” सुनिये ना.. सोफ़ा खरीद लीजिये ना..बच्चों के दोस्त आते हैं तो उन्हें कुरसी पर बैठाना बहुत खराब लगता है..सबके घर में…।” छवि की बात पूरी होने से पहले ही मानव बोल पड़ा,” ओफ़्फ ओ…तुम फिर से शुरु हो गई..।”
” तो आप मेरी बात मान क्यों नहीं लेते…।” मनुहार करते हुए वो बोली तो मानव बोला,” ठीक है..तुम डिज़ाइन पसंद करो..मैं शाम को आकर बात करता हूँ।” कहकर वो ऑफ़िस जाने के लिये बाहर निकल गया।
छवि के पिता राघवेन्द्र जी शहर के पोस्टऑफ़िस में पोस्टमास्टर थे जो सादगी और सरलता में विश्वास रखते थे।उनकी पत्नी सावित्री जी अपने पति की सीमित आय में परिवार को खुश रखना बखूबी जानती थीं।दूसरे घर में क्या है..वो क्या खरीदते-पहनते हैं, इससे उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता था।राघवेन्द्र जी उनसे कई बार कहते भी थे कि पड़ोसियों- रिश्तेदारों के घरों में सुख-सुविधाओं की वस्तुएँ देखकर तुम्हारा जी नहीं ललचता..।” तब वो हँसते हुए कहतीं,” #दिखावे की ज़िंदगी के लिये भला क्यों जी ललचेगा?”
” क्या मतलब!”
” लोगों से वाहवाही लूटने के लिये बेशकीमती सामान खरीदकर घर भरने वालों की पूरी उम्र बैंक का लोन चुकाने में बीत जाती है..एक रात भी वे चैन की नींद नहीं सो पाते हैं..बनावटी हँसी हँसते हैं लेकिन अंदर से तो उन्हें कई तरह ही चिंताएँ खाती रहती हैं.. हम तो खर्राटे भर के..।” कहते हुए हँसने लगती और फिर दोनों हाथ फैलाकर कहतीं,” मैं तो बहुत खुश हूँ अपनी जिंदगी से..।” तब राघवेन्द्र जी निःशब्द उन्हें निहारने लगते।
घर का वातावरण शांत और संतुष्ट हो तो वहाँ पल रहे बच्चों के स्वभाव में भी स्वाभाविकता स्वतः ही आ जाती है। छवि और उसका बड़ा भाई सुशील अपने दोस्तों के घरों में गाड़ियाँ-नौकर-चाकर देखते तो क्षण भर के लिये उनके मन में लालसा जागती लेकिन जब वे उनके लंचबाॅक्स में बाज़ार का बासी खाना देखते और अपने लंचबाॅक्स में माँ के हाथ बना आलू का पराँठा देखते तो उन्हें अपने माता-पिता पर बहुत गर्व होता।
समय के साथ दोनों बच्चे सयाने हो गये।सुशील भारतीय जीवन बीमा विभाग में नौकरी करने लगा।कुछ समय बाद उसने माता-पिता की सहमति से अपनी सहकर्मी प्रेरणा के साथ विवाह कर लिया।छवि का ग्रेजुएशन भी कंप्लीट हो रहा था।तब राघवेन्द्र जी को उनके एक परिचित मानव के बारे में बताते हुए बोले,” लड़का दिल्ली के किसी प्राइवेट कंपनी में इंजीनियर है।परिवार में एक बड़ा भाई है जो मुंबई में सेटेल है और पिता अध्यापक पद से सेवानिवृत्त होकर अपनी पत्नी के साथ गृह निवास में आनंद की जिंदगी बसर कर रहें हैं।”
राघवेन्द्र जी के लिये इतना ही ब्योरा काफ़ी था।पता लेकर मिलने जा पहुँचे।परिवार से मिलकर उनका मन प्रसन्न हो गया और उन्हें अपने घर आने का न्योता दे आये।कुछ दिनों बाद जब मानव अपने घर आया तो माता-पिता के साथ राघवेन्द्र जी के घर गया।मुंबई से उसके भाई-भाभी भी आ गये।मानव और छवि ने एक-दूसरे को पसंद कर लिया तब राघवेन्द्र जी मानव से बोले,” बेटा..आपकी कोई इच्छा हो..डिमांड हो तो..।
