मैं हूँ न – प्रीति आनंद अस्थाना

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“अरे तुमने रामेश्वर बाबू के बारे में सुना? बेचारे बहुत परेशान हैं आजकल!”

रामेश्वर बाबू? ये नाम तो पुष्कर को  जाना-पहचाना लग रहा था। वही तो नहीं जिन्होंने आज से दस वर्ष पहले उसकी मदद की थी?

पूरी कहानी तैर-सी गई आँखों के सामने!

उसका इंटरव्यू था दिल्ली में, उसके लिए उसे कुछ सर्टिफिकेट्स चाहिए थे जमा करने के लिए। वह यूनिवर्सिटी ऑफिस गया था परन्तु बाबूओं ने उसके द्वारा जेब गर्म नहीं कर पाने के कारण सर्टिफिकेट बनाने से इनकार कर दिया था। पुष्कर के पास थे ही नहीं इतने पैसे कि उनकी ख़्वाहिश पूरी करता!

वह रुआँसा सा बरामदे में बैठ गया। तभी उधर से बड़े बाबू निकले,

“क्यों रे लड़के, इधर क्यों बैठा है?”

“जी, ऐसे ही, कोई खास बात नहीं।”

“अच्छा! ऐसे ही रो रहा है, क्यों?”

पुष्कर ने उन्हें सारी बातें बताईं। फिर जूनियर बाबू से लड़-झगड़ कर उन्होंने उसका सर्टिफिकेट बनवाया।

“ये आप ठीक नहीं कर रहे रामेश्वर बाबू! हमारे पेट पर लात न मारें आप। ये बच्चे आपके किसी काम नहीं आएँगे। ज़रूरत पड़ने पर हमारे आगे ही हाथ पसारोगे आप!”


“तुम मेरी चिंता न करो। जैसे इस बच्चे का काम बन गया वैसे ही ज़रूरत पड़ने पर मेरा काम करवाने के लिए भी कोई न कोई अवतरित हो जाएगा।” कहकर उन्होंने पुष्कर को सर्टिफिकेट पकड़ा दिए।

‘क्या ये लोग उन्हीं की बातें कर रहे हैं?’ ऑफिस के स्टाफ़ की आपसी बातें सुनकर पुष्कर सोच में पड़ गया।

“कौन रामेश्वर बाबू? कहाँ काम करते हैं ये?”

“सर, करते थे विश्वविद्यालय में, आफिस में असिस्टेंट रजिस्ट्रार थे। एक साल पहले रिटायर हो गए पर पेंशन के लिए आज भी चप्पल घिस रहे हैं।”

“तुम कैसे जानते हो उन्हें?”

“सर, हम एक ही मोहल्ले में रहते हैं, मिलने पर अपना सुख-दुःख साझा कर लेते हैं।”

“मगर क्यों नहीं मिल रहा उन्हें पेंशन?”


“सर, कहते हैं उन्होंने अपने समय में सबकी ऊपरी कमाई बंद करा दी थी तो उनका जूनियर स्टाफ़ काफी नाराज हैं उनसे, इसीलिए……”

पर ये क्या बात हुई? एक ईमानदार कर्मचारी को ऐसी सज़ा क्यों? आज जो वह एक उच्चाधिकारी है, तो उन्हीं के वजह से। नहीं तो वह भी कहीं घिस रहा होता अपनी चप्पलें!

रामेश्वर बाबू का पता लेकर वह उनके घर पहुँचा।

“प्रणाम सर। मुझे पहचाना? आपने कभी मेरी बहुत बड़ी मदद की थी।”

“बेटा, अब तो मैं स्वयं लाचार हो गया हूँ, खुद का ही काम नहीं करवा पा रहा हूँ।”

“क्यों सर, क्या बात हो गई?”

“साल भर से मेरे पेंशन के कागज़ ही नहीं बन पा रहे हैं। दौड़-भाग कर थक गया हूँ।”

“कोई बात नहीं सर, मैं हूँ न, मैं कराऊँगा आपका काम। आप मुझे अपने पेंशन के कागज़ दीजिए।”

“पर बेटा, तुम कैसे……”

“आप ही के आशीर्वाद से आज मैं इस शहर का नया जिलाधिकारी नियुक्त हुआ हूँ। अगर उस दिन आप मेरी मदद न करते तो यह सब हासिल करना मेरे लिए एक सपना ही रह जाता।”

स्वरचित

प्रीति आनंद अस्थाना

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