” इतनी ठंड में एक भी आदमी सड़क पर चलता दिखाई नहीं दे रहा है और तुम मुझे..
” तो क्या करती..कब से मंदिर चलने के लिये कह रही थी और आप टालते जा रहें थें..।”
दिल्ली की कड़कती ठंडी में महेश अपनी पत्नी मीना के साथ स्कूटर पर झंडे वाली माता के दर्शन करके लौट रहे थे।दोनों बातें करते जा रहे थे ताकि ठंड कम महसूस हो और सफ़र भी कट जाये।तभी मीना चिल्लाई,” गाड़ी रोकिये…गाड़ी..।”
महेश ने तुरंत स्कूटर रोक दिया,” क्या हुआ?”
” वो देखिये…फुटपाथ पर कोई बैठा ठिठुर रहा है…।कहते हुए उसने अपनी अंगुली से इशारा किया और दौड़कर उनके पास गई।तब तक महेश भी आ गये।एक वृद्ध दंपत्ति को ठंड में ठिठुरते देख मीना ने उन्हें अपनी शाॅल ओढ़ाई और महेश ने एक ऑटोरिक्शा रोक कर उन्हें बिठाया और मीना को बोला कि तुम इनके साथ बैठकर घर आओ।वृद्ध कुछ कहना चाह रहें थें लेकिन शब्द नहीं निकल पा रहें थें।
घर पहुँचकर मीना ने दोनों को चाय-बिस्कुट खिलाया और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोली,”माताजी..आप लोग कौन हैं और इस तरह अकेले…।” स्नेह-स्पर्श पाकर वृद्धा की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।कुछ देर बाद बोलीं,” हम पति-पत्नी हैं और औलाद से सताये माता-पिता..।
” उनका गला भर आया तब वृद्ध बताने लगे,” मेरा नाम कामता प्रसाद है बेटी…।कस्बे के एक स्कूल में अध्यापक था।पत्नी प्रभा एक सुघड़ गृहिणी थीं।हमारी तीन संतानें हुईं लेकिन वो सभी दो-तीन महीने से अधिक जीवित नहीं रह सके।मंदिर में सौ दीये जलाये तब हमें चौथी संतान के रूप में एक पत्र हुआ जो हमारे आँगन में खेलने लगा।उसे हल्की खरोंच भी आती तो प्रभा जी अपने लाड़ले को अपनी गोद से उतरने नहीं देती..।
पाँच साल का हमारा सुमित स्कूल बैग लेकर विद्यालय जाने लगा तो प्रभा जी उसकी नज़र उतारती थीं।समय के साथ वो बड़ा होने लगा और बारहवीं की परीक्षा देकर वो इंजीनियरिंग करने दिल्ली चला गया।फिर उसने वहीं नौकरी कर ली और…।”
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” और क्या अंकल जी…।” महेश ने घबराते हुए पूछा।तब प्रभा जी बोलीं,” हमें बिना बताये उसने वहीं पर अपनी पसंद की लड़की से विवाह कर लिया।एक दिन आशीर्वाद लेने आया तो हम दोनों ने उससे बात नहीं की लेकिन अपनी संतान से हम कब तक नाराज़ रहते।उसे खुशी-खुशी विदा कर दिया।कभी-कभार सुमित फ़ोन कर लिया करता था।फिर ये रिटायर हुए तो वो हमें अपने पास बुलाने लगा।मेरा मन तो था लेकिन इन्होंने मना कर दिया।फिर मेरी बहू नैना को बेटा हुआ तब मेरा मन नहीं माना..इनसे चलने की ज़िद करने लगी..।बस..उसी समय से हम यहाँ रहने लगे।मैं तो अपने पोते के साथ व्यस्त हो गई और इन्होंने भी खुद को नये वातावरण में ढ़ाल लिया।फिर एक दिन..।”
” एक दिन क्या आँटी…।” मीना ने आश्चर्य-से पूछा।
कामता बाबू बोले,” एक दिन सुमित ऑफ़िस से आया और चाय पीते हुए बोला,” पापा…आप लोग तो अब यहाँ अच्छी तरह से एडजेस्ट हो गये हैं तो क्यों ना हम कस्बे वाले घर को बेच दे और उन रुपयों से यहाँ पर एक बड़ा फ़्लैट ले लेंगे ताकि…।” मैं घर बेचना नहीं चाहता था और प्रभा जी बेटे को उदास देखना नहीं चाहती थी।
