजन बाबू की जमीन छोड़ दे और चारदीवारी बनवा दी जाए ।  

         इस बात को अब 20 साल बीत चुके थे। मणिका को भी निरंजन बाबू पास के शहर से स्नातक करवा चुके थे। उनके और उनकी पत्नी के सुघड़ हाथों से गढ़ा हुआ मणिका का व्यक्तित्व सद्गुणों और  सुसंस्कारों से परिपूर्ण था। रूप भी ऐसा कि जो देखता ठगा रह जाता। मझोला कद, गेहूंआ रंग, बड़ी बड़ी बोलती सी आंखें, सुतवां नाक, कोमल अधर, कमर तक झूलती हुई चोटी किसी का भी ध्यान बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेती थी।

            गांव में मेला लगा हुआ था। मणिका भी अपनी सहेलियों के साथ मेले में गई थी। सभी सखियां आपस में हंस बोल रही थी और घूम फिर रही थी, तभी मणिका की दृष्टि दूर खड़े एक सुदर्शन युवक से टकरा गई जो एकटक उसे ही निहार रहा था। उसको अपनी और ताकते पाकर मणिका असहज हो गई और उसने अपनी दृष्टि फेर ली और अपनी सखियों से विदा लेकर घर आ गई।      दूसरे दिन सुबह  मंदिर जाते समय वह युवक

अचानक से फिर सामने दिखाई दे गया और उसे देख कर मुस्कुरा दिया। उस युवक ने थोड़ा निकट आते हुए अपना परिचय दिया,”- मै ठाकुर राघवेंद्र प्रताप सिंह का पुत्र तरुण हूं ! हमेशा होस्टल में रहकर ही पढ़ाई की इसीलिए शायद इससे पहले कभी आपसे मिलने का संयोग नहीं बना। मैं एक डॉक्टर हूं और शहर में मेरे प्रैक्टिस चलती है। अभी छुट्टियों के लिए गांव आया हूं। मैं किसी भी बात को लाग लपेट के साथ कहने में विश्वास नहीं

रखता इसलिए सीधे-सीधे कह रहा हूं। आपको जब से देखा है, आप मेरे मन में बस गईं हैं….प्रेम करने लगा हूं आपसे….अच्छा चलता हूं…. बस यही कहना था आपसे, अगर आपको बुरा लगा हो तो क्षमा चाहता हूं और अगर आपकी हां है तो कल मैं इसी समय आपको यहीं मिलूंगा….. आपकी एक मुस्कान से मुझे मेरे निवेदन का उत्तर मिल जाएगा….”

और वह पलट कर चल दिया जाते-जाते उसने पलट कर एक बार फिर मणिका की ओर देखा…. मणिका भी समझ नहीं पाई कि उसके मन में यह कैसी अनुभूतियां जाग रही है। कब उसके मन की कोमल भावनाओं के धागे तरुण की पलकों से जाकर उलझ गए।




           अगले दिन वह जैसे सम्मोहन से बंधी हुई फिर चल पड़ी मंदिर की तरफ। सामने तरुण आंखों में प्रश्न लिए खड़ा था, मणिका की आंखें लाज के भार से झुक गईं और हल्की सी मुस्कान की रेखा उसके अधरों पर खेल गई…..झूम उठा तरुण! और उसके बाद धीरे-धीरे उनका प्रेम परवान चढ़ने लगा।

       “अब बहुत हो चुका मणिका अब मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं। मैंने अपने माता-पिता से भी बात कर ली है। वह तैयार हैं इस संबंध के लिए। मैं कल उनके साथ तुम्हारे घर आऊंगा तुम्हारा हाथ मांगने…” तरुण ने उसकी ठोढ़ी उठाते हुए कहा। मणिका ने लजाकर आंखें नीची कर लीं। ढेर सारे पलाश के फूल जैसे उसके गालों पर खिल गए।

      अगली शाम को ठाकुर साहब, उनकी पत्नी और तरुण के साथ उसके घर आ पहुंचे उसका हाथ मांगने के लिए। ठाकुर साहब ने निरंजन बाबू से विनयपूर्वक कहा,”- मास्टर साहब, अतीत में जो हुआ सो हुआ। परंतु अब हमें उन बातों को भुला देना चाहिए और बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशी मान लेनी चाहिए। यदि आपको स्वीकार हो तो मैं तरुण के लिए आप की पुत्री मणिका का हाथ मांगता हूं।”

