किसी पहाड़ी स्थान पर एक संत की कुटिया थी। पहले वह पर्वत शिखर पर, गुप्त गुफाओं में तप करते थे। बाद में कभी-कभी लोगों के आग्रह पर बस्ती में भी आने लगे। भक्तों ने कुटिया बना दी तो वहाँ रहना उनकी विवशता हो गई। भला अपने श्रद्धालुओं का आग्रह कैसे टालते।
संत रहने लगे, तो भक्तों की भीड़ अपने-आप आ जुटी। शिष्य सेवा में लग गए। देखते-देखते कुटिया ने एक बड़े आश्रम का रूप ले लिया। वहाँ पर समय आने-जाने वालों की भीड़ लगी रहती। आखिर दुनिया में कष्ट कम तो हैं नहीं। लोग उनसे अपनी समस्याओं के हल पूछते। दुनिया का सुख-ऐश्वर्य माँगते। संत हँसकर रह जाते। कहते, “तुम्हारे कष्ट दूर हों इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना कर सकता हूँ। मुझ फकीर से और मिल भी क्या सकता है।”
संत ने कभी अपने को सिद्ध नहीं बताया, कोई चमत्कार नहीं दिखाया, फिर भी लोगों की श्रद्धा उन पर बढ़ती गई। वह अपने शिष्यों को सत्य का मार्ग अपनाने और सरल जीवन जीने की सलाह देते। कहते, “आँखें जो कुछ देखती हैं, उसके अतिरिक्त भी है देखने के लिए। देखो और पहचानो।”
एक बार उस इलाके के सबसे बड़े सेठ संतजी के दर्शनों को आए। उनके चरणों में भेंट चढ़ानी चाही पर संतजी ने मना कर दिया। सेठ चाहते थे कि संतजी शिष्य मंडली सहित उनकी हवेली को पवित्र करें। वह न्योता देने आए थे। वैसे संतजी कहीं नहीं जाते थे। आश्रम की बगिया में जो अन्न, फल व साग-भाजी उपजती उसी से पेट भरते थे सब। सेठजी ने बहुत आग्रह किया तो संतजी ने मान लिया।
संतजी सेठजी की हवेली में चरण धूलि देंगे, इसका समाचार दूर-दूर तक फैल गया। सेठजी ने उस अवसर पर आस-पास के बहुत-से लोगों को निमंत्रण दे डाला। आश्रम में रोज इस तरह की खबरें आतीं कि सेठजी कैसा भव्य आयोजन कर रहे हैं। निश्चित दिन संतजी शिष्य मंडली के साथ चल दिए। सेठजी ने उन्हें ले जाने के लिए गाड़ियों का प्रबंध किया था, पर संतजी ने कहा, “हम सब पैदल ही आएँगे।”
1
उस दिन सुबह से ही मौसम खराब था। थोड़ी देर में मूसलाधार वर्षा होने लगी, लेकिन संतजी रुके नहीं। शिष्यों के साथ ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी मार्ग पर बढ़ते गए। बदन को छेद डालने वाली ठंडी हवा चलने लगी। संतजी चले जा रहे थे। हाँ, उनके शिष्य अवश्य घबरा रहे थे।
सेठ की जगमग हवेली दिखाई दी तो शिष्यों के कदमों में तेजी आ गई। उन्हें लंबा रास्ता तय करने में खूब भूख लग आई थी। रास्ते में थोड़ी दूर पर एक टूटी-फूटी झोंपड़ी थी। शिष्यों ने यह नहीं देखा कि उनके गुरुजी उस झोंपड़ी में घुस गए हैं, वे अपनी धुन में मस्त आगे बढ़े जा रहे थे। उनकी कल्पना में हवेली की दावत के दृश्य घूम रहे थे।
किसी को पता नहीं था कि संतजी ने उस झोंपड़ी से आती किसी के कराहने की आवाज सुन ली थी। संत ने झोंपड़ी में जाकर देखा, एक आदमी फर्श पर बेहोश पड़ा था। बेहोशी में बड़बड़ा रहा था। संत ने वही आवाज सुनी थी। संत ने इधर-उधर नजर घुमाई। झोंपड़ी में न कोई कपड़ा था, न खाने-पीने की सामग्री । उस आदमी का बदन ठंडा हो रहा था।
संतजी ने अपनी चादर उसे ओढ़ा दी। फिर उसके हाथ-पैरों को मलने लगे, जल्दी से बाहर आए। कुछ लकड़ियाँ इकट्ठी करके ले गए, उन्हें जलाया। थोड़ी देर में झोंपड़ी की हवा गरम हो गई। आदमी की बेहोशी दूर हो गई।
उधर सेठजी की हवेली में हड़कंप मच गया। संतजी का कहीं पता न था। उनका कोई शिष्य नहीं जानता था कि वे कहाँ गए। आखिर शिष्य गण और सेठ संतजी को ढूँढ़ने निकले। उस समय भी तेज हवा बह रही थी। सब चिंता में डूबे उस झोंपड़ी के पास से निकलकर आगे बढ़ गए। किसी को कल्पना भी नहीं थी कि संतजी उस झोंपड़ी में हो सकते हैं।
थोड़ा आगे जाकर सब लोग फिर लौटे। वे आपस में चर्चा कर रहे थे कि गुरुजी कहाँ चले गए?
इस तरह गुरुजी की खोज में शिष्य कई बार इधर-उधर आए-गए। गुरुजी मुस्कराते हुए उन लोगों को देख रहे थे। पर उन्होंने आवाज नहीं दी। तभी उनके एक शिष्य को जैसे कुछ ध्यान आया। वह झोंपड़ी में घुसा और उनके पैरों पर गिर पड़ा। अब तो बाकी शिष्य भी अंदर आ गए। गुरुजी को नंगे बदन देखकर आश्चर्य करने लगे।
गुरुजी ने मुस्कराकर कहा, “बाकी बातें बाद में, पहले इस आदमी को कुछ भोजन और दवा देनी है। यह भूख और ठंड से परेशान है।”
2
गुरुजी के संकेत पर लोग उस व्यक्ति को हवेली में ले गए। एक शिष्य ने गुरुजी को अपनी चादर ओढ़ा दी, फिर सब शिकायती लहजे में बोले, “गुरुदेव, हम आपको ढूँढ रहे थे, और आपने हमें बताया तक नहीं कि आप यहाँ बैठे हैं।”
संतजी हँस पड़े, बोले, “मैंने बेहोश आदमी के कराहने की आवाज सुन ली, पर तुम दावत की कल्पना में मग्न थे। अपने सुख में दूसरों का दुख दिखाई नहीं पड़ता, तुम उसकी आवाज सुन लेते तो मुझे ढूँढना भी कठिन न
होता। तुम ढूँढो तो पाओगे, जहाँ अँधेरा है वहीं उजाला होना चाहिए, जहाँ दुख है वहीं अपना सुख भूलकर आने की आवश्यकता है।”
शिष्य सिर झुकाए खड़े थे।
(समाप्त )