” पोस्ट मास्टर साहब..हमें अपने बच्चों की शादी करनी है, उनका व्यापार नहीं है।मेहमान आये और उन्हें आशीर्वाद दें..हमारे लिये तो यही बहुत है..फिर भी आप देना चाहते हैं तो अपने दामाद को एक रुपये का शगुन दे सकते हैं..हा-हा..।” उनकी निश्छल हँसी देखकर राघवेन्द्र जी की आँखें भर आईं।धन्यवाद ‘ कहकर उन्होंने अपने होने वाले समधी को गले लगा लिया..मानव को आशीर्वाद दिया और फिर सादगी पूर्ण तरीके से छवि और मानव की शादी कर दी।विदाई के समय सावित्री जी ने अपनी बेटी से इतना ही कहा कि छोटे शहर से महानगर में जा रही हो जहाँ हर चीज़ तुम्हें लुभावने लगेंगे पर तुम जितनी चादर हो, उतने ही पैर फैलाना बेटी..।मुखौटा लगाकर जीने वालों से, ज़रा संभल कर रखना..।बस अपनी माँ की इस बात को गाँठ बाँधकर छवि ससुराल आ गई और कुछ समय वहाँ रहकर मानव के साथ दिल्ली आ गई।
दो कमरों के किराये के फ़्लैट को छवि ने बड़े प्यार-से सजाया..।वो सब्ज़ी- भाजी खुद खरीदती..मानव के लिये टिफ़िन बनाकर भेजती। शाम को मानव आता तो साथ में बैठकर चाय पीती और फिर दोनों कहीं घूमने निकल जाते।समय निकालकर वो अपनी मम्मी-भाभी और सास-ससुर को फ़ोन लगाकर उनसे बात अवश्य कर लेती।समय बीतते वो एक बेटी और एक बेटे की माँ बन गई।
बच्चे स्कूल जाने लगे तो उन्हें ले जाने और लाने के बहाने छवि की अन्य महिलाओं से जान-पहचान होने लगी।कोई उसके सामने अपने बड़े घर की तारीफ़ करती तो कोई अपने पति की प्रशंसा के पुल बाँधती।कोई उसे मोबाइल पर अपनी नई ड्रेस की फ़ोटो दिखाती तो कोई कहती,” इस बार बीमार पड़ गया था मेरा अंशु, नहीं तो हमेशा की तरह वो इस बार भी अपनी क्लास में टाॅप करता।” वो ठहरी सीधी-साधी..झूठ-छलावा से उसकी पहचान कभी हुई नहीं थी, इसलिये वो उन महिलाओं की बातों पर आँख बंद कर विश्वास करती चलती गई।कुछ दिनों के बाद उसमें भी बदलाव आने लगा।
वो थोड़ा बन-सँवर कर स्कूल जाने लगी।डिनर के लिये बाहर जाना हो तो वो मानव से कहती,” पैराडाइज़’ में चलते हैं, मिसेज़ मलकानी उस रेस्तरां की बहुत प्रशंसा कर रहीं थीं।” उसे रोड किनारे पानी-पूरी खाना पसंद था।लेकिन अब मानव से कहती,” नहीं..इंपीरियल’ में चलकर खाते हैं, अंशु के दोस्त की मम्मी वहीं खाती हैं।” मानव उसमें आये बदलाव को समझ रहा था..महंगे रेस्तरां में जाने से उसका बजट भी गड़बड़ाने लगा था लेकिन उसने सोचा कि नया-नया भूत चढ़ा है, कुछ दिनों में उतर जायेगा।
