माँ की पीड़ा – दीपनारायण सिंह

आज सुबह से ही उसकी आँखे नम थी वो किसी पीड़ादायी सोच में डूबी अपनी दैनिक क्रियाएँ निपटा रही थी।कल तक जो चरण चपल जान पड़ते थे,आज पता नहीं क्यों लड़खड़ा रहे थे।आज उसके हाथ से आँचल के छोर छूट नहीं रहे थे।कोई निकलते आँसू को देख न ले,इसीलिए पसीना पोछने के बहाने बार-बार अपनी डबडबाती आँखों को पोछ रही थी।बहुएं कपड़े धोने में तल्लीन थी और वो कुकर में दाल चढ़ाकर अतीत की यादों में डुबकी लगाने लगी थी।

                      सबकुछ तो ठीक ही चल रहा था,पति के गुजरने के बाद।चार-चार कमाऊ पुत्र थे उसके,दिन-रात माँ की आज्ञा के आधीन रहने वाले।बड़ा बेटा ज्यादा पढ़ालिखा और समझदार था इसलिए वह उस पर ज्यादा भरोसा करती थी।चारों पुत्र अपनी कमाई माँ को ही सौंपते थे।धीरे-धीरे ये जवाबदेही उसने बड़े पुत्र को सौंप दी थी।जवाबदेही मिलने पर भी वो माँ से राय लेना नहीं भूलता था।एक बार वो हल्के पक्षाघात से पीड़ित हुई।थोड़े इलाज से ठीक भी हो गई,पर डॉक्टर ने बताया कि रक्तचाप की दवा जीवन भर खानी पड़ेगी।उस दिन से बड़े ने माँ से राय लेनी छोड़ दी।

                                   कल ही की तो बात है,वो अपने बड़े पुत्र से प्यार भरे अंदाज                     

में बोली कि ब्लडप्रेशर की दवा समाप्त होने वाली है।तब बड़े पुत्र ने झुंझलाकर कहा था कि अब दवा खाकर क्या करोगी माँ।मेरे सिर पर इतना बड़ा जंजाल है,उसे देखु कि तुम्हें।माँ सन्न रह गई थी।एक विचित्र सी दशा में चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी।चेत होने पर जोर से रोना चाहती थी,पर लोकनिंदा के भय से रुलाई को कंठ तक आने ही नहीं दिया।

                      अचानक से उसकी सोच एक तेज आवाज से भंग।हुई।बड़ी बहू जोर-जोर से चिल्ला कर बोल रही थी,हाय राम दाल जल गई पर अम्माजी न जाने किन ख्यालों में गुम है।बोलने का लहजा व्यंग्यात्मक था।

                      वो हड़बड़ा कर उठी पर दाल पूरी तरह जल चुकी थी।साथ-साथ उसका दिल भी।

स्वरचित

दीपनारायण सिंह(सीतामढ़ी)

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