मन की कड़वाहट – पूनम शर्मा : Moral Stories in Hindi

आज एक्साइज इंपेक्टर की ड्यूटी पर बिरला मार्केट में निरीक्षक की भूमिका में वंशिका मार्केट के मुख्य भाग में दाखिल हुई थी। सरकारी महकमे में ड्यूटी की व्यस्तता के कारण उसे बीते पल को याद करने की फुर्सत भी नहीं मिलती। बीस वर्ष के सेवाकाल में वर्तमान को समेटते समेटते भूत को उसने ताक पर ही रख दिया था।

आज बीस वर्ष बाद स्वतः चलकर मानो उसका बीता पल उसके सामने अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहा था। आकार और क्षेत्रफल वही था । मार्केट एक मंजिली दुकानें अब चार बडे़ माॅल में तब्दील हो चुकी थी। आदित्य बिरला सेक्टर-1, आदित्य बिरला सेक्टर-2, आदित्य बिरला सेक्टर-3,

आदित्य बिरला सेक्टर-4 । सरकारी निरीक्षण के जिम्मेदारियों को निभाने के बाद अनायास ही उसकी निगाह आदित्य बिरला सेक्टर-4 माॅल के ऊपर पडे़ नाम ‘सोनी वर्दी हाउस’ के नेमप्लेट पर पडी़।

वह स्वयं को सम्हालते हुए जब सामने की ओर नजर घुमाई तो, सामने जो छवी देखी उससे उसके मन की कड़वाहट जाग गई थी। अधपके लम्बे बाल के बीच उसका गोरा रंग, तीखे नैन-नक्श सब कुछ वैसा ही था, बदला था तो उसका व्यक्तित्व। उसमें अल्हण चंचलता की जगह पर अनुभव की गंभीरता स्पष्ट झलक रही थी।

आज शायद वह उससे मिलने के लिए वह अपने शाॅप से बाहर निकल कर आई थी। वह अनदेखा करके आगे की ओर बढी़ ही थी कि, हरप्रीत की आवाज उसके कानों पडी़- ‘वंशिका! ‘ वह अनायास ही पीछे मुडी़ । वह उत्सुकता से अपनी ओर इशारा करते हुए बोली- ‘मैं हरप्रीत, मुझे पहचाना नहीं।’ वह किंकर्तव्यविमूढ़ थी।

उसकी उपेक्षा करती हुई आगे निकल जाए या उसे खूब अच्छी तरह से पहचानती है, बता दे। लेकिन भावनाओं को नियंत्रित करते हुए एक औपचारिकता निभाती हुई बोली-‘हाँ हरप्रीत उर्फ सोनी।’ पहचान रही हूँ। तुम स्कूलिंग में मुझसे एक बैच आगे थी। तुम्हारी शादी यहीं हुई है क्या?’ अनायास ही उसके मुँह से निकल गया।

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‘नहीं नहीं तुम चलो ना मेरे साथ मेरे शाॅप पर मुझे अच्छा लगेगा।’ यह सुनकर वंशिका न चाहते हुए भी अपनी टीम को रिलेक्स होने के लिए सरकारी गेस्टहाउस में भेज स्वयं सोनी के साथ उसके शाॅप की ओर चल दी। वह शाँप ए.सी. माॅल के भीतर होने के कारण

वर्दी से तीन तरफ की दिवारों के शेल्फ भरे होने के बावजूद भी वहाँ किसी प्रकार के घुटन का एहसास नहीं हो रहा था। दुकान को देखते ही वंशिका बोली-‘तुम्हारी दुकान अच्छी खासी चल रही है।’ सोनी ने लम्बी साँस लेते हुए कहा-‘हाँ, वाहे गुरुजी की कृपा है।’ इसके साथ ही दोनों शाॅप के अंदर वाले कमरे पहुँच गई थीं।

वहीं उसका छोटा भाई रिमोट और टी.वी. के बीच व्यस्त नजर आ रहा था। सोनी ने सोफे पर बैठते ही नौकर को पानी लाने का आदेश दिया। वंशिका नौकर को मना करते हुए पानी न पीने की इच्छा जाहिर की। तभी सोनी ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘मैं तुम्हेंं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देने के साथ-साथ पच्चीस साल पहले तुम्हारे भावनाओं को तकलीफ़ पहुँचाने के लिए माफी माँगने के लिए यहाँ तुम्हें लाई हूँ।