फिर एक दिन छवि ने मानव से सोफ़ा खरीदने को कहा।तब वो खीझते हुए बोला,” कहाँ रखोगी..कुर्सियाँ खिसका कर तो बच्चों के खेलने के लिये जगह बनाती हो..ये देखा-देखी का नाटक अब बंद करो..।” उस दिन तो वो चुप रही लेकिन आज जब मानव ऑफ़िस के लिये निकल रहा था तो उसने बच्चों के बहाने फिर से सोफ़ा खरीदने की ज़िद की।तब मानव ने भी हथियार डालते हुए कह दिया,” ठीक है।”
शाम को थका हुआ मानव घर आया तो छवि उसे चाय देते हुए बोली,” मिसेज़ वर्मा ने अपने सोफ़े का डिज़ाइन Watsap पर..।”
” इस बार नहीं छवि..दो महीने से पापा छत की लीकेज़ से परेशान है..तुम्हारे शौक पूरे करने के पीछे मैं उन्हें..।”
” अच्छा..मेरे क्या शौक हैं..इतने सालों बाद एक सोफ़ा खरीदने को कहा तो…आपके बड़े भाई भी तो मुंबई में..।” छवि विफ़र गई।तब मानव उसके कंधे पर हाथ रखकर समझाया,” भईया को बच्चों के काॅलेज़ की फ़ीस भरनी है..पिछले महीने भाभी की तबीयत..।” अपने कंधे से मानव के हाथ झटककर छवि चाय का कप लेकर किचन में चली गई।उसी दिन से छवि मानव से खिंची-खिंची रहने लगी।
एक दिन छवि की भाभी ने हाल-चाल पूछने के लिये फ़ोन किया तो उसने हाँ-हूँ में जवाब दिया।तब उन्होंने प्यार-से पूछा,” आज मेरी ननद रानी का मूड ऑफ़ क्यों है?” बस उसने सारा गुबार निकाल दिया।तब वो बोली,” इतनी-सी बात है..मैं भिजवा देती हूँ..।”
” नहीं भाभी..मैं उन्हीं से लूँगी..।” कहकर उसने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।कुछ समय बाद सावित्री जी ने भी फ़ोन करके कहा कि मानव के पास सैकड़ों काम होते हैं..शादी में कुछ दिया नहीं था, उसी का उपहार..।नहीं माँ..।” बेटी की बेरुखी से अब उन्हें चिंता होने लगी।
एक दिन छवि बच्चों को लेने स्कूल पहुँची तो वहाँ के स्टाफ़ ने कहा कि आधा घंटा देर से स्कूल की छुट्टी होगी।सभी महिलाएँ जाने लगीं तब वो मिसेज़ मलकानी से बोली,” आपका घर तो पास है..मैं भी आपके घर..।”
” नहीं छवि..मुझे अभी मार्केट जाना है..मेरा ड्राइवर आकर बेटा को ले जायेगा।” ऐंठकर बोलते हुए वो निकल गई।तब पास खड़ी ज्योति बोली,” मेरा घर भी पास है छवि..आप मेरे घर चलकर आराम कर लीजिये..।”
” आपके घर..।” छवि ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा..इतना सिंपल-सा सूट पहना है..चेहरे पर कोई मेकअप भी नहीं है..इसका घर भी ऐसा ही होगा..।लेकिन मजबूरी थी तो अपने चेहरे के भाव छिपाते हुए धीरे-से बोली,” ठीक है..।” और उसके घर चली गई।
लेकिन ज्योति का घर देखकर वो हैरत में पड़ गई और अंदर की साज-सज्जा देखकर उसने दाँतों तले ऊँगली दबा ली।नौकर होते हुए भी ज्योति स्वयं एक ट्रे में पानी का गिलास लाई और उसे दिया।
तब छवि बोली,” आपकी सादगी देखकर मैंने सोचा कि..।आपने भी कभी बताया नहीं कि आपका इतना बड़ा घर है…।”
” इसमें बताने वाली क्या बात है छवि..हमारे अपने जानते हैं हमें..यही बहुत है..दूसरों से हमें क्या लेना..।वैसे भी जब से सोशल मीडिया आया है, लोगों को #दिखावे की ज़िंदगी जीने की बीमारी हो गई है।दूसरों से वाहवाही लूटने के लिये वो फेसबुक पर टूल्स से खूबसूरत पिक्चर बनाकर डाल देते है लेकिन हकीकत में..।सेल्फ़ी के चक्कर में युवा पीढ़ी अपनी जान गँवा रही है..,महिलायें अपने पतियों का दीवाला निकाल रहीं हैं….।”