मुझ से बोलीं कि बेच दीजिये ना…घर का सुख तो हमें यहाँ मिल ही रहा है… हमारे लिये तो सुमित की खुशी ज़रूरी है।बस…उसी समय सुमित ने मुझसे घर के कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिये और कस्बे के एक दबंग व्यक्ति को हमारे पुरखों के मकान को बेच दिया।महीने भर बाद ही हम नये घर में शिफ़्ट हो गये।
प्रभा जी बहुत खुश थी लेकिन मेरे मन में एक अनजाना भय समाया हुआ था जो गलत नहीं था।शिफ़्ट होने के कुछ दिनों बाद ही नैना हम पर बेवजह चिल्लाने लगी…हर काम में हमारी गलतियाँ निकालने लगी…।” कहते हुए वो अपनी दोनों आँखें पोंछने लगे।
“मौसम बदलने के कारण हमें ज़रा- सी खाँसी हुई तो बहू ने हमें सीलन-भरे कमरे में भेज दिया।मैं अपने पोते को देखने के लिये तरस जाती थी लेकिन नैना…।फिर एक दिन सुमित हमारे पास आया, बोला कि नैना अपने मायके जा रही है तो मैंने सोचा कि मैं भी आपको हरिद्धार में गंगा मईया के दर्शन करा लाऊँ।उसकी इस बात ने पिछली सब बातों को भुला दिया और मैं बैग में कपड़े रखने लगी।अगले दिन यानि कल सुबह सुमित हमें लेकर बस-स्टाॅप आया।हमें एक जगह बिठाकर बोला कि टिकट लेकर आता हूँ लेकिन वो नहीं आया।रात भर आँखें उसके आने का रस्ता(रास्ता) तकती रहीं…।” प्रभा जी गालों पर आँसू ढुलक गये।
” हमने रात वहीं की सीट पर बैठकर काटी और फिर सुबह सड़क के किनारे आ गये कि कोई गाड़ी-स्कूटर दिखे तो हम उसके नीचे आ जाये..।औलाद के सताये माँ-बाप का कौन ठिकाना…।” कामता बाबू रोते हुए पत्नी को सांत्वना देने लगे।
तब महेश और मीना ने आगे बढ़कर उन्हें गले लगाया और बोले,” आप अब कहीं नहीं जायेंगे..हमारे साथ रहेंगे।” महेश ने उन्हें बताया कि हम दोनों अनाथ हैं..काॅलेज में हम मिले थे…मैं रेलवे में काम करता हूँ और मीना स्कूल में पढ़ाती है।हमारी शादी के चार बरस हो रहें हैं लेकिन..।देवी माँ से संतान-सुख की प्रार्थना करके ही लौट रहें थें कि आप लोग हमें मिल गये।आप लोगों का आशीर्वाद ही हमारे लिये बहुत है। मीना बोली,” माताजी..घर ज़रा छोटा है लेकिन दिल..।”
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” बस बेटी..बहुत कह दिया..।” कहते हुए प्रभा जी ने उसे अपने गले से लगा लिया।
महेश-मीना को बड़ों का आशीर्वाद मिलने लगा और कामता बाबू- प्रभा जी को औलाद का सुख…।प्रभा जी मीना के काम में हाथ बँटाने लगी और कामता बाबू आसपास के बच्चों को पढ़ाने लगे।दो महीने बाद मीना गर्भवती हुई तो ये खबर उनके लिये किसी त्योहार से कम नहीं थी।
प्रभा जी मीना की पसंद की चीज़ें बनाती और उसे अपने हाथों से खिलातीं।तब महेश उनसे शिकायत करता,” आप मुझे प्यार नहीं करतीं…।” तब कामता बाबू कहते,” मेरी भी यही शिकायत है..।” फिर तो उनका घर ठहाकों से गूँज उठता। वक्त के साथ उनके बीच बँधा #मन का रिश्ता और भी मजबूत हो गया था।
मीना ने एक बच्ची को जनम दिया जिसका नाम प्रभा जी ने परी रखा।दो महीने बाद मीना फिर से स्कूल जाने लगी…महेश अपनी ड्यूटी पर…तब परी को कामता बाबू और प्रभा जी संभालते।परी ने चलना-बोलना शुरु किया तो कामता बाबू को एकबारगी लगा जैसे सुमित हो..।
समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा..परी तीन साल की हो गई थी।अपनी तोतली बोली में दादी बोलती तो प्रभा जी निहाल हो जाती।उन्होंने परी के लिये कितने ही सपने बुन डाले थे मगर अफ़सोस..भगवान ने उनसे वक्त छीन लिया।एक दिन शाम को अपने पति से बोलीं,” सब कुछ तो ठीक है..
