“रोहन बेटा आज तुमने आने में बहुत देर कर दी। सुबह से कितनी बार मैं मैनेजर साहब से तुम्हारे और मानसी बिटिया के बारे में पूछ चुकी हूँ। मुझे तो लगा था, आज तुम नहीं आओगे। मेरे दोनों बेटों की तरह तुमने भी मुझे अकेला छोड़ दिया।” आँखों में आँसू भरकर रमादेवी ने कहा।
“ऐसा भला कैसे हो सकता है माँ। आपसे तो हम दोनों का मन से रिश्ता जुड़ चुका है, जो कभी नहीं छूट सकता। क्यों सही कहा न मैंने।” अपनी पत्नी मानसी को देखकर मुसकराते हुए रोहन ने कहा।
“बिलकुल सही कहा रोहन। अब इन बातों को छोड़ माँजी को लाया उपहार तो दिखाओ, जिसके कारण आज हमें आने में देर हो गई।”
“उपहार वो किसलिए बेटा। आज क्या कोई विशेष बात है?” रमादेवी ने हैरानी से पूछा।
“विशेष बात तो है। आपके आशीर्वाद से मुझको पदोन्नति मिली है। खोलकर तो देखिए, आपको पसंद है या नही। आपकी बहू की पसंद है।”
“बहू की पसंद तो अच्छी ही होगी, तभी तो उसने तुझ जैसे कोहिनूर को चुना है।”
“और मैं माँजी।” मानसी ने झूठ-मूठ की नाराजगी दिखाते हुए पूछा।
“तू तो लाखों में एक है बहू। अब दिखा क्या उपहार लाई है?”
साड़ी! कितनी सुंदर है। महँगी होगी न, साड़ी पर हाथ फेरते हुए रमादेवी ने पूछा।
आपके प्यार के आगे तो कुछ भी नहीं। पसंद आई न।” मानसी ने पूछा।
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“वैसे इसकी क्या ज़रूरत थी बेटा। जिसके पास तुम्हारे जैसे बेटा-बेटी हों तो उसे किसी उपहार की क्या आवश्यकता है।”
“क्या कोई बेटा अपनी माँ को कुछ दे नहीं सकता। फिर मुझे यह दूसरी ज़िंदगी तो आपके कारण ही मिली है। आज भी मुझे वह दिन याद आता है तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं, कैसे आपने मेरी और बढ़ती मौत को वापस लौटा दिया था।”
“रोहन बेटा, सबके जीवन की डोर तो ईश्वर के हाथ में हैं। हम तो बस उनके हाथ के मोहरे हैं। जन्म-मृत्यु सब उसके अधीन है। कहते हैं न ‘जाको राखे साइयाँ, मार सके ना कोय’।
“छोड़ो भी पुरानी बातें। आप यह साड़ी पहनेंगी न।” मानसी ने पूछा।
“मेरे बेटा-बहू लाए हैं तो क्यों न पहनूँगी।”
“माँ आपसे एक बात पूछनी है, क्या आप मेरे घर हमेशा के लिए चलेंगी,” रोहन ने रमादेवी से संकोच से पूछा।
“पर बेटा, तुम्हारे घरवाले।”
“कोई नहीं है। मम्मी का दो साल पहले एक दुर्घटना में निधन हो गया। पापा तो बचपन में ही मुझे छोड़कर जा चुके थे।”
“ओहो। यह तो बहुत बुरा हुआ, पर बेटा मेरे रहने से तुम्हें परेशानी होगी।”
“भला माँ के रहने से किसे परेशानी होती है। इन तीन महीनों में आपसे मन का रिश्ता जुड़ गया है। बस आप हाँ कर दीजिए। फिर हम मैनेजर से बात करके आपको घर ले जाएँगे। आपके रहने से मानसी को भी सहारा मिल जाएगा।”
“सच में तुम मुझे अपने घर ले जाना चाहते हो!”
“बिलकुल सच।”
कुछ देर बाद•••
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“सर यह तो बहुत खुशी की बात है, पर क्या आपने अच्छी तरह सोच लिया कि आप रमादेवी को यहाँ से ले जाना चाहते हैं। इस उम्र में जहाँ इनकी अपनी संतान इन्हें बेकार फर्नीचर समझ वृद्धाश्रम में छोड़ गई, वहीं आप इन्हें अपने साथ ले जाना चाहते हैं।” मैनेजर ने हैरानी से रोहन और मानसी से पूछा।
“हमने अच्छी तरह से सोच लिया है। पंद्रह दिन बाद माँ का जन्मदिन है। हम चाहते हैं, वो अपना यह जन्मदिन हमारे घर पर मनाएंँ।
“रमादेवी जी बहुत भाग्यशाली है, जो उन्हें आप मिले। इस उम्र में जहाँ अपने अपनों को भार समझ खून के आँसू रुला देते हैं, वहीं आप जैसे लोग उन्हें अपनी पलकों पर बैठाना चाहते हैं।”
“भाग्यशाली तो हम हैं, फिर हमने ऐसा तो कुछ विशेष नहीं किया। इन्हें देखकर लगता है, पूर्व जन्म में इनसे कोई रिश्ता है। फिर जिस माँ के प्यार के लिए हम तरस रहे हैं वो हमें मिल जाएगा।
“ठीक है। जैसी आपकी मर्जी। कुछ दिन लगेंगे औपचारिकताएँ पूरी करने में। इसके बाद आप इन्हें अपने घर ले जा सकते हैं। काश इस तरह के सब बच्चे हो जाएँ तो वृद्धाश्रम की ज़रूरत ही न पड़े।” मैनेजर ने कहा।
कुछ दिन बाद रमादेवी रोहन और मानसी के साथ खुशी-खुशी नए आशियाने की ओर चल पड़ी।
सच कहा है, दुनिया में कुछ रिश्ते खून से भी बढ़कर होते हैं जो मन से जुड़े होते हैं।
अर्चना कोहली ‘अर्चि’ (नोएडा)
स्वरचित और अप्रकाशित रचना