घर के आंगन में हलचल थी। जैसे ही कांता रसोई में घुसने के लिए कदम बढ़ाती है, एक अजीब सी खुशबू उसकी नाक में समाती है। वह यह खुशबू पहचान जाती है—यह सुलोचना जी के हाथों की बनी पकवानों की महक थी। कांता चहकते हुए रसोई में घुसी और उत्सुकता से पूछा, “माला दीदी आ रही हैं क्या आँटी जी?”
सुलोचना जी हंसते हुए, कांता के सवाल का जवाब देती हैं, “नहीं, मेरे बेटे बहू आ रहे हैं।” उनकी आवाज़ में उस दिन की ख़ुशियाँ साफ सुनाई दे रही थीं। वह बस यही सोच रही थीं कि उनके बेटे और बहू के आने से घर में जो शांति और सुकून आएगा, वह शायद कभी महसूस नहीं किया था।
कांता ने अपनी जिज्ञासा पूरी करते हुए पूछा, “ओह, बेटे के लिए पकवान बनाए जा रहे हैं?”
सुलोचना जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “नहीं रे, मेरा बेटा इतना शौकीन नहीं है। पर मेरी बहू को बहुत पसंद है सब। उसी के लिए बना रही हूँ।” उनका चेहरा संजीदगी से मुस्कराहट में बदल जाता है, जैसे उन्होंने अपने दिल की बात की हो।
कांता ने एक मजाकिया लहजे में पूछा, “बहू के लिए भी कोई इतना करता है क्या? अधिकतर घरों में तो बेटी आने वाली होती तो सास पूरा घर सिर पर उठा लेती। पर आप तो…”
सुलोचना जी ने हंसी में जवाब दिया, “क्यों रे, बेटियाँ बहुएँ हमारी ही तो हैं। जब बेटी का ख़याल रख सकते हैं, तो बहू का क्यों नहीं? वैसे भी मेरी बहू को वह सब दूँगी जो एक माँ देती है। उसे कभी माँ की कमी नहीं होने दूँगी।” उनके चेहरे पर एक गहरी संतुष्टि थी। यह केवल शब्द नहीं थे, बल्कि एक माँ का अपने परिवार के प्रति प्रेम और समर्पण था, जो वह हर शब्द में महसूस कर रही थीं।
कांता ने सिर झुका कर फिर कहा, “आप तो अनोखी सास हो!” उसकी आवाज़ में आस्था थी, जैसे वह इस बात पर पूरी तरह से विश्वास कर चुकी हो।
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“हाँ, वह तो है।” सुलोचना जी की आवाज़ में गर्व था। “मेरी सास सबसे अनोखी।” यह शब्द जैसे उनकी आत्मीयता और सच्चाई का प्रतीक थे। तभी, सुलोचना जी की बहू, माला, रसोई में दाखिल होती है। वह दोनों की बातें सुन चुकी थी और सास की बातें उसके दिल को छू गईं।
माला ने सुलोचना जी को प्रणाम किया और उनके गले लगते हुए कहा, “आप सच में मेरी माँ हो। मैं कभी भी यह महसूस नहीं होने दूँगी कि मुझे माँ का प्यार और सहारा नहीं मिल रहा।” यह शब्द माला की आँखों में चमक लाए थे, जैसे यह रिश्ते की नयी शुरुआत हो। यह शब्द दोनों के बीच के रिश्ते की परिभाषा बन गए थे।
यह कहानी सिर्फ रिश्तों की ही नहीं, बल्कि एक माँ के अद्वितीय प्रेम और समझदारी की भी थी। सुलोचना जी ने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि माला उनके बेटे की पत्नी है, और उनकी खुद की बेटी नहीं। उन्होंने अपनी बहू को बेटी की तरह ही समझा, और इसे निभाया भी। जब माला के माता-पिता का देहांत हो गया था, तो सुलोचना जी ने न केवल अपने बेटे को, बल्कि माला को भी अपने परिवार में पूरी तरह से अपनाया।
वह जानती थीं कि एक बहू को कभी अपनी माँ की कमी महसूस नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यह एक माँ का सबसे बड़ा कर्तव्य होता है। सुलोचना जी ने हमेशा यह कोशिश की कि माला को कभी यह न लगे कि वह अकेली हैं। घर के हर एक कोने में उनका ध्यान था, और हर बात में यह महसूस होता था कि वह अपनी बहू के लिए अपनी पूरी दुनिया को बदलने के लिए तैयार हैं।
माला, जिनकी मां का निधन उनके बचपन में ही हो गया था, वह सुलोचना जी के स्नेह से अभिभूत थी। उसने कभी नहीं सोचा था कि कोई उसे इस तरह प्यार और देखभाल देगा। उसकी सास ने न केवल उसे पत्नी के रूप में स्वीकार किया, बल्कि उसे एक बेटी की तरह ही प्यार दिया। यह सुलोचना जी की मां होने की अनोखी विशेषता थी कि वह एक महिला को पत्नी के साथ-साथ एक बेटी भी मानती थीं।
माला हमेशा सुलोचना जी के साथ समय बिताने का आनंद लेती। वह समझती थी कि सास का दिल किसी भी माँ के दिल से कम नहीं होता, और यही वजह थी कि वह सुलोचना जी से जुड़े हर पल का मोल समझती थी। अक्सर सुलोचना जी माला को अपनी ज़िंदगी के अनुभव सुनातीं, जिससे माला को न केवल परिवार के बारे में सीखने को मिलता, बल्कि रिश्तों की सच्ची समझ भी होती।
एक दिन माला ने सुलोचना जी से कहा, “आप जैसी सास मिलना बहुत दुर्लभ होता है। आपने मुझे कभी अपनी बहू नहीं माना, हमेशा अपनी बेटी की तरह रखा।” सुलोचना जी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, “बिटिया, बहू तो किसी की भी हो सकती है, लेकिन जब दिल से रिश्ते बनते हैं, तो वह कभी नहीं टूटते।” सुलोचना जी का यह वाक्य माला के दिल में हमेशा के लिए बस गया।
सुलोचना जी ने अपने घर को ऐसे बनाया था कि माला को कभी अपनी माँ की याद नहीं आई। वह हमेशा यह महसूस करती थी कि सुलोचना जी ने न केवल अपनी बहू को अपनाया है, बल्कि उसे सच्चे मायने में एक माँ का प्यार दिया है।
घर के हर कोने में खुशियों का आभास था। सुलोचना जी ने कभी यह नहीं सोचा कि बहू के साथ उनके रिश्ते में कोई दूरी होनी चाहिए। वह हमेशा यही चाहती थीं कि उनके घर में न केवल बेटा-बहू का प्यार हो, बल्कि बहू-सास का रिश्ते भी उतना ही गहरा और मजबूत हो। और यही कारण था कि माला ने हमेशा अपनी सास को अपनी माँ की तरह ही समझा।
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इस कहानी से यह सिखने को मिलता है कि रिश्ते कभी भी रक्त संबंधों से नहीं बनते, बल्कि उन रिश्तों की सच्चाई, समझ और प्यार से बनते हैं। एक सास अपनी बहू को सिर्फ एक रिश्ते के रूप में नहीं देख सकती, बल्कि उसे अपनी बेटी के रूप में स्वीकार कर, उसे हर जरूरत में माँ के प्यार से सराबोर कर सकती है। सुलोचना जी ने यही किया, और माला ने इसे अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा माना।
रश्मि प्रकाश