तुमने आज फिर से पिज्जा बर्गर ऑर्डर कर दिया, तुम्हें कितनी बार समझाया है बाहर के खाने में इतने पैसे बर्बाद मत किया करो, पर तुम दोनों को तो कुछ भी समझ नहीं आता है, हजार रूपये में तो ना जाने कितना राशन का सामान आ जाता और मैं घर पर अच्छा सा बनाकर खिला देती, राधिका झल्लाकर बोली तो बच्चे नाराज हो गए।
मम्मी, आप तो हर चीज के लिए टोकती रहती हैं, ज्यादा खर्चा मत करो, हर वक्त बस पैसा और पैसा ही करती हैं, क्या करोगी? इतना पैसा बचाकर !! हमारी भी तो कोई ख्वाहिशें हैं, कभी तो बाहर के खाने की भी इच्छा होती है पर आपको तो बाहर खाना ही फालतू लगता है,
रिया ने दो टूक जवाब दिया, रोहन भी रूठकर चला गया।
दोनों बच्चों की नाराजगी झेल रही राधिका की आंखें भर आईं, क्या करती कमाने वाली वो अकेली ही तो थी, एक तो इतनी महंगाई उस पर ख़र्च रूकते ही नहीं हैं।
नयन तो बीच मंझधार में अचानक छोड़कर चले गए, पिछले दो सालों से वो दोनों बच्चों की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। ज्यादा पढ़ी लिखी तो नहीं थी इसलिए नयन की जगह नौकरी नहीं मिली उससे कम वेतन का छोटा पद मिला जिसे राधिका ने स्वीकार लिया। मकान की ईएमआई, बिजली-राशन का खर्च, स्कूल और ट्यूशन की पढ़ाई का खर्च, सब कुछ राधिका कितना मैनेज करके चलती है।
अपनी हर इच्छा को मारकर बच्चों की इच्छाएं पूरी करती है, उन्हें हर खुशी और सुविधा देने की कोशिश करती है पर बच्चे हैं कि कुछ समझते ही नहीं है, हर वक्त शिकायतें ही लगी रहती हैं।
आज नयन होते तो अपने बच्चों को समझाते, राधिका सुबकने लगी। जितना कमाती है सब घर खर्च में चला जाता है, उसे आज भी देखना है कल के लिए भी सेविंग करनी है। बच्चे अब किशोरावस्था में पहुंच गये थे, हर चीज के लिए जिद करने लगे थे, हर बात पर बहस करने लगे थे।
कभी-कभी तो रिया और रोहन बोल भी देते थे कि, मम्मी आप बड़ी कंजूस हो, खुलकर खर्च क्यों नहीं करती।
राधिका अब रोजमर्रा की बहस से परेशान हो गई थी, उसकी परेशानी उनकी कामवाली समझ रही थी, वो केवल झाड़ू-पोछा करती थी, क्योंकि राधिका को नौकरी के लिए भी जाना होता था, सविता एक दिन ऐसे ही काम कर रही थी, राधिका ने फिर बच्चों को डांटा, तो बच्चों ने पलटकर जवाब दे दिया, राधिका आंसू बहाने लगी।
सविता ने बच्चों को पास बुलाया और कहा, मै इस घर में काम करने वाली छोटी सी नौकरानी हूं, मेरे मुंह से कुछ भी ंनिकलेगा तो वो आप दोनों को बुरा ही लगेगा, बच्चों माफ करना अगर छोटे मुंह बड़ी बात कह दूं तो,,
रिया बेबी और रोहन बाबू आप दोनों बड़े हो रहे हो पर समझदारी नहीं आ रही है। मैं आप दोनों को ये समझाना चाहती हूं कि आपके दोस्त या सहेली जिस तरह से खर्च करते हैं , उतना राधिका दीदी नहीं कर पायेंगी।
तभी राधिका बोलती है, हां क्योंकि उनकी और मेरी सैलेरी में बहुत फर्क है, मैं रूपया बचाती हूं ताकि भविष्य में हमें किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़े। तुम्हारे पापा नहीं है और तुम्हारी मम्मी बहुत ज्यादा कमाती नहीं है, हमारे खर्च की कुछ सीमा निर्धारित है, हमें जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारना चाहिए क्योंकि मैं कमाने वाली अकेली हूं, और बहुत ज्यादा भी नहीं कमाती हूं। घर की परिस्थितियों को बच्चों को समझना चाहिए। अब तुम्हें समझदार बनना होगा जब तुम दोनों ही सहयोग नहीं करोगे
तो मैं अच्छे से घर और बाहर नहीं संभाल पाऊंगी। तुम्हें ये बात समझनी होगी और ये सच्चाई भी है। जब तुम दोनों अच्छा कमाओगे तो फिर अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना। तुम दोनों की मां तुम दोनों की जरूरतें पूरी कर सकती है हर इच्छा को पूरी नहीं कर पायेगी।
मम्मी हम दोनों को माफ कर दो, हमने घर की परिस्थितियों को समझा नहीं पर हम वादा करते हैं, हम दोनों मन लगाकर पढ़ाई करेंगे कुछ बड़ा करेंगे और आपकी हर इच्छा को पूरी करेंगे। राधिका ने दोनों बच्चों को गले लगा लिया।
पाठकों,, जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाने चाहिए ।
घर की परिस्थितियों और बजट का बच्चों को भी पूरा पता होना चाहिए ताकि वो उस हिसाब से खर्च करें और परिवार में मम्मी और पापा को समझें। बच्चों को भी अहसास होना चाहिए कि मम्मी-पापा ने उन्हें कितनी मुश्किल से पाला है।
अर्चना खंडेलवाल
# छोटे मुंह बड़ी बात
मौलिक अप्रकाशित रचना