मैं किसी प्रख्यात व्यक्तित्व या पद विशेष की स्वामिनी नहीं हूँ। मैं एक सामान्य महिला हूँ। फिर भी एक औसत परिवार में जन्मी महिला विपरीत परिस्थितियों में से निकल कर कैसे अपना रास्ता बना सकती है,यही बताना इस कथा का उद्देश्य है। अक्सर अति ‘आर्थिक अभावों’ को ही संघर्ष का नाम दिया जाता है लेकिन मेरी कहानी हालातों के रूप में आई बाधाओं को पार करके शिक्षा प्राप्त करने के संघर्ष की कहानी है। हालात कैसे भी हों,रुको मत,आगे बढ़ते चलो ।
मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ। छ: बहन-भाइयों के बड़े परिवार में पिता अकेले कमाने वाले थे।साादा जीवन बिताने वाले पिता को दुनियावी तामझाम से कभी कोई सरोकार नहीं रहा, लेकिन बच्चों की पढ़ाई के संबंध में बहुत जागरुक थे।कम आय के बावजूद वे बच्चों की खुराक के प्रति पूरी तरह सचेत रहे। स्वभाविक रूप से हम सबका बचपन भी संघर्षशील रहते हुए सादगी में बीता।बड़ी दो बहनों ने दसवीं के बाद से ही लगातार योग्यता छात्र वृत्ति ले कर पढ़ाई की।
ग्वालियर के सरकारी स्कूल से आठवीं पास करने के उपरांत घर में मेरे नौंवी में लिए जाने विषयों के लिए बड़ी दीदी और पिता के बीच विवाद हुआ।दोनों बड़ी बहनें आर्टस ग्रुप से पढ़ी थीं ।लेकिन बड़ी दीदी चाहती थीं कि मैं साइंस पढ़ूं। पिता को साइंस ग्रुुप के लिए अपेक्षित अधिक मेहनत और खर्च की चिंता थी।दीदी जीतीं और मैंने बिना किसी अलग प्रकार की कोचिंग की शर्त पर, सन् 1976 में, ग्वालियर के सरकारी स्कूल से ही विज्ञान विषय ले कर हायर सेकेण्डरी की परीक्षा ‘प्रथम’ श्रेणी में उत्तीर्ण की।
उन्हीं दिनों पिता जी का तबादला पंजाब में हो गया। प्रथम श्रेणी लेने के बावजूद राज्य बदल जाने से मुझे वजीफा नहीं मिल सका। इस बात का मुझे हमेशा अफसोस रहा क्योंंकि पिता जी हमेशा अपने मित्रों के समक्ष इस संबंध में दोनों बहनों की प्रशंसा किया करते थे। जहां पिता का तबादला हुआ ,वहां मेरी पढ़ाई की उचित व्यवस्था नहीं थी।अब तक मेरे अविवाहित बड़े भैया ने जम्मू में कार्य करना शुरू कर दिया था।मेरी आगे की पढ़ाई के लिए वे मुझे अपने साथ जम्मू में ले गए और वहां के सरकारी कालेज में मेरा बी.एस. सी.-मैडिकल में दाखिला करवा दिया।
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दुर्भाग्यवश तीन महीने बाद अचानक एक हृदय -विदारक सड़क- दुघर्टना में भैया का देहांत हो गया। हम सब पर गाज गिरी।सारा परिवार शोकमग्न हो गया। मुझे दोहरी चोट लगी। मैं भैया की लाडली थी। भैया ने साथ छोड़ दिया। अब मैं कहां जाऊं? क्या करूं ? बीच सत्र में मुझे सांइस विषय में कहीं दूसरे स्थान पर दाखिला नहीं मिल सकता था और जाती भी कहां ?इस दोहरी चोट से मैं पूरी तरह टूट चुकी थी।
तभी किसी परिजन ने प्राइवेट तौर पर घर बैठे-बैठे
ही ‘प्रभाकर’ की परीक्षा देकर अपना एक साल व्यर्थ गंवाने से बचाने का सुझाव दिया। मैंने साफ़ इंकार कर दिया। मैं ‘आर्ट्स को कमतर’ मानते हुए सांइस विषय को नहीं छोड़ना चाहती थी । लेकिन तब मां ने मुझे समझाया,
“बेटा ,ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी भी विषय का कम या अधिक महत्व नहीं होता है। हमें जिस विषय का ज्ञान प्राप्त करना है, उसमें पूरी गम्भीरता और लगन से कठोर परिश्रम करते हुए हमेशा ‘सर्वोत्तम परिणाम’ देने का प्रयास करना चाहिए।निराशा स्थिरता को जन्म देती है और जीवन तो गति का नाम है न ?”
मां स्वयं पुत्र के वियोग से पीड़ित थीं, लेकिन अपनी इस संतान को भी उन्हें समेटना था। मैं संभल गई थी।
मैंने चलते हुए सत्र के बचे सिर्फ ढाई महीनों का पूरा सदुपयोग करते हुए कठोर परिश्रम किया और ‘प्रभाकर’ में अच्छे अंक प्राप्त किए।
सचमुच कभी-कभी हमारा बुरा वक्त हमारे जीवन को दिशा दे जाता है। इस परिणाम ने तो मेरी जीवन-धारा का रुख़ ही सर्वथा बदल दिया। मानों मेरे सुप्त साहित्य -प्रेम को एक चेतना मिल रही हो।
प्रभाकर को पूर्णता देने के लिए ओ.टी. के लिए आवेदन दिया। प्रभाकर में अच्छे अंक प्राप्त करने के बावजूद यहाँ एक नई समस्या उठ खड़ी हुई।मध्य प्रदेश से शिक्षित होने के कारण मैं ओ .टी. में दाखिले के लिए दसवीं में पंजाबी विषय की अनिवार्यता की शर्त पूरी नहीं कर पा रही थी।फिर मेरी विशेष प्रार्थना पर, मुझे दो महीने बाद होने वाली दसवीं की पूरक परीक्षाओं में इस परीक्षा को उत्तीर्ण कर लेने की शर्त पर दाखिला मिल गया। पंजाबी की इस परीक्षा को भी मैंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।
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उसके बाद तो बी.ए.,एम.ए. बी.एड,एम.फिल का सिलसिला चल पड़ा। मित्रों ने सुझाव दिया कि प्रभाकर उत्तीर्ण कर चुके छात्र केवल दो विषयों की परीक्षा देकर बी.ए की डिग्री प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन यह ‘शॉर्टकट’ रूप मुझे स्वीकार नहीं था। बी.ए.के पहले वर्ष में परीक्षा परिणाम यह कह कर रोक लिया गया कि आपके द्वारा मध्य प्रदेश से पास की गई हायर सैकैण्डरी में अंग्रेजी विषय अनिवार्य नहीं,बल्कि एच्छिक है।अत: पहले आप पंजाब की ‘प्रैप’ का अंग्रेजी विषय पास करें।
पिता जागरूक थे ।अतः रजिस्टटार महोदय से प्रैप की अंग्रेजी की परीक्षा बी.ए.द्वितीय वर्ष के समानांतर देने की विशेष अनुमति ली ताकि मेरा बी.ए.प्रथम वर्ष व्यर्थ न जाए।इसी दौरान पिता का जम्मू राज्य में तबादला हो चुका था।अतःमुझे प्राइवेट तौर पर ही सारी पढ़़ाई करनी पड़ी। खैर, गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी से बी.ए.की परीक्षा उत्तीर्ण की।जम्मू में न कोई कोचिंग न किसी प्रकार का निर्देशन।पहले वर्ष पठानकोट और दूसरे- तीसरे वर्ष में दीनानगर में जा कर परीक्षाएं दीं।
इसके साथ- साथ ही,परिवार से दूर रह कर, पठानकोट में, ओ.टी.की डिग्री के आधार पर एक स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। इससे वजीफा न मिल पाने के अफसोस को कुछ राहत मिली।बी.ए.के बाद जम्मू यूनिवर्सिटी में हिंदी विषय में एम.ए.के लिए दाखिला लिया।अब तक पिता रिटायर हो चुके थे।अतः शिक्षा की दृष्टि से जीवन में कुछ स्थिरता आती लगी। इसी दौरान चमत्कार स्वरूप, बी.ए.में हिंदी में उत्तम अंक आने पर जम्मू यूनिवर्सिटी ने वजीफा दिया। इससे पहले मैंने वजीफे के इस प्रकार के संबंध में सुना तक नहीं था।
इस वजीफे ने मेरे अंदर फंसी बरसों पुरानी वजीफा न मिलने की फांस को बाहर निकालने का काम किया। एम.ए.का एक सेमेस्टर ही पूरा हुआ था कि मुझे विवाह के बंधन में बांध दिया गया।फिर से पढ़ाई ‘प्राइवेट की पटरी’ पर आ गई क्योंकि मैं पंजाब के लुधियाना शहर में ब्याही गई थी। पहले सेमेस्टर में मैंने यूनिवर्सिटी में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए थे।अतःमैंने हौंसला नहीं छोड़ा और अपनी पढ़ाई जारी रखी। मैं हर सैमेस्टर की किताबों के लिए जम्मू जाती और वापिस लुधियाना आकर घर से ही तैयारी करती।
इस समय लुधियाना की ‘एक्सटेंशन लाइब्रेरी’ से मुझे बहुत सहायता मिली। प्राइवेट छात्र होते हुए भी अपने कठोर परिश्रम से मैंने जम्मू यूनिवर्सिटी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसके बाद विधिवत अध्यापन क्षेेत्र में प्रवेश किया।पहले तीन वर्ष लुुुधियाना के देेवकी देवी जैैन कालेज मेें बतौर ‘पार्ट टाइम’ हिंदी लैक्चरर के रूप मेें कार्य किया।फिर पति के लुुुधियाना से जालंधर शिफ्ट हो जाने
पर कपूरथला के एम. डी. एस. डी.सी सैकण्डरी स्कूल में 28 वर्ष तक हिंंदी अध्यापन कार्य किया।अध्यापन के साथ-साथ सन् 1990 में पत्राचार माध्यम से बी.एड किया और एम. फिल.का जुनून तो 2003 में आ कर पूरा हुआ।एम.फिल.के लिए डा.सेवा सिंह तथा स्टेट लाइब्रेरी कपूरथला की बहुत शुक्रगुजार हूं। हिंदू कन्या कालेज कपूरथला तथा एच. एम. वी.कालेज जालंधर के पुस्तकालयों से भी मुझे भरपूर सहयोग मिला।
मैं आठ वर्ष पूर्व हिन्दी-अध्यापन के विभागीय बंधनों से मुक्त हुई और अब अपनी कलम द्वारा ‘अभिव्यक्ति’ की ओर अग्रसर होने का प्रयास कर रही हूं। अब लगता है कि वास्तव में ‘साहित्य’ ही मेरा ‘अपना’ क्षेत्र था। इसी के लिए विधाता ने सारा विधान रचा था।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।
#हमारा बुरा वक्त हमारे जीवन को नई दिशा दे जाता है.