*माँ की तपस्या* – पुष्पा जोशी : Moral Stories in Hindi

सीधी, सहज, सरल, सुशील, सुन्दर सुलभा ने कभी सोचा भी नहीं था, कि उसके बचपन की एक जिद उसे अपने जीवन में कितनी भारी पड़ेगी। सुलभा सर्वगुण सम्पन्न थी, गृहस्थी के कार्य हो या रिश्तों को निभाने की बात वह सब बखूबी करती थी। मगर ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी।वह सिर्फ पॉंचवी कक्षा पास थी। माता पिता ने बहुत कोशिश की। उसके भाई बहिनों ने बहुत समझाया कि सुलभा पढ़ाई कर ,मगर उसकी एक ही जिद थी, उसे पढ़ाई नहीं करना है। उसकी रूचि घर के कार्यों को करने में थी

और वह सभी कार्यों में दक्ष हो गई थी। छोटा सा गॉंव था, गॉंव‌ मे होने वाले  सभी समारोह में वह जाती गाना, बजाना, नृत्य करना, सबके कामों में हाथ बटाना उसे अच्छा लगता था। बस पढ़ाई का कहते तो वह नाराज हो जाती। विवश होकर माता -पिता ने उसे पढ़ाई का कहना छोड़ दिया। उसके भाई ने पढ़ लिखकर बैंक में नौकरी कर ली। दो बड़ी बहने थी जिन्होंने स्नातक की डिग्री प्राप्त की और उनकी शादी हो गई। सुलभा भी १८ साल की हो गई थी, माता पिता को उसके विवाह की चिंता हो रही थी

कि इसका विवाह कैसे होगा, बहुत सीधी साधी लड़की है, ज्यादा पढ़ी लिखी भी नहीं है। उसकी उम्र बढ़ती जा रही थी। उसका पढ़ा लिखा न होना उसके विवाह में बाधक बन रहा था। एक दिन वह अपने माता पिता के साथ किसी विवाह समारोह में गई थी वहाँ सोमेश्वर बाबू का परिवार भी आया था। सुलभा दौड़ -दौड़ कर काम कर रही थी, दिखने में तो वह सुन्दर थी ही। सोमेश्वर बाबू ने उसके बारे में लोगों से पूछताछ की तो उन्हें पता चला कि, वह सिर्फ पॉंचवी पास है ,इसलिए उसकी शादी नहीं हो रही है।

उन्होंने अपने तीसरे नम्बर वाले बेटे मनीष का विवाह उससे करने का सोचा। सोमेश्वर बाबू का धनाड्य परिवार था। मनीष भी दिखने में ऊंचा पूरा नौजवान था। मगर कुछ मंद बुद्धि था और उसका रिश्ता भी नहीं हो रहा था। सोमेश्वर बाबू ने सुलभा के माता पिता के सामने प्रस्ताव रखा। उन्होंने सोचा मनीष अच्छा दिखता है, परिवार में किसी चीज की कमी नहीं है। कुछ मंदबुद्धि है तो ठीक है, उनकी बेटी के लिए भी तो कोई रिश्ता नहीं आ रहा है। सम्पन्न परिवार है बेटी सुखी रहेगी। यह सोचकर उन्होंने स्वीकृति दे दी।

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शादी हो गई, सुलभा अपने ससुराल चली गई। उसने अपने ससुराल के लोगों को मन से अपनाया और ससुराल के सारे काम काज भी जल्दी ही सम्हाल लिए। वह सोचती थी कि सब उसके साथ स्नेह का व्यवहार करेंगे। उसके काम की सराहना करेंगे मगर यहाँ तो सब अलग ही मिट्टी के बने थे। किसी के मुख से प्रशंसा का एक बोल भी नहीं निकलता था। और किसी से क्या उम्मीद करे उसका पति मनीष भी जैसे अपनी दोनों भौजाइयों के हाथ की कठपुतली था। वे जैसा कहती वैसा ही करता, वे दोनों उसका मजाक भी उड़ाती

मगर उसे कुछ समझ ही नहीं आता। वह जो कमाता वह भी भौजाई को दे देता। सुलभा की बड़ी जैठानी लता बहुत कर्कश स्वभाव की थी, उसका पति रजनीश अच्छे पैसे कमा रहा था। इस बात का उसे घमण्ड भी था। रजनीश अय्याश प्रकृति का था और उसकी नजरे हमेशा सुलभा को घूरती रहती थी,

सुलभा को अच्छा नहीं लगता था मगर वो शिकायत करे तो किससे? पति कुछ सुनने को तैयार नहीं। रजनीश की हरकतें लता से छुपी नहीं थी, वह पति से कुछ नहीं कहती मगर सुलभा के प्रति खार की भावना रखती थी। दूसरे नम्बर की जैठानी आशा बहुत ही आलसी थी, उसका पति उसकी जी हजूरी करता और वह अपने आप में मस्त रहती। सासुजी का स्वास्थ ठीक नहीं रहता था अत: वे किसी से कुछ कहती नहीं थी।

सोमेश्वर बाबू का रूबाब अलग ही था, उन्हें अपना हर काम समय पर चाहिए रहता था। सुलभा सभी का ध्यान रखती थी। काम भी व्यवस्थित करती थी, मगर किसी की सहानुभूति,और प्रशंसा के दो बोल‌ के अभाव में उसका चेहरा मुरझाने लगा था। तभी उसके जीवन में एक खुशी की लहर आई, उसको एक बेटा हुआ

उसका नाम उसके दादाजी ने रोशन रखा। अब वह अपने बेटे को देखकर खुश रहने लगी। वह पढ़ी लिखी नहीं थी पर अब उसे पढ़ाई का महत्व समझ में आ गया था, वह अपने बेटे को बहुत पढ़ाना चाहती थी। सोमेश्वर बाबू का अपने पौते पर विशेष प्रेम था,और वे उसका बहुत ध्यान रखते थे। समय परिवर्तनशील है,

सुलभा की खुशी भी उदासी में बदल गई । मनीष को एक बार तेज बुखार चढ़ा  और ज्वर दिमाग तक पहुँच गया, तबियत सम्हल नहीं पाई और वह दुनियाँ छोड़ कर चला गया। सुलभा के जीवन में अंधेरा छा गया। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या करे। सोमेश्वर बाबू का व्यवहार चिड़चिड़ा हो गया था। बात- बात पर सुलभा पर भी चिढ़ जाते। सासुजी ने तो अब सुलभा से बोलना ही बंद कर दिया था। संकीर्ण मानसिकता के चलते वे सुलभा को मनहूस मानने लगी थी।

बड़े जैठ की कामुक नजरें और गहराती जा रही थी, वे उसके आसपास डोलने लगे थे। जैठानी की कर्कश आवाज का सामना करना, और सबकुछ सहते हुए घर के सारे काम करना उसके लिए आसान नहीं था। यही उसकी नियति बन गया था। कई बार उसकी इच्छा होती ऐसे घर में रहने से तो अच्छा है कहीं चली जाए और मजदूरी करके पेट भर ले। दिनभर कोई न कोई व्यंगबाण चलाता ही रहता है, दिन भर काम करने से शरीर भी थक कर चूर चूर हो जाता है,किसी को परवाह कहाँ है उसकी।

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पर तभी बेटे का खयाल आता,वह बेटे को पढ़ा -लिखा कर कुछ बनाना चाहती थी। इसलिए घर से बाहर जाने का विचार उसने मन से निकाल दिया “औलाद के मोह के कारण वह सब सह  गई।” जीवन चलता रहा रोशन माँ के दु:ख को समझता था, वह मन लगाकर पढ़ाई करता।

एक दिन रोशन की मेहनत और उसकी माँ की तपस्या रंग लाई। रोशन ने बीई कर लिया था और एक बड़ी कंपनी में उसकी नौकरी लग गई थी। सुलभा आज भी उस मकान में रह रही थी मगर बहुत आराम से, बेटा आज्ञाकारी था और वह अपनी माँ को परिवार में सम्मान के साथ रखता था। काम करने के लिए उसने एक सहायिका को रख लिया था। अब सुलभा के जीवन में भी खुशियाँ आ गई थी।

प्रेषक

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

#औलाद के मोह के कारण वह सब सह गई

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