तीन महीने बाद रात को डॉक्टर सौरभ के शयनकक्ष में –
” सौरभ, वह बच्ची कैसी है जिसकी तुमने पापा के कहने से सहायता की थी।” यह डॉक्टर सौरभ कुलकर्णी की पत्नी नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉक्टर स्वाति थीं।
” अब वह काफी ठीक है। सच पूॅछों तो इस कार्य में इतने लोगों ने सहायता की है कि शायद मैं गिनती भी न कर पाऊॅ। उस बच्ची का नाम लकी था, शायद उसके भाग्य से ही उसे इतने लोगों की सहायता मिल पाई है। अब तो तीन महीने हो चुके हैं तो इंफेक्शन का खतरा भी कम हो गया है साथ ही डॉक्टर नयन ने उसकी कुछ दवाइयाॅ भी कम कर दी हैं।
” सचमुच देखो ईश्वर कैसे खेल रचता है? किसको माध्यम बना देता है, कोई नहीं जानता? उसके भाग्य में तुम्हारे माध्यम से सहायता न लिखी होती तो वे लोग पापा के पास कैसे आते?”
” हॉ, शायद वो लोग पापा के माध्यम से न आये होते तो मैं और बाकी लोग उनकी इतनी सहायता न करते लेकिन जब पापा ने उन्हें अपनी शरण में ले लिया तो सबने खुद आगे बढ़कर उनकी सहायता कर दी। बहुत लोगों से तो मैंने कहा भी नहीं। “
डॉक्टर स्वाति सब कुछ सुनते हुये मुस्कराती जा रही थीं और सौरभ भावुक होते जा रहे थे – ” सभी जानते हैं कि पापा की खुशी मेरे जीवन में सबसे बड़ी है। मॉ के मरने के बाद अपनी छोटी सी नौकरी में उन्होंने किस तरह मुझे डॉक्टर बनाया है, मैं ही जानता हूॅ। अब मैं उनके संघर्ष के दिन तो वापस कर नहीं सकता है लेकिन उन्हें सम्मान देकर, उनकी बात मानकर उन्हें खुशी तो दे ही सकता हूॅ।” स्वाति मुस्कराते हुये चुपचाप प्यार से सौरभ के बोलते हुये चेहरे को देख रही थी, जो कहीं अतीत में खो गया था – ” किसी की भलाई करने का फल ईश्वर हमें वापस जरूर देता है, यही सोंचकर मैंने उन लोगों की अधिक से अधिक सहायता की है। सरकारी और मेडिकल एसोसिएशन के खाते से भी उन्हें पैसे दिला दिये हैं। अरे यार •••• अपनी जेब से तो कुछ गया नहीं, केवल थोड़े से प्रयत्न से किसी गरीब का भला हो गया।”
” लेकिन आपको भलाई का फल तीन महीने के अन्दर ही मिल चुका है डॉक्टर साहब।” कहकर स्वाति और अधिक मुस्कराने लगी।
” कैसे! मुझे तो पता ही नहीं तो तुम्हें कैसे पता चला?”
” आपको पता नहीं है लेकिन मुझे पता है।”
” क्या? बताओ?”
” ऐसे नहीं, कुछ रिश्वत दो वह भी बहुत बड़ी । ऐसे नहीं बताने वाली मैं।” स्वाति अब भी मुस्करा रही थी।
” अच्छा , मुझसे रिश्वत चाहिये तुम्हें? मुझसे ही बेइमानी? अभी देता हूॅ तुम्हें रिश्वत।” कहकर डॉक्टर सौरभ ने स्वाति को अपनी गोद में खींचकर उसके ऊपर झुकते हुये कहा।
” सम्हाल कर डॉक्टर साहब, कोई हमें देख रहा है।”
सौरभ ने जल्दी से स्वाति को छोड़ दिया और चारो ओर देखने लगा। उसने देखा कि शयनकक्ष का दरवाजा बंद है – ” दरवाजा तो बंद है, कहॉ है कोई।”
डॉक्टर स्वाति ने सौरभ का हाथ अपने पेट पर रखा –
” यहॉ।”
” क्या?” डॉक्टर सौरभ हक्का बक्का रह गये – ” क्या कह रही हो? क्या यह सच है? एक बार फिर से कहो।”
डॉक्टर स्वाति के नेत्र भावुकता से गीले हो गये – ” हॉ सौरभ। इधर तबियत थोड़ी ढीली सी लगती थी तो मैं अपनी सहेली स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉक्टर सुरभि के पास गई थी। उसने कुछ जॉचें और अल्ट्रासाउंड करवाया था। आज उसने सारी रिपोर्ट मुझे मेल कर दीं तभी मुझे पता चला कि हमारे घर की बगिया में बहार आने वाली है। हमें दुनिया का सबसे भाग्यशाली बनाने वाला सुख मिलने वाला है।”
सौरभ ने उसे गोद में उठाकर पलंग पर लिटा दिया और उसके कपोलों पर अपना प्यार अंकित कर दिया – ” इतनी बड़ी खुशखबरी और उपहार के लिये तो मेरे पास तुम्हें देने के लिये कुछ है ही नहीं। यह तो अनमोल उपहार है।”
” सुबह जब हम लोग पापा को बतायेंगे तो वह कितना खुश होंगे।” डॉक्टर स्वाति ने कहा।
” सुबह नहीं। हम पापा को अभी बतायेंगे, वह अभी सोये नहीं हैं। अपने कमरे में किताब पढ रहे हैं और अगर सो भी गये होंगे तो इस खुशखबरी के लिये उन्हें अपनी नींद ख़राब करना भी अच्छा लगेगा। उन्होंने भी तो इस खुशखबरी का वर्षों से इंतजार किया है।”
और डॉक्टर सौरभ डॉक्टर स्वाति का हाथ पकड़कर अपने पापा मिस्टर कुलकर्णी के कमरे की ओर बढ़ने लगे।
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर
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दोस्तों, आप सबको बहुत बहुत स्नेह एवं अभिवादन आज मंगला मुखी का अन्तिम भाग आपके समक्ष है। एक किन्नर, समाज के उपेक्षित वर्ग पर कुछ लिखने का प्रयास किया है। आप सब बताइये कि
” मंगला मुखी ” आपको कैसी लगी? यदि कुछ कमी या त्रुटि लग रही हो तो निसंकोच बताइयेगा। यदि कहानी पसंद आये तो अपनी प्रतिक्रिया देकर मुझे प्रोत्साहित करें ताकि मैं और अधिक उत्साह से नई कहानी/ रचना लेकर उपस्थित हो सकूं। आप सबके स्नेह और समर्थन के लिये आप सभी वरिष्ठ और कनिष्ठ मित्रों का बेहद आभार।
शुभेच्छु
बीना