मक्खनबड़े – नीरजा कृष्णा

माधवी की मायके जाकर होली खेलने की अतीव इच्छा इस साल पूरी हुई। पाँच सालों के बाद वो सपरिवार आगरा पहुँची थी। इतने लंबे सफ़र की थकान के बाद सुबह आँखें खुलीं तो रसोईघर से आती खटर पटर की आवाज से चौंक गई… अरे इतनी सुबह कौन हैं। दीवार घड़ी पर निगाह पड़ी तो अभी पाँच ही बजे थे। हड़बड़ा कर उधर गई तो क्या देखती है…भाभी सुनंदा फेंटा कसे तैनात हैं। स्नेह से वो दौड़ कर उनसे लिपट ही गईं,

“ये क्या भाभी, इतनी सुबह से जुट गईं आप तो! चाय शाय निपटा कर हम दोनों मिल कर बनाऐंगे ना।”

“अच्छा जी, भैया से डाँट खिलवाओगी। इतने दिनों पर बहन आई है और चौके में जोत दिया।”

माधवी चाय पीते हुए बोल पड़ी,”भाभी, मैं नहा धोकर आती हूँ, दहीबड़े और मालपुए मैं बनाऊँगी।”

दोपहर में सब खाने बैठे। दहीबड़े मुँह में डालते ही भैया बोल पड़े,” वाह वाह! आज तो सालों बाद अम्मा के हाथ का स्वाद मिला है। दहीबड़े हैं या मक्खनबड़े…इतने मुलायम और नाजु़क… बिल्कुल अम्मा के जैसे।”



भाभी कचौड़ी देते हुए बोली,”सब कमाल अपनी माधवी का है। अभी भी लगी पड़ी है।”

ये सुनते ही भैया आश्चर्य से बोले,” मधु! तू  तो बहुत छोटी थी जब अम्मा चली गई थीं। ये कहाँ से सीखे तूने?”

वो खुशी से बौरा सी गई और एक बाउल से मालपुआ निकाल कर उनके मुँह में ठूँस दिया। वो निहाल हो गए और जेब से सौ का नोट निकाल कर उसके हाथ पर रखते हुए बोले,”आज तो तूने अम्मा की याद दिला दी। बिल्कुल ऐसा लग रहा है …सामने अम्मा खड़ी हो गई हैं।”

तभी भाभी स्नेह से बोल ही पड़ी,”और आपने आज बाबूजी की याद ताज़ा कर दी। हमलोग कुछ बढ़िया बनाते थे , वो इसी तरह खुश होकर आशीष देते थे और नोट पकड़ा देते थे।”

उनकी आँखों से आँसू छलकने लगे।माधवी दौड़ कर उनके गले लग गई।

 

नीरजा कृष्णा

पटना

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