जानती हो, जब मुझे तुम्हारे आने की खबर मिली तो, मुझे वाहे गुरुजी के इस चमत्कार पर विश्वास नहीं हो रहा था। मैंने तय कर लिया था कि मैं तुमसे मिलकर अपने कर्मों की माफी माँगने के इस अवसर को नहीं जाने दूँगी।’ उसकी बात सुन कर बात को आया गया करते हुए

वंशिका ने कहा-‘अरे! कैसी बात कर रही हो। मैं तो कब का सब कुछ भूल चुकी हूँ । तुम भी भूल जाओ। सारी बातें तभी खत्म हो गई, जब मेरा हर्ष मेरे पास वापस लौट आया। मुझे बीती बातों का कोई म्लान नहीं है, न ही किसी से कोई शिकायत।’ वंशिका सोनी कंधे पर हाथ रखते हुए बोली।

सोनी ने कहा- ‘नहीं, वंशिका! शायद तुमने मुझे शाप नहीं दिया, इसलिए मुझे वक्त ने सजा दी है।’ वह बात को बदलते हुए बोली-‘अच्छा, छोड़ दीजिए। आप अपने पति से मुझे नहीं मिलाएँगी।’ सोनी बनावटी मुस्कान बिखेरते हुए बोली- ‘तुम्हें चिढा़ने, भावनात्मक रूप से आहत करने के चक्कर में, हर्ष के साथ ही शायद प्रेम का सारा कोटा पूरा हो गया था,

तभी तो किसी और को मेरे जीवन में आने का इत्फाक ही नहीं बना।’ ‘क्या मतलब?’ सोनी की बात को बीच में काटते हुए वंशिका ने प्रश्न किया। क्योंकि उसके सूरत को देख कोई भी लड़का रिश्ते से इंकार ही नहीं कर सकता था। यद्यपि हर्ष का नाम उसके मुँह से सुनकर आज भी उसे अच्छा नहीं लगा था।

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उसने उसके और हर्ष के परिवार के द्वारा हिण्डाल्को छोड़ने के बाद की जो कथा सुनाई उससे उसके मन में सोनी के प्रति कड़वाहट करूणा में बदल गयी थी। वह कलाई के घडी़ पर नजर दौडा़ते हुए चाय की आखरी घूँट खत्म कर वहाँ से विदा ली । माॅल से निकलते ही वह ड्राइवर को गेस्ट हाउस चलने इशारा करते हुए,

खुद ही कार का दरवाजा़ खोलकर पीछे की सीट पर बैठ गयी । पता नहीं क्यों, उसे बार-बार सोनी के बीते पलों की याद आ रही थी। छः भाई बहनों में सोनी तीसरे नंबर की थी और छठे नम्बर पर उसका भाई बडी़ मन्नतो के बाद पैदा हुआ था। तीन साल तक वह सामान्य बच्चों की तरह ही था।, लेकिन चौथे साल में वह सोया था कि,

अचानक बिल्ली उसके उपर से गुजरी और उसको जो झटका लगा उससे उसका मानसिक विकास रुक गया। आज भी वह शरीर से चालीस की उम्र का होता हुआ भी चार साल के बच्चों वाली हरकत कर रहा था। वह बार-बार सोच रही थी कि, वक्त को ऐसी सजा उसे नहीं देना चाहिए था।

किस प्रकार बडी़ बहन की शादी करके पिता चल बसे, फिर दूसरी बहन की शादी होते ही माँ भी संसार से विदा हो गयीं। अब गृहस्थी का सारा भार, घर में बचे सदस्यों में सबसे बडी़ होने के कारण उसके कंधे पर था। उसने बताया कि ऐसा नहीं कि उसके लिए विवाह के रिश्ते नहीं आएँ लेकिन पहली बार आए रिश्ते ने भाई को अपनाने से अस्वीकार कर दिया।

उसे समाज की सोच समझ में आ गयी थी, इसलिए उसके बाद आए सभी रिश्तों को बडी़ बहनों के समझाने पर भी खारिज करती गयी। उसे अंदाजा लग गया था कि, जो परवरिश वह अपने घर में अपने भाई को दे पा रही है, वह दूसरे घर की बहू बनकर नहीं दे पाएगी।

अतः उसने शादी न करने का फैसला लेते हुए घर जिम्मेदारी अपने कंधे ले ली। दो छोटी बहनों को पढा़ने-लिखाने के बाद उनके इच्छित वर से व्याह कर भाई के साथ रहते हुए पैतृक व्यवसाय को आगे बढा़ रही है।