निरंजन बाबू हाथ जोड़कर खड़े हो गए और ठाकुर साहब के गले लग गए। फिर एक दूसरे को मिठाई खिलाकर यह संबंध पक्का कर लिया गया। दोनों ओर से विवाह की तैयारियां जोर शोर से प्रारंभ हो गईं।      

        बारात दरवाजे पर पहुंच चुकी थी। खबर आते ही निरंजन बाबू अगवानी के लिए पहुंच गए और सम्मानपूर्वक बारातियों का स्वागत किया गया। विवाह की विधियां शुरू हो चुकी थी। फेरे प्रारंभ होने वाले ही थे कि तभी ठाकुर साहब अचानक उठकर खड़े हो गए,और उनकी गरजता हुई आवाज विवाह मंडप में गूंज उठी,”-  यह विवाह नहीं हो सकता, मैं बारात को लौटा कर ले जाना चाहता हूं….” बदहवास से निरंजन बाबू दौड़ कर ठाकुर साहब के पास पहुंचे और कातर स्वर में बोले, “- क्या हो गया ठाकुर साहब, कौन सी कमी रह गई??”

अचानक एक विद्रूप सी मुस्कान ठाकुर साहब के होठों खेल गई और जैसे तुरुप का पत्ता फेंकते हुए उन्होंने कहा, “-मास्टर मैंने सुना है तेरा सिर आज तक किसी के सामने नहीं झुका पर आज तो तेरी बेटी का विवाह तभी होगा जब तू मेरे पैरों में अपनी पगड़ी रखेगा….”  किंकर्तव्यविमूढ़ रह गए निरंजन बाबू….. फिर उन्होंने ठाकुर साहब से कहा, “-यह कैसा मजाक है ठाकुर साहब ! यह आप क्या कह रहे हैं । ठाकुर साहब ने गरजे,”- मैं जो कह रहा हूं, सही कह रहा हूं। तूने मेरा जो अपमान किया था उसे मैं कभी भूल नहीं पाया।आज तो तेरी बेटी का विवाह तभी होगा, जब तू मेरी शर्त मानेगा!!!”

निरंजन बाबू ठाकुर साहब को समझाने की कोशिश करते रहे, आग्रह करते रहे लेकिन ठाकुर साहब टस से मस नहीं हुए। निरंजन बाबू की दोनों आंखों से आंसू बहने लगे। विवश होकर उन्होंने अपनी पगड़ी को हाथ लगाया ही था की मणिका सिंहनी सी दहाड़ते हुए खड़ी हो गई,”- बहुत हो गया! मेरे बाबूजी का सर ना कभी झुका था और ना कभी झुकेगा।”

निरंजन बाबू मणिका को समझाते हुए कहने लगे,यह कैसी बातें कर रही है बेटी, अगर बारात वापस चली गई तो बहुत जगहंसाई हो जाएगी।”

“-चाहे कुछ हो बाबूजी, आपका अपमान मैं कभी नहीं सह सकती।” कहते हुए उसने तरुण की ओर देखा। तरुण ने कातर दृष्टि से उसकी ओर देखकर सर झुका लिया और ठाकुर साहब के साथ जाकर खड़ा हो गया…… दांत पीसकर मणिका बोली, “-बाबूजी इस मेरुदंडविहीन काठ के उल्लू के साथ विवाह करने से बेहतर है कि मैं आजन्म कुंवारी ही रहूं। जो अपने पिता के सम्मान के साथ समझौता करे, मैं ऐसी औलाद नहीं हूं। आप मेरे पिता हैं आपका ऋण तो मैं अपने प्राण देकर भी नहीं चुका सकती। यह विवाह क्या चीज है…यह क्या विवाह से इनकार करेंगे, मैं अभी और इसी समय इस विवाह से इंकार करती हूं। ठाकुर साहब, आप जाएं और अपने इस काठ के उल्लू पुत्र को भी ले जाएं।” और दृढ़ता से निरंजन बाबू का हाथ पकड़कर अंदर की ओर चल पड़ी।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी, धनबाद, झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

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