ज्योति की बातें सुनकर छवि की आँखें खुलने लगी।उसे अपने सोफ़ा खरीदने की ज़िद अब बचकाना लगने लगी।वो बोली,” अच्छा हुआ जो मिसेज़ मलकानी को मार्केट जाना पड़ा वरना मैं आपसे कैसे मिलती।”सुनकर ज्योति हँसने लगी।बोली,” छवि..उनका पति मेरे पति की कंपनी में ही एक स्टाफ़ है।उनकी सच्चाई आपको मालूम हो जाती, इसीलिये उन्होंने आपसे झूठ बोला कि..अभी हम स्कूल चल रहें हैं ना..आप खुद देख लीजियेगा कि ड्राइवर आया है या..।
स्कूल पहुँचकर छवि ने जब मिसेज़ मलकानी को देखा तो उसका भ्रम दूर हो गया।बच्चों को लेकर जब वो घर आई तो उसे एहसास हुआ कि वो कितनी बड़ी मूर्ख है। दूसरों के छलावे को सच मानकर अपने परिवार की खुशियों को ग्रहण लगा रही थी।अंशु की मम्मी तो अपने पति की कितनी तारीफ़ करती थी लेकिन उस दिन जब मैं अचानक उनके घर गई तो मेरे सामने ही उसके पति उन्हें कितना लताड़ रहे थे।मानव ने तो कभी बच्चों से ऊँची आवाज़ तक बात नहीं की..कितने भी थके रहते थे तो भी बच्चों के लिये हमेशा तैयार रहते हैं…,तभी काॅलबेल बजी तो वो तुरंत दरवाज़ा खोलने के लिये उठी।
छवि को देखकर मानव चहक उठा,” डियर..अब मुस्कुरा दो..तुम्हारा सोफ़ा..।”
” कैसा सोफ़ा..।”
” तुम उसी के लिये तो मुझसे नाराज़ थी..।”
” नहीं तो..मैं तो बहुत खुश हूँ..और आज हम पानी-पूरी खाने चल रहें हैं..।” दोनों हाथों को घुमाते हुए छवि बोली तो मानव भी मसखरी करने लगा,” चलो..फिर तैयार हो जाओ..मैं भी टिप-टाॅप हो जाता हूँ..इंपीरियल में जाना है ना..।”
” नहीं..खोमचे वाले से खायेंगे..।”
” और वो तुम्हारी मलकानी मैडम..।”
” आप ना..।” कहते हुए छवि ने कुशन उठाकर मानव पर फेंका।
” मर गया..।” मानव चिल्लाया।
” क्या हुआ पापा..।” दोनों बच्चे एक साथ बोल पड़े।
” तुम्हारी मम्मी का प्यार..।” फिर तो सभी हा-हा करके हँसने लगे।तभी सावित्री जी का फ़ोन आ गया।नानी का फ़ोन देखकर बच्चे बात करने लगे।पीछे से बेटी-दामाद की हँसी सुनकर उनकी आँखें खुशी-से छलछला उठीं।उन्होंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया और प्रार्थना की कि उनके बच्चे ऐसे ही हँसते-मुस्कुराते रहें।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु
# दिखावे की ज़िंदगी
सीधे-सादे लोग अक्सर दुनिया के दिखावे को सच समझकर उसके जैसा बनने की कोशिश में अपनी स्वाभाविकता को भूलने लगते हैं लेकिन जब झूठ की परत हटने लगती है..वास्तविकता सामने आती है तो फिर वो अपना भूल सुधार लेते हैं।छवि भी कुछ समय के लिये भटक गई थी लेकिन ज्योति से मिलने के बाद उसे अपनी स्वाभाविक ज़िंदगी अच्छी लगने लगी।