आज माँ को इस हालत में देख कर सुमिता के आँसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे…. वो माँ जो हर वक़्त काम करती नज़र आती थी आज बिस्तर पर पड़ी थी…. एक तो उम्र का असर और काम करते रहने की वजह से शरीर भी लाचार सा हो गया था…. माँ दमयंती जी इस उम्र में भी अपने सारे काम खुद ही कर लेती थी…
घर की साफ़ सफ़ाई के लिए बहू ने कोई कामवाली नहीं लगा रखी थी… बेटा बहू की आमदनी उतनी नहीं थी कि वो ज़्यादा खर्च वहन कर सकें…. इसलिए बहू की मदद करने के लिए वो कभी-कभी घर में झाड़ू तक लगा देती थी … और यही झाड़ू आज उनके बिस्तर पर पड़ने का कारण बन गया… दमयंती जी झाड़ू लगाने जा ही रही थी कि पास में गिरा पानी नहीं दिखाई दिया
और पैर ऐसा फिसला की कूल्हे से उठना मुश्किल हो गया….जब ये खबर सुमिता जी को मिली वो माँ को देखने पहुँच गई… ऐसे में भी माँ अपनी बहू से सुमिता जी के चाय नाश्ते के लिए आग्रह कर रही थी… ये देख सुमिता जी से रहा ना गया वो माँ का हाथ पकड़कर फूट फूट कर रोने लगी ।
“ क्यों रोती है रे सुमि…. ठीक हो जाऊँगी देखना बहुत जल्दी…अभी इस शरीर में बहुत जान बाकी है… बस ये जल्दी ठीक हो तो अपना काम खुद ही कर पाऊ…वो नर्स से सब करवाना मुझे शोभा नहीं देता।बेटा तू रूकेंगी ना …और चली जाएगी…?”दमयंती जी का ये सवाल सुमिता जी को कचोट गया
“ माँ तुम तो जानती ही हो…. बेटा बहू दोनों नौकरी करते हैं फिर घर बच्चों के लिए मेरा होना बहुत ज़रूरी होता है… नहीं तो दोनों आया के साथ रहना ही नहीं चाहते…अभी तुम्हें देखने आई हूँ तो आया कमला को सौ हिदायत दे कर… कुछ देर बाद मैं चली जाऊँगी…. फिर आऊँगी तुमसे मिलने।” सुमिता जी डबडबाई आँखों से बोलीं
कुछ देर माँ के पास बैठ कर वो चली गई ।
तीन दिन तक उन्हें समय ना मिल पाया माँ से मिलने जाने का ….चौथे दिन सुबह सुबह भाई का फ़ोन आया… “माँ नहीं रही।”
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सुमिता जी बेटे बहू को बताया और माँ के पास जाने की जल्दी करने लगी…
मायके पहुँची तो माँ का शरीर देख दहाड़े मार कर रोने लगी…..
“ दीदी माँ आपको हर दिन याद करती रहती थी आपके आने की राह तकती रहती थी…. कब उनकी सुमि आएगी….हम समझाते थे पर माँ तो माँ होती है ना… सुबह सुबह अचानक सास लेने में दिक़्क़त हो रही थी…. आपके भाई डॉक्टर को लेकर आए तब तक वो हम सबको छोड़ कर चली गई ।” सुमिता जी की भाभी ने कहा
“ माँ मैं बहुत बुरी हूँ ना…. तुम मुझे याद करती रही और मैं तुम्हारे पास नहीं आई …… बेटी होने का कोई फ़र्ज़ नहीं निभा सकी….ऐसी हालत में एक बेटी को माँ के पास रहना चाहिए था पर देखो माँ मैं साथ नहीं थी।” सुमिता जी माँ के शरीर पर सिर टिका रोते रोते कह रही थी
“ ऐसे क्यों बोल रही है दीदी… शादी के बाद हम बेटियाँ अपने परिवार और बच्चों में ही बँध कर रह जाती है… देखिए आप अपनी ज़िम्मेदारी निभा रही थी मैं अपनी…… आपको पता है मेरे पापा भी आई सी यू में भर्ती हुए थे पाँच दिन पहले… पापा से मिलने जाने का सोच ही रही थी की माँ गिर गई और मैं जा नहीं पाई…पर उधर भाई भाभी सब सँभाल रहे हैं….. आप इस बात पर दिल छोटा मत कीजिए……।“ रोते रोते उनकी भाभी सुमिता जी को सांत्वना दे रही थी
माँ के अंतिम संस्कार के बाद सुमिता जी घर जाने को हुई तो भाई ने कहा,“ आज रूक जाओ ना दीदी… पता नहीं क्यों माँ के चले जाने से आज पूरा घर वीरान लग रहा है… तुम भी चली जाओगी तो ….।”
सुमिता जी अपने कदम वही रोक ली और बोली,“ नहीं जाऊँगी छोटे… उस दिन चली गई थी तो माँ…. आज तुम्हें छोड़ कर नहीं जाऊँगी ।”
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पूरे पन्द्रह दिन सुमिता जी भाई के पास रही…. ये सोच कर ज़िम्मेदारियों के साथ तो हमेशा चला जाता है कभी अपनों की ज़रूरत पर उनके साथ चलना भी ज़रूरी है…..काश उस दिन वो माँ के कहने पर रूक जाती तो आज उनको अफ़सोस ना रहता।
सुमिता जी ने माँ को खो कर सबक़ लिया की कभी-कभी अपनों के साथ भी रहना ज़रूरी होता है… दो चार दिन ज़िम्मेदारियों को किसी और के हाथों सौंपा जा सकता है पर अपनों के साथ को अपने साथ से ही दिया जा सकता है।
आप इस बारे में क्या कहते हैं… ऐसा कभी आपके साथ हुआ है कि ज़िम्मेदारियों का पलड़ा भारी समझ अपनों से मिलने का वक्त ना मिला और फिर मिलना हो ना सका…. ?
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धन्यवाद
रश्मि प्रकाश
यह हमारी जिंदगी सच्चाई है जिसको आपने एक कहानी के रूप में व्यक्त किया है बहुत सुंदर
कहानी पढ़ कर अपने विचार व्यक्त करने के लिए हार्दिक आभार ☺️🙏
Apki kahani apni si hi lagi . Antim samay me mata–pita ke pas na hone ka afsos man se jata nahin hai