मन की अशांति -शिव कुमारी शुक्ला : Moral Stories in Hindi

लखनऊ के गोमतीनगर जैसी पाश कॉलोनी में नेहा की आलीशान कोठी सिर उठाये खुले आसमान को निहारते प्रतीत होती। कोठी की भव्यता ही उसका परिचय देने के लिए काफी थी। उसके आसपास के मकान उसके सामने बौने से प्रतीत होते।

नेहा और निकुंज अपने दोनों बच्चों सारा एवं श्रेयस के साथ सुख पूर्वक रहते थे। निकुंज एक सफल विजनेसमेन था। छोटी उम्र में ही उसने व्यापार जगत में अपना नाम एवं व्यवसाय को अच्छे से स्थापित कर लिया था। बाहर से कोठी की भव्यता के अलावा अन्दर का इन्टीरियर तो और भी आकर्षक एवं मनमोहक था। रास्ते चलते जो भी एक बार कोठी को देख लेता वह जरूर पलटकर दोबारा उसे देखे बिना नहीं रह पाता।

नेहा हमेशा भारी भरकम साड़ी एवं गहनों से लदी रहती। कॉलोनी में रहने वाली अपनी सहेलियों को वह अपने से बहुत छोटा समझती। किसी के घर आने पर इठला-इठला कर अपने घर को दिखा कर अपनी अमीरी का उन पर रौब झाड़ती।नौकर चाकर रखने का रुतबा दिखलाती।

कॉलोनी वाली महिलाएं अपने मन में उसके भाग्य से ईर्ष्या करतीं। सोचतीं क्या किस्मत है इसकी ।इसकी तो पाॅचों उंगलीयां घी में हैं।उनका अच्छा रुतबा था।वे ज्यादा किसी से घुलते-मिलते नहीं थे। अपने पैसों के घमंड में उन्हें लगता कि उन्हें इन लोगों की क्या जरूरत है। 

तभी उसी कॉलोनी में एक युवा दम्पत्ति अपने दोनों बच्चों आठ वर्षीय बेटी रिया एवं छः वर्षीय बेटे शुभम के साथ रहने के लिए आए। राकेश एवं स्वाति दोनों ही उच्च प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत थे ऑफिस की गाड़ी उन्हें लेने छोड़ने आती। घरेलू कार्यों एवं खाना बनाने के लिये काम वाले थे। बच्चों को सम्हालने के लिए एक महिला को रखा गया था जो बच्चों के स्कूल से आने के बाद उन्हें खाना खिलाना,सुलाना, उठा कर होमवर्क कराना 

आदि काम देखती थी।वे मृदु भाषी, मिलनसार,सरल स्वभाव के लोग थे। दोनों ही पति-पत्नी को अपने पद, प्रतिष्ठा का लेशमात्र भी घमंड नहीं था। सबसे मिलते जुलते, बात करते। जरुरत पड़ने पर सबकी यथोचित मदद करने को भी तैयार रहते। कॉलोनी में होने वाले उत्सवों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते। उनके इन्हीं गुणों के कारण वे जल्दी ही कॉलोनी वासियों के चहेते बन गए।सब उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते।यह देख सुन नेहा के मन में उनके प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हो गई। उसे ऐसा लगता कि  जैसे अब उसकी महत्ता कम हो गयी। उसकी सहेलियां भी जब उससे मिलने आती तो उनकी सादगी और मिलनसारिताके गुणगान करती।यह सुन नेहा ईर्ष्या वश जलभुन जाती कहती ऐसा क्या है उनके पास जो सब उनके दीवाने हो रहे हो।

अरे नेहा उनकी सादगी,मदद करने की आदत ही सबको उनसे जोड़े रखती है।

एक सुबह वे ऑफिस निकलने की तैयारी कर ही रहे थे कि तभी पड़ोस में रहने वाली मिसेज सक्सेना रोती हुई स्वाति के पास आईं और बोलीं उनकी सास बाथरूम में फिसल कर गिर गईं हैं,घर में कोई नहीं है।मेरी मदद करो उन्हें हास्पिटल पहुंचाने में। सक्सेना जी टूर पर बाहर गए हैं।

दोनों तुरंत उनके घर पहुंचे। ड्राइवर की मदद से अपनी गाड़ी से ही हास्पिटल पहुंचाया। वहां भर्ती कराने की प्रक्रिया में बहुत समय लग गया। उन्होंने ऑफिस फ़ोन कर अपने न आने की सूचना दी और जब तक पैर का आपरेशन हो प्लास्टर नहीं चढ़ गया वे लोग वहां से हिले भी नहीं। लंचबॉक्स जो गाड़ी में रखे जा चुके थे उन्हीं में तीनों लोगों ने खाना खाया। दूसरे दिन छुट्टी मिलने पर उन्हें घर पहुंचाने में मदद की।

वे सामाजिक सरोकार के कार्य भी करते रहते । कॉलोनी में होने वाले उत्सवों में आर्थिक एवं स्वयं उपस्थित हो सहयोग करते। कॉलोनी में जितनी उनकी प्रशंसा हो रही थी उतनी ही अधिक नेहा को उनसे ईर्ष्या हो रही थी।वह सामने पड़ने पर भी स्वाति से बात नहीं करती। उसकी कोशिश रहती कि बात -बात पर उन्हें नीचा  दिखाने की किन्तु वह अपने प्रयास में सफल नहीं हो पाती। अपनी असफलता पर और अधिक जलभुन जाती और स्वयं पर ही  क्रोध निकालती।

खैर सुबह के बाद दिन आता और दिन सांझ में ढल जाता,सांझ रात्रि की कालिमा में खो जाती। रात्रि की कालिमा को चीरकर सुबह अरुणोदय का सुहाना दृश्य मन मोहते हुए प्रकट होता और भास्कर अपनी प्रखर किरणों के साथ फिर दिन का उजाला फैला देते। जीवन अपनी रफ़्तार से चल रहा था।समय अपनी गति से भाग रहा था और नेहा का सुख -चैन ईर्ष्या के कारण छिन गया था।वह अपने सुखों से सुखी होने के बजाए स्वाति एवं राकेश के सुख से दुखी थी।वह बस अपना जीवन जीना छोड़ छल-प्रपंच करने में ही लगी रहती ताकि उस दंपति को नीचा दिखाकर लोगों की नजरों में गिरा सके।अपना सारा सुख -चैन गवां कर नेहा ईर्ष्या की आग में झुलस रही है न जाने कब उसे शान्ति मिलेगी।कब वह वस्तु स्थिति समझ अपने सुखी जीवन का आंनद ईर्ष्या मुक्त हो ले सकेगी।

शिव कुमारी शुक्ला

स्वरचित अप्रकाशित 

विषय वस्तु ***ईर्ष्या 

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