गाडी़ के रुकते ही उसकी तंद्रा भंग हुई। उसने स्वयं को गेस्ट हाउस के सामने पाया। अपने टीम के साथ देर रात तक रिपोर्ट बनाने में व्यस्त रही और सरकारी कामकाज निपटाने के साथ वह अपने कमरे में चली गयी। लम्बी व्यस्तता के बाद आज उसे नींद नहीं आ रही थी।

बचपन में ही हर्ष और उसके पिता ने अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलते हुए हर्ष के साथ उसकी शादी कर दी थी। उस समय वह कक्षा छः में थी । दोनों पिता ने उम्र को ध्यान रखते हुए पढा़ई में कोई रुकावट न आए दस साल बाद गौना कराने का निर्णय लिया।

हम दोनों साथ-साथ एक ही स्कूल में पढ़ते थें। अंतर्मुखी और शर्मिली होने के कारण कभी हर्ष से मिलने या उसके प्रति मन में किसी प्रकार के आकर्षण का ख्याल भी कभी नहीं आया।

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समर्पण – विजय शर्मा

मेरा मन जितना पढा़ई में लगता, हर्ष उसके विपरीत खेलकूद और अभिनय में शौक रखता। जिसका परिणाम यह हुआ कि, हाई-स्कूल में एक साल फेल होने के बाद जब वह दुबारा परीक्षा मेरे साथ दिया तो मैं जिला में तिसरा स्थान प्राप्त की और उसका रिजल्ट चालीस प्रतिशत पर सिमट गया।

हर्ष का व्यक्तित्व काफी आकर्षक था। रंग गोरा लम्बी कद काठी के कारण, वह उन दिनों रामलीला के मंच पर राम की भूमिका निभाता और सीता भूमिका में सोनी रहा करती। वहीं उन दोनों की दोस्ती और फिर प्यार दोनों के सर पर सवार था। उन दोनों ने कभी मेरी भावनाओं का ख्याल तो छोडो़ उसे आहत करने का कोई कसर नहीं छोडा़ था। पहले तो पढा़ई के कारण कुछ ज्यादा उनके संबंधों को तवज्जो नहीं देती थी। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ प्रेम और पत्नी के अधिकार का एहसास अनायास ही मेरे मन व्यथित करता रहा।

स्वभाव शांत होने के साथ- साथ साँवली साधारण नैन नख्श की होने के कारण स्वयं को हमेशा हर्ष से कमतर आँकती रही। जिसका परिणाम यह हुआ कि न तो मैं हर्ष के सामने कभी प्रश्न खडा़ कर पाई और न ही उसने कभी हमारे संबंधों की परवाह ही की।

इस बात की खबर हर्ष के पिता को लगी तो आनन- फानन में इंटर के बोर्ड परीक्षा खत्म होते ही गौना करवाकर अपने घर ले आएँ। हर्ष को स्पष्ट तौर पर फैसला सुनाते हुए कहा- ‘मैं तुम्हें त्याग सकता हूँ, लेकिन जिस लड़की को सामाजिक तौर अपनी बहू स्वीकार किया है, उसे अपमानित नहीं होने दूँगा। तुझ जैसे नालायक बेटे का बाप कहलाने से बेहतर उस जैसी सुशील बहू का ससुर कहलाना ज्यादा पसंद करुँगा। तूझे जो करना है कर, लेकिन ध्यान रखना तुम्हारा कोई भी गलत कदम तुम्हें इस परिवार से बेदखल कर देगा।’

इस प्रकार ससुर के सहयोग, चुनौतियाँ और हर्ष का उसके प्रति उपेक्षित व्यवहार ने आगामी पाँच वर्षों में बी.एसी. पास करने दो वर्ष बाद ही यू.पी.एस.सी निकालने में सफलता दिलाई। उस सफलता को दोनों ही परिवार (मायका/ससुराल) ने जश्न के रूप में मनाया । मुझे याद है नियुक्ति के दौरान सास-ससुर के फक्र भरे सम्मान ने मेरे मन से हर्ष से मिले अपमान और उपेक्षा की भावना धो डाला था। उसके बाद सास,ससुर और हर्ष तीनों वहाँ से प्रयाग राज उसके पास रहने आ गए थे, लेकिन हर्ष का वहाँ आना जान लगा रहता था। आज उसे हर्ष के उसके पास वापसी का कारण कुछ-कुछ समझ आ रहा था। शायद नियती ने उसे वापस मेरे पास लौटाने के लिए ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की हो। शायद नियती को हमारा मिलना मंजूर था, इसलिए वक्त ने ये करवट ली हो। वह कुछ भी तय नहीं कर पा रही थी। आज यह सब कुछ उसके समझ से परे था।

                               – पूनम शर्मा, वाराणसी।

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