बस एक बार सुमित को देख लेती..।” उनकी पीड़ा से अनजान कामता बाबू बोले,” धीरज रखो..एक दिन ज़रूर आयेगा..।” लेकिन वो दिन नहीं आया..उस रात के बाद उन्होंने कभी आँखें नहीं खोली..।कामता बाबू तो टूट ही जाते अगर महेश ने उन्हें संभाला न होता।
दादी की कमी तो परी भी महसूस करती थी।वो अपने दादा के साथ पार्क जाती और उनसे कहती,” दादाजी…मेरे दोस्तों को कहानी सुनाओ ना…।” इस आनंद को कामता बाबू रोज रात को प्रभा जी से शेयर करते।
एक दिन कामता बाबू परी की अंगुली थामे पार्क से निकल रहे थे कि अचानक सुमित से उनकी मुलाकात हो गई।अपने मन पर नियंत्रण कर वे अनजान बनकर निकल गये।उन्हें देखकर सुमित भी चौंक गया था।उसने उनका पीछा किया.. और घर वापस आकर नैना को सारी बात बताई।सुनकर नैना बोली,’ अरे! ये तो बहुत अच्छी बात है..आप अभी जाकर उन दोनों को यहाँ ले आइये..मुझे आराम मिल जायेगा।”
” लेकिन वो लोग नहीं आये तो..।” सुमित ने चिंता जताई।
” कैसे नहीं आएँगे..अपने इकलौते बेटे को भला कोई छोड़ता…।” नैना व्यंग्य-से हँसी।
अगले दिन ही सुमित महेश के घर पहुँच गया।कामता बाबू तो उसी का ही इंतज़ार कर रहें थें।महेश से उसका परिचय कराये तो वो बोला,” आइये..बैठिये..।”
” मैं बैठने नहीं, अपने पिता को लेने आया हूँ..चलिये पापा..अपने घर चलिये।” उसने कामता बाबू का हाथ पकड़ लिया जिसे उन्होंने झटक दिया, बोले,” मैं तो अपने घर में हूँ..।”
” आप गैरों के लिये अपने खून के रिश्तों को ठुकरा रहें हैं…इस छोटे-से घर में आपको क्या..।” सुमित की आवाज़ में अहंकार था।कामता बाबू बोले,” ये गैर ही सही लेकिन हमारे बीच #मन से जुड़े अटूट रिश्ते हैं जिसमें न कोई लोभ-लालच है और न ही अहंकार..।इनका घर छोटा ही सही लेकिन दिल तो बड़ा है।
तब तुमने अपने स्वार्थ के लिये हमें ठुकराया था और आज भी तुम किसी मतलब से ही यहाँ आये हो।” वो एक क्षण रुके, फिर बोले,” चलो..मैं तुम्हारे हाथ चलता हूँ मैं लेकिन महेश-मीना के प्यार-स्नेह और आदर-सम्मान का कर्ज़दार हूँ, वो लोन चुकता कर दो…मेरी पत्नी जो अब एक तस्वीर बन गई है, उसे लौटा दो..और तुम्हारी वजह से हमने जो शारीरिक- मानसिक यंत्रणा झेली है..वो सब हमें लौटा दो तो हम तुम्हारे साथ चल चलेंगे।” कहकर वो परी के साथ खेलने लगे।
सुमित पापा-पापा कहकर पुकारता रह गया, लेकिन कोई जवाब नहीं आया तो वो वहाँ से चला गया।तभी मीना चाय लेकर आई,” पापा जी..सुमित भैया?” तब तक सुमित वहाँ से जा चुका था।
विभा गुप्ता
# मन का रिश्ता स्वरचित, बैंगलुरु