मन का रिश्ता – रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi

अनजाने माहौल में… घर से हजारों किलोमीटर की दूरी पर… अनुराधा अपने पति का हाथ थामे… शादी के बंधन में बंधी… पहुंच गई… 

गांव से शहर आने का जोश… एक अलग होता है… पर यहां उसे शहर की चकाचौंध छोड़… गांव में आना पड़ा… 

शिवम की पोस्टिंग… तमिलनाडु के छोटे से कस्बे में हो गई थी…

 शादी के कुछ ही महीने बाद… उसका तबादला हो गया… अनुराधा को लेकर शिवम तमिलनाडु पहुंच गया… 

अनु के सास ससुर दोनों ही अलग विचारों के थे… उन्होंने अनु के साथ यहां आने के लिए साफ मना कर दिया…

” जाओ… तुम्हारी गृहस्थी है… पहले बसा लो… फिर आना जाना तो लगा ही रहेगा…!”

 अनु मन ही मन खुश हो गई…” वाह यह तो रोज का हनीमून होगा… नई जगह… नए लोग… उसमें पति का साथ… बहुत मजा आएगा…!”

 मगर यह मजा एक दिन भी काम नहीं आया…शिवम अपने काम को लेकर बहुत ईमानदार था…इसलिए वह जाते ही अपने काम में लग गया… 

अब अनु के लिए पहली समस्या तो भाषा की ही थी… उसने सोचा था अंग्रेजी से काम चल जाएगा… पर ग्रामीण परिवेश होने के कारण… हर किसी को अंग्रेजी का ज्ञान नहीं था…

 हिंदी बोलना तो बिल्कुल बेकार ही था… ऐसी जगह जाकर फंसी थी कि कोई बिरला ही हिंदी भाषी मिले…

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एक हफ्ता बीतते अनुराधा बुरी तरह परेशान हो गई…

 शिवम सुबह 8:00 बजे के गए… शाम को छह सात से पहले घर नहीं आता था…

 यह दिन भर का समय… अनु के लिए मुसीबत से भरा होता… ना कोई काम… ना कोई बात करने को.… नेटवर्क की भी समस्या थी… तो फोन भी ठीक से काम नहीं करता था…

 एक दिन तो अनु रो पड़ी…” शिवम प्लीज… मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ… मेरा बिल्कुल मन नहीं लगता घर में…!”

” अरे तो क्या करूं… नौकरी छोड़ दूं… इतनी अच्छी नौकरी है… कुछ दिन और देख लो… सब सही रहा तो अगले साल तक हम वापस अपने घर की तरफ पोस्टिंग ले लेंगे…!”

” नहीं शिवम… एक साल मैं कैसे रहूंगी यहां… मुझसे नहीं होगा…!”

” होगा… निकलो ना घर से… लोगों से मिलो… बातें करो…!”

 शिवम बोलता रहा और अनु रोती रही… क्योंकि वह जानती थी… यह उसके लिए संभव नहीं था…वह कोशिश कर चुकी थी.…

 बाहर निकल कर किसी से बात करने की… घूमने फिरने की… पर कोई उसकी बात समझे तब ना…

 उसके घर से हटकर और भी कई घर बने हुए थे… एक दिन यूं ही टहलते हुए अनु शाम को बाहर निकल गई… 

टहलते हुए घर से थोड़ी अधिक दूर आ गई…यहां एक बड़े से पेड़ के नीचे… चबूतरे पर कुछ महिलाएं बातें कर रही थीं… 

अनु का भी जी चाहा कि कोई उससे बात करे… वह ठिठक गई…

 एक ने कुछ पूछा भी… पर उसे कुछ समझ में नहीं आया… वह आगे बढ़ने को ही थी… कि तभी किसी ने पीछे से पूछा…

” हिंदी हो…!”

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 अनु के कान यह शब्द सुनने को कब से तरस रहे थे… उसने खुश होकर पलट कर देखा… तो एक सोलह सत्रह साल की लड़की थी…

 उसने फिर थोड़ा अदब से पूछा…” हिंदी हो क्या…!”

 अब अनु चमकती आंखों से बोल पड़ी…” हां तुम भी…!”

” नहीं मैं तमिल… थोड़ा-थोड़ा जानती… हिंदी पढ़ती…!”

” अच्छा… बहुत अच्छा लगा तुमसे मिलकर… मैं तो यहां किसी से बातें करने को तरस गई…!”

 उसके बाद अपनी टूटी फूटी हिंदी में… कंचन ने उससे बहुत सी बातें की…

 कंचन गरीब थी… यहां वहां काम करती थी… अनु ने उसे अपने घर काम पर रख लिया…

 अब अनु को एक दुभाषिए की तरह कंचन मिल गई थी…वह अपना काम खत्म होने के बाद भी दिन भर अनु के आगे पीछे डोलती रहती..…

अनुराधा भी उसे अपनी छोटी बहन की ही तरह मानती… 

कंचन ने अनु से कहा कि…” आप हिंदी पढ़ाइए… यहां बहुत बच्चे पढ़ना चाहते हैं… मैं बच्चे ले आऊंगी…!” 

अनु को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई… कुछ ही दिनों में चार-पांच बच्चे इकट्ठे हो गए.… 

अब अनु भी उनकी भाषा समझने लगी थी…

यूं ही देखते-देखते एक साल बीत गया…

शिवम ने अपना तबादला वापस घर की तरफ करवा लिया… पर अब अनु यह सब छोड़ कर जाना नहीं चाह रही थी…

 इस एक साल में… ऐसा गहरा मन का रिश्ता उन बच्चों से… खासकर कंचन से.… जुड़ गया था… कि उसे छोड़ना बहुत मुश्किल हो रहा था…

 यहां से जाते समय अनुराधा की आंखों में आंसू थे… उसने कंचन को गले से लगा लिया…

 तभी तो कहते हैं… हर जगह अपनों का साथ… खून के रिश्ते मिले ना मिले… पर अगर नीयत खड़ी हो… ईश्वर का साथ हो… तो मन के रिश्ते मिल ही जाते हैं…ये ऐसे रिश्ते होते हैं… जो बिना किसी उम्मीद के हमारा जीवन भर साथ देते हैं…

 

रश्मि झा मिश्रा

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