मन का रिश्ता – सीमा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

“परी, तुम्हें पता है ना! मुझे सिर्फ तुम्हारे हाथ का गर्म खाना अच्छा लगता है। फिर भी तुम इतनी देर से आई। जो लंच तुम सुबह पैक करके देती हो, वह तो मैं ऑफिस में ठंडा ही खा लेता हूं। मैंने कभी शिकायत की क्या? पर यार, मुझे ब्रेकफास्ट और डिनर तो गर्म ही चाहिएं। तुम हमेशा ध्यान रखती हो। आज तुम्हें क्या हो गया?” परिधि के पति हर्षित ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा, जैसे ही किताबों का बंडल संभालते हुए, रात के 9:30 बजे परिधि ने घर में कदम रखा।

वैसे तो परिधि ने कभी नौबत ही नहीं आने दी कि हर्षित ऐसा कहे, फिर भी कोई और दिन होता तो परिधि कह देती कि आगे से ध्यान रखूंगी। पर अपने विवाह के बाद आज पहली बार पुस्तक मेला जाकर आई परिधि से कुछ कहते नहीं बना। उसका गला अवरुद्ध हो गया।

“क्या बात है, हर्ष बेटा? बेचारी अभी-अभी घर आई है। बुक्स फेयर में इधर-उधर दौड़ते हुए थक गई होगी। तू स्वयं कह रहा है कि आज पहली बार तुझे डिनर ठंडा खाना पड़ा और आज ही शिकायत करने लगा। मैं कह दूंगी इसे, आगे से ध्यान रखेगी। मुझे पता है मेरी बहू परिधि कभी शिकायत का मौका नहीं देगी।” हर्षित को शांत करते हुए हर्षित की मां सरिता ने कहा।

हर्षित के पापा भी बोले, “परिधि बेटा, तुम हर्ष की बातों का बुरा मत मानना। इसका हर तरह से ख्याल रखती हो तुम। इसलिए यह तुम पर डिपेंडेंट हो गया है।.. और सिर्फ इसका क्या, तुम हम सब के प्रति अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह निभाती हो। हमारे खानदान की सबसे सुघड़ बहू हो तुम और मुझे तुम पर बहुत नाज है। क्या हुआ बेटा, अगर एक दिन सब ने ठंडा खाना खा लिया! कल से तो ………..”

आगे का परिधि सुन ही नहीं पाई। अपनी आंखों में उमड़ते आंसुओं को उसने मुश्किल से रोका। उसे फ्रेश होने की आवश्यकता है, सरिता मां को ऐसा इशारा कर अपने कमरे में दौड़ी चली आई। 

सास-ससुर की वाणी में मिठास के साथ-साथ उसकी प्रशंसा थी, तो पति हर्षित की नाराजगी में भी उसकी तारीफ ही थी। फिर भी कमरे में आते ही परिधि के जबरदस्ती रोके हुए आंसुओं का बांध सैलाब बनकर फूट पड़ा।

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पति, सास-ससुर व पूरे खानदान की लाडली बहू थी परिधि। चार साल पहले हर्षित के साथ वह विवाह के रिश्ते में बंधी थी। तब से इसे मन का रिश्ता मान, अपनी तारीफें सुनकर खुश होती हुई परिधि हर काम और अधिक निपुणता से करती। उसने कभी शिकायत का कोई अवसर दिया ही नहीं था। आज सब की बातों से यह साफ-साफ विदित भी हो रहा था।

उधर मायके में भी उसके मम्मी-पापा और भाई-भाभी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता, जब ससुराल वाले उनकी बेटी परिधि के गुणों का बखान करते न थकते।

परिधि के संस्कार ही ऐसे थे कि आदर्श बहू होने में उसे बहुत खुशी मिलती थी। पर आज की प्रशंसा परिधि के दिल को प्रफुल्लित करने की बजाय उसे चीर रही थी। वह आत्ममंथन में डूबने लगी। उसे अनुभूति हो रही थी कि आदर्श बहू का रिश्ता निभाने की कितनी बड़ी कीमत चुका रही थी वह।

परिधि सोचने लगी, “चार साल में आज पहली बार ही हुआ कि उसने गर्म खाना नहीं बनाया। डिनर के लिए सब कुछ तैयार करके रख गई थी। खाने के लिए केवल गर्म ही तो करना था!”

“और मुझे सिर्फ आज के लिए क्यों जाना था? मेरी तो हर बार पुस्तक मेला में जाने की अभिलाषा है। पर अभी बाहर हुई मेरी प्रशंसा के अनुसार तो मुझे आगे से नहीं जाना चाहिए!” परिधि को रह-रहकर आज की प्रशंसा का एक-एक शब्द चुभने लगा। 

पुस्तकों से बेहद लगाव रखने वाली परिधि का मायका दिल्ली में है। अपने विवाह से पहले तो वहां आयोजित होने वाले हर पुस्तक मेले से वह ढेरों पुस्तकें खरीदकर लाती ही थी, विवाह के बाद भी मायके जाने पर अगर संयोग बनता तो वह यह मौका कभी न गंवाती। अब तक न जाने कितनी पुस्तकें पढ़ चुकी है वह।

परिधि अपने ससुराल घर से पुस्तक मेला आज पहली बार गई थी। उसके विवाह के समय उसके पति हर्षित की पोस्टिंग भोपाल जिले के एक कस्बे में थी, तो उसे यह अवसर नहीं मिला था। दो महीने पहले ही उसका स्थानांतरण भोपाल जिला मुख्यालय पर हुआ है। परिधि तो स्थानांतरण की खबर भर से ही खुश हो गई थी कि अब वह फिर बुक फेयर जाया करेगी। पर आज की प्रशंसा से उसका उत्साह ठंडा पड़ गया।

बात केवल पुस्तक मेले की नहीं थी। ऐसा होता तो बहू के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूर्ण रूप से निभाने के लिए, अपने ससुराल वालों की इच्छा का मान रखते हुए परिधि अपनी सरकारी नौकरी से खुशी-खुशी त्यागपत्र न देती। बात यह थी कि उसकी छोटी सी इच्छा से भी किसी को सरोकार नहीं! किसी ने भी नहीं कहा कि परिधि तुमने पुस्तक मेला जाकर अच्छा किया, तुम्हें अपनी रुचियों को भी कुछ समय देना चाहिए! हाय! आज परिधि के मन को जो आघात लगा, वह किससे कहे?

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माता-पिता और भाई-बहन से बेशक खून का रिश्ता है, पर वह जानती है कि अगर उन्हें फोन करेगी तो उस ओर से ससुराल की मर्यादा, पत्नी के कर्तव्य, त्याग का महत्व, सास-ससुर का सम्मान, जैसे संस्कारों की दुहाई दी जाएगी। इनका तो वह आज तक स्वयं ही पालन करती आई है।

क्या कोई रिश्ता नहीं है जिससे वह अपनी व्यथा बांट सके? परिधि को अपनी प्रिय सखियां याद आती हैं। पर अगले ही पल, घर की बात बाहर न पहुंचाने की मर्यादा उसे जकड़ लेती है। दोस्ती का रिश्ता भी आज की उसकी मनोस्थिति में उसे बेमानी नजर आता है।

कहते हैं कि जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तब अंतर्मन कोई रास्ता अवश्य निकालता है। रोते-रोते आंखें और गला सूखने लगा तो परिधि पानी पीने के लिए उठी। तभी उसकी नजर आज खरीद कर लाई पुस्तकों के बंडल में सबसे ऊपर की पुस्तक पर पड़ी। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था: मेरी डायरी।

बस फिर क्या था? विवाह से पहले, ‘डेली डायरी’ लिखने वाली परिधि ने वर्षों बाद आज फिर उठा ली अपनी डायरी। बिना किसी परिधि के अर्थात बिना किसी मर्यादा के, खुले मन से परिधि की कलम आज हुई उसकी प्रशंसा के शब्दों का विश्लेषण करने लगी।

परिधि लिख रही थी, “आज सब ने ठंडा खाना खाकर मुझ पर एहसान किया है। सबको उम्मीद है कि…! नहीं नहीं, सिर्फ उम्मीद नहीं, बल्कि पूर्ण विश्वास है कि ऐसा केवल एक दिन के लिए हुआ है! कल से मैं अपने कर्तव्य में कोई चूक नहीं करूंगी। सबको अपने हाथों से बना कर गर्मा-गर्म खाना ही खिलाऊंगी क्योंकि मैं आदर्श बहू हूं।”

हमेशा ससुराल के प्रति कर्तव्यों को प्राथमिकता देने वाली परिधि के दिलो-दिमाग पर छाया अवांछित दबाव शब्दों का रूप ले रहा था, “क्या यही आदर्श बहू की परिभाषा है कि कर्तव्यों के निर्वहन में अपनी अस्मिता को मिटा दे? क्या मेरा ससुराल में कोई अधिकार नहीं है? विवाह के चार साल बाद भी अपनी अभिरूचि के कार्य के लिए ‘खाना बनाने से एक छुट्टी’ लेने का अधिकार नहीं?

परिधि का आत्म-मंथन जारी था। उसकी कलम इस निष्कर्ष पर पहुंची, “मुझे अधिकार तो है, लेकिन आदर्श बहू का तमगा छिन जाएगा। तो छिन जाने दो। मेरी हार्दिक अभिलाषा थी कि मैं ‘सास-बहू का रिश्ता’ और ‘पति-पत्नी का रिश्ता’ के स्थान पर ससुराल में सबसे ‘मन का रिश्ता’ जोड़ूंगी। पर आज मुझे अहसास हुआ कि मैं तो ‘स्वार्थ का रिश्ता’ ढो रही हूं।”

अब परिधि की कलम उसके निश्चय को लिख रही थी, “बेशक मुझे आदर्श बहू का खिताब न मिले, मैं हर कर्तव्य को पहले की तरह निष्ठा और ईमानदारी से निभाऊंगी, पर अपने अधिकारों का हनन नहीं होने दूंगी। अपने अधिकारों और अस्मिता की रक्षा करना भी मेरा कर्तव्य है।”

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इतना सब लिखने के बाद परिधि का सारा तनाव छंट गया। ‘मन का रिश्ता’ वहीं जुड़ सकता है जहां बिना किसी अवांछित उम्मीद के अपनापन मिले, जहां सबकी इच्छाओं और विचारों का सम्मान हो।

‘डायरी’ के साथ उसका ‘मन का रिश्ता’ जिसकी उसने अनदेखी कर दी थी, फिर से लहलहाने लगा। अब वह बहुत खुश थी क्योंकि वह ‘डायरी’ से अपने मन की हर बात बेझिझक कर सकती है। इस रिश्ते में न कोई स्वार्थ है, न मर्यादा का बंधन और है तो अदृश्य लेकिन सच्चा, गहरा, मजबूत और निश्छल बंधन।

-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)

 साप्ताहिक विषय: #मन का रिश्ता

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