और सचमुच जब से कदम्ब और वीथिका ने बच्चे का जन्म शहर में करवाने का अपना निर्णय अम्मा को बताया तो अम्मा – बाबू दोनों बहुत नाराज हो गये – ” तुम तो ऐसे कह रहे हो मुन्ना जैसे गांव में सारी औरतें बच्चे पैदा करने में मर ही जाती हैं। कुछ नहीं होगा। तुम भी तो घर में ही पैदा हुये हैं। सुगना दाई के हाथों में बरकत है, बहुत बच्चे उसने अपने हाथों पैदा करवाये हैं।”
” अम्मा, आप समझती क्यों नहीं कि डॉक्टर ने वीथिका को सफर करने से मना किया है। अब पहले जैसा समय नहीं रहा और फिर जब अपने पास सुविधा और साधन है तो आप क्यों ऐसी बेकार की जिद कर रही हैं? आप केवल थोड़े दिन के लिये आ जाना। बच्चे के जन्म के बाद आप मॉ और बच्चे को लेकर आ जाना और जब तक मन करे अपने पास रखना। मैं कुछ नहीं कहूंगा।”
” हॉ मुन्ना, यहॉ दूध – दही के अलावा सब कुछ घर का है। वहॉ शहर में तो हर चीज खरीदनी पड़ती है। यहॉ बहू अच्छी तरह खायेगी- पियेगी और आराम से रहेगी। तुम्हें चिन्ता करने की जरूरत नहीं है, तुम्हारी अम्मा सब कर लेंगी।”
कदम्ब जानता था कि वीथिका के आते ही सारे घर का यहॉ तक जानवरों का भी सारा काम उसी पर डाल दिया जायेगा। इसलिये कदम्ब नहीं माना।
आखिर बेमन से ही सही लेकिन अम्मा प्रसव के समय आने के लिये मान गईं लेकिन नन्हीं परी को देखकर तो जैसे अम्मा का रूप ही बदल गया। कदम्ब ने जब बाबू को फोन पर बेटी के जन्म की सूचना दी तो वह भी विशेष खुश नहीं हुये –
” पहलौठी लड़का होना चाहिये बाद में चाहे जो होता लेकिन पहली ही बार बिटिया हो गई। यहॉ होते तो निश्चित ही पहलौठी लड़का होता लेकिन तुम आजकल के लड़के अपने को ज्यादा काबिल समझते हो, अपने आगे बड़े – बुजुर्गों की बात सुनते ही नहीं हो। हमें क्या जो मन आये करो।”
अम्मा के जाने के दो दिन बाद रविवार का दिन था। वीथिका रसोई में थी और कदम्ब बच्चे के पास बैठा धीरे धीरे पालना झुला रहा था और अपनी फूल सी राजकुमारी को देखे जा रहा था। उसका मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था कि वह अपनी लाड़ली बेटी के आपरेशन के लिये कहॉ से पैसा लाये।
जब से वीथिका गर्भवती हुई है तब से वह कोई मेहनत का भारी काम नहीं कर पाती थी, इसीलिये सब्जियों और फूलों से होने वाली उसकी आमदनी भी कम हो गई थी ।अब बेटी के जन्म के बाद भी उसे अपने बच्चे की देखभाल करनी है इसलिये भी वह कुछ दिन तक उसका सहयोग नहीं कर पायेगी।
विनय गुप्ता के दिये हुये पैसे वह दोनों बैंक में जमा करा देते थे, इसलिये बेटी के अस्पताल आदि के खर्चे के लिये उसे कोई परेशानी नहीं हुई है। अभी भी उसके खाते में कुछ पैसे हैं लेकिन अपनी सीमित आमदनी से वह कैसे अपने बच्चे का मंहगा इलाज और आपरेशन करवाये। उसके कानों में हर समय डॉक्टर की चेतावनी गूंजती रहती कि अधिक देर करने से परिणाम भयंकर भी हो सकते हैं। यही सब सोंच सोंचकर उसका मस्तिष्क परेशान था।
अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। कदम्ब ने उठकर दरवाजा खोला तो आगंतुक को देखकर चौंक गया – ” आप! आप तो अपना नेग ले जा चुके हैं।”
” पहले यह बताइये कि बच्चे की दादी हैं या चली गईं?”
” अम्मा को गये तो तीन दिन हो गये।”
” हमें आपसे कुछ नहीं चाहिये। आप थोड़ी देर के लिये बच्चे की मॉ को बुला दीजिये।”
लेकिन तब तक दरवाजे की खटखटाहट और मंगला मुखी रेशमा का भारी स्वर सुनकर वीथिका स्वयं आ गई और मंगला मुखी को देखकर आश्चर्य में पड़ गई। इसके पहले वह कुछ कहे वीथिका ने उसके सामने हाथ जोड़ दिया और लगभग गिड़गिड़ाते हुये कहा –
” हमारे पास जो था हमने अपनी सामर्थ्य के अनुसार पहले ही दे दिया है, अब हमें और परेशान मत करो।”
किन्नर रेशमा की ऑखों में ऑसू आ गये –
” हम लोग अपनी जिद और बदतमीजी के लिये बदनाम हैं लेकिन क्या करें, यह सब हम लोगों की कुंठा और मजबूरी है। समाज की उपेक्षा, तानों और गालियों से हमारे अन्दर एक कुंठा, एक आक्रोश पनपता रहता है जैसे किन्नर के रूप में जन्म लेकर हमने कोई पाप किया है। हम क्या करें, यदि बनाने वाले ने हमें ऐसा बनाया है। इसीलिये हमें लगता है कि जब कोई हमारा सम्मान नहीं करता तो हम किसी के बारे में क्यों सोंचे? हमें शुरू से ही सिखा दिया जाता है कि यदि हमने छीनना नहीं सीखा तो भूखे मर जायेंगे।
चोर- डाकुओं को भी कम से कम बचपन में तो प्यार मिल जाता है लेकिन हमारे तो पैदा होते ही हमारे अपने माता पिता हमारी मृत्यु की कामना करने लगते हैं। हमारे जन्म से किसी को खुश होने की बजाय रोते हुये अपने भाग्य को कोसने लगते हैं।”
रेशमा का कंठ भारी था, वह कुछ देर रुकी, फिर बोली – ” हम सबके परिवार की वृद्धि, सुख- शान्ति के लिये शुभकामनायें और आशीर्वाद देते हैं लेकिन हमें इसके बदले में अपमान मिलता है। हमें भी एक प्यारे से परिवार की इच्छा होती है लेकिन हम ऐसे सुख से हमेशा वंचित रहते हैं।”
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मंगला मुखी (भाग-5) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral stories in hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर