अरे नीलम तुम यहाँ, कैसे कहते हुए मिसेज सहाय नीलम के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली l नीलम मूडकर देखते हुए हाँ एक शादी में आई थी….पर तुम बताओ यहां सबका क्या हाल – चाल है?…… अरे यही पर सब कुछ जानना चाहती हो, अभी कुछ दिन तो रुकोगी ना तो आना अपने पुराने दिनों को याद करेंगे सबसे मिल भी लेना…… अच्छा ठीक है कहकर नीलम अन्य लोगों से मिलने में व्यस्त हो गयी…….
दूसरे दिन निकल पड़ी अपनी सहेलियों से मिलने, आज से 18 साल पहले नीलम इसी शहर में 3 साल रही थीं, बहुत सारी यादें जुड़ी थी चलते – चलते अचानक नीलम के कदम एक स्कूल के पास रुक गए उनके बच्चे पहली बार इसी स्कूल में प्रवेश लिये थे रोज, बच्चों को छोड़ने और लेने आती थी उनके बच्चों के साथ एक “सार्थक” नाम का बच्चा भी पढ़ता था वो रोज अपनी माँ से कहता “माँ तू मेरे आने तक मरना मत” सभी लोग उनकी बात सुनकर मुस्कुरा पड़ते थे…… एक दिन नीलम ने पूछ ही लिया ये सार्थक रोज आपको येसा क्यूँ बोलता है…..?
सार्थक की माँ बोली…. अरे कुछ नहीं एक दिन टीवी पर कोई फ़िल्म देख रहा था उस फ़िल्म में बच्चा स्कूल गया रहता है, और उसकी माँ मर जाती हैं …. तभी से इसके मन में डर बैठ गया है एसलिये ये मुझे रोज बोलता है और इसको लगता है कि मैं इसके बोलने के कारण नहीं मरती कह कर…. सार्थक की माँ खिलखिला कर हँस पड़ी…. वाक्या याद आते ही नीलम के कदम स्वतः ही सार्थक के घर की ओर चल पड़े रास्ते भर सोचते हुए कि क्या अब भी अपनी मां के प्रति उनका प्रेम वैसा ही होगा……….
नीलम के डोर बेल बजाने पर सार्थक के पापा दरवाजा खोले बहुत कमजोर और उम्र से जादा बूढ़े लग रहे थे..। घर भी बिखरा हुआ था…. पानी देते हुए बोले जब से यहां से गए हो पहली बार आयी हैं आप सार्थक की माँ बहुत याद करती थी…. तभी नीलम पूछ बैठी कहाँ है कहीं दिखायी नही दे रही…… और सार्थक क्या करते हैं???
अरे बहनजी आपको मालूम नहीं सार्थक की माँ तो दो साल पहले ही गुजर गई……. सुनकर नीलम सन्न रह गई बहुत मुश्किल से ख़ुद को संभालते हुए बोली क्या हुआ था उनको.?
कुछ नहीं बेटे की जुदाई बर्दाश्त नहीं कर पायी पढ़ने के लिए अमेरिका भेजे थे बाद में वहीँ” नौकरी कर ली और शादी भी ………. बहुत इंतजार की बीमार पड़ गई मर गई पर बेटा नहीं आया पता नहीं बेचारी के आत्मा को मुक्ति मिली भी होगी या नहीं आख़री साँस तक इंतजार करती रही……. कहते हुए उनके आवाज भर्रा गए….. नीलम से अब और नही सुना गया।
अच्छा भाई साहब अब मैं चलती हूँ कहकर बाहर निकल आई नीलम सोचती रही ना जाने विधाता इंसानी स्वार्थ को किस लचीली धातु से बनाता होगा जिस ओर उनका स्वार्थ पूरा होता दिखता है उसी ओर मुड़ जाता है।
समय सुविधा, और जरूरत के हिसाब से रिश्तों की अहमियत भी बड़ी आसानी से बदल लेता है मनुष्य…………
अनिता